कई लोगों के मुताबिक पेइचिंग ओलंपिक दुनिया के लिए ड्रैगन की हुंकार है। लेकिन वे अब भी असल बात को नहीं देख रहे हैं। इस ओलंपिक में सचमुच एक संदेश छुपा हुआ है, लेकिन उसका वास्ता दुनिया से नहीं, बल्कि चीनी लोगों के लिए ज्यादा है।
यह संदेश काफी साफ है : आपने हमें खुद पर राज करने का मौका दिया और देखिए हमने पूरी दुनिया के सामने आपका सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है। 'इकनॉमिस्ट' और 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' पढ़ने वाले वे लोगबाग यह सोचते आए थे कि एक दिन चीन में जनता कम्युनिस्ट शासकों के खिलाफ झंडा बुलंद करेगी, आज बगलें झांकते नजर आ रहे हैं। उन्हें अभी लंबा इतंजार करना पड़ेगा।
चीन की ऊंची-ऊंची इमारतों, तेज रफ्तार सड़कों और चमक-दमक के बावजूद भी वहां एक आम चीनी अपने आपको सरकार और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ पाता है। इस बात को चीन की तरफ रुख करने वाला कोई भी समझदार शख्स समझ सकता है। लोकतंत्र कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसपर चीन के ज्यादातर युवा अपना वक्त बर्बाद करना चाहते हैं।
पेइचिंग की जिन लू चेंगदू इलाके से ताल्लुक रखती हैं और पेशे से एक पत्रकार हैं। जब मैंने 'लोकतंत्र' जैसा विवादास्पद मुद्दा उनके सामने रखा, तो उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ मुझसे पूछा, 'क्या यह खतरनाक नहीं है? जरा सोचिए अगर कोई एक अकेला इंसान, लोगों से बात करे तो, क्या होगा? हिटलर तो बहुत बोलता था। उसके भाषणों ने जर्मनों पर जादू सा कर रखा था।
हम सभी जानते हैं कि उस जादू का अंत कितना भयानक हुआ था।' चीन में अक्सर लोकतंत्र पर चर्चा में आपको ऐसे ही तर्क सुनने को मिलेंगे। मैंने कहा कि हिटलर ने अपने भाषण से नहीं, बल्कि जर्मन सम्मान के मुद्दे को उठाकर लोगों पर जादू किया था। उसने वर्सिलिज की संधि में जर्मनी के अपमान की वजह से लोगों का समर्थन पाया था। लेकिन लियू कहां मानने वाली थीं।
लाखों दूसरे चीनियों की तरह वह भी पेइचिंग के उसी तर्क को मानती हैं कि लोकतंत्र भारत जैसे मुल्कों की तरक्की में बहुत बड़ा रोड़ा साबित हुआ है। ये मुल्क आज भी गरीबी के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं, जबकि चीन तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा है। पेइचिंग की जबरदस्त प्रोपैगंडा मशीन हर रोज इस तरह लाखों संदेशों लोगों तक पहुंचाती है।
चीन सरकार का कहना है कि, 'आम चीनियों की जिंदगी दिनोदिन बेहतर होती जा रही है। चीन आज तेजी से बेइाती से भरी उस सदी से बाहर आ रहा है। आज अगर लोकतंत्र आया तो उसकी वजह से हिटलर जैसे नेता पैदा हो जाएंगे, जो चीन को वापस उसी वक्त में ले जाएंगे। आर्थिक विकास, सामाजिक और राजनीतिक विकास पर निर्भर होता है।'
पेइचिंग पर कभी किसी विदेशी हुकूमत का झंडा तो नहीं लहराया, लेकिन 1840 के बाद 1948 तक उसके फैसले पश्चिमी दुनिया के मुल्क ही लेते आए थे। चीनियों के जेहन में आज भी तंग श्याओ फिंग के सुधारों से पहले और 1989 में थ्येन आन मन चौक की घटना के बाद के उथल-पुथल की याद ताजा है। इसलिए तो उन्हें स्थिरता का वादा काफी अच्छा लगता है।
वे भी मानते हैं कि सरकार जो कर रही है, उसके बारे में उसे पता होना ही चाहिए। चीनी भावनाओं से ओत-प्रोत समाजवाद ही इसके लिए जरूरी है। कम्युनिस्ट सरकार और सारी बातों पर गौर करने के बाद और बहुत सावधानी के साथ धीरे-धीरे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुधारों को लागू करती है। इसमें सरकारी मीडिया की काफी अहम भूमिका होती है।
वहां से इन सुधारों की मांग तभी पैदा होती है, जब सरकार इसे मुहैया करवाने के लिए तैयार बैठी होती है। अगर वहां विरोध भी होते हैं, तो वे भी क्षेत्रीय स्तर पर होते हैं। यही है चीन का लोकतंत्र। इसे तानाशाह कुछ भी नाम दे सकते हैं, जैसे जमीनी लोकतंत्र या मौलिक लोकतंत्र। मगर हकीकत तो यही है कि इसे कोई भी कानूनी लोकतंत्र की संज्ञा नहीं दे सकता है।
पेइचिंग की सावधानी बरतने की यह नीति उन दो विचारबिन्दु के बीच समझौते से जन्मी, जिनके बीच सदियों से एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ थी। एक तरफ तो है दक्षिणी विचार पक्ष, जो मुक्त व्यापार की अंतरराष्ट्रीय धारणा की तरह सोचता है। इस विचार का जन्म शांघाई, कैनटॉन, मकाऊ और गुआंगडॉन्ग के आसपास बंदरगाहों और कारोबारी प्रतिष्ठानों में हुआ था।
दूसरी तरफ है उत्तर की अति सुरक्षा की नीति, जिसका प्रतीक का चीन की महान दीवार। मंगोलों और मंचूओं के लगातार आक्रमणों से लोगों के दिल में अतिसुरक्षा की नीति घर कर गई। इस नजरिये से देखें तो चीन में विदेशियों को दोस्त नहीं दुश्मन समझा जाता है। समय के साथ-साथ उत्तर का विचार पक्ष काफी मजबूत हो गया।
इसकी शुरुआत हुई 1435 में मिंग सम्राट के उस आदेश के साथ, जिसमें उन्होंने चीन में नाव बनाने और नाविक गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। 1477 के आस-पास सम्राट ने चीनी इतिहास के महानतम नाविक जेंग की सात यात्राओं के सारे रिकॉर्ड आग के हवाले कर डाले। उसी नाविक की वजह से जावा, मलक्का और अफ्रीका के तटीय इलाकों तक चीन का झंडा पहुंच सका था।
आज की तारीख में चीन इन दोनों विचारधाराओं के बीच काफी महीन सी रस्सी पर चल रहा है। चीन की आर्थिक हालत ही उसकी ताकत और दुनिया पर उसके प्रभाव की जड़ है। दूसरी तरफ, सरकार लोगों को हद से ज्यादा आजादी भी नहीं देना चाहती है, जिसकी वजह से उसके अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे।
हमें काफी सावधानी के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में चीन के दो परस्पर विरोधी विचारों को भी देखा होगा। एक तरफ तो चीन पश्चिमी मुल्कों की तरह अपनी प्रभुसत्ता की पूरे जज्बे के साथ इज्जत करता है। खास तौर पर यह इज्जत थ्येन आन मन चौक हत्याकांड के बाद देखी गई, जब पेइचिंग ने प्रभुसत्ता का हवाला देकर बाहरी दुनिया की निंदा को नजरअंदाज कर दिया था।
हकीकत तो यही है कि 19वीं सदी से ही अपनी प्रभुसत्ता चीन अपनी प्रभुसत्ता का मुद्दा उठाता आया है। उस वक्त तो वह विदेशी हमलों के खिलाफ इसका हवाला देता था। चीन ने पंचशील में भी इसे बतौर हथियार शामिल कर रखा है। एक ऐसा हथियार, जिसे वह विदेशी विरोध के मामले में ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकता है, अंदरुनी विरोध आने पर उसकी तलवार से उस विरोध सिर भी कलम कर सकता है।
दूसरी तरफ, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में वह अपनी 1840 की एक नीति पर आज भी चल रहा है। उस नीति के मुताबिक एक मजबूत मुल्क की ताकत का अंदाजा उसके आसपास के मुल्कों पर पड़ने वाले प्रभाव से लगता है। इसीलिए तो आज की तारीख में उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे मुल्क कोई भी अहम कदम उठाने से पहले एक बार चीन से 'सलाह' जरूर कर लेते हैं।
कभी-कभी यह प्रभाव पैसे नहीं, हथियारों के बूते भी जमाना पड़ता है। इसकी नजीर 1962 में भारत और 1979 में वियतनाम के साथ हुई उसकी लड़ाइयां हैं। पेइचिंग ओलंपिक में चीनी जिमनास्टों ने सचमुच आपना सिक्का जमा दिया, लेकिन अगर दिमागी जिमनास्टिक की कोई प्रतियोगिता होती, तो भी स्वर्ण पदक चीनियों को ही मिलता।