किसान से सलाह मशविरा कर विकसित होगी नई तकनीक | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / March 26, 2013 | | | | |
कृषि वैज्ञानिकों और किसानों के बीच किसी तरह का संवाद नहीं होने के कारण अक्सर ऐसी तकनीकों का विकास होता है, जो काफी उपयोगी नजर आने के बावजूद बहुत कम किसानों को स्वीकार्य होती हैं। किसानों और वैज्ञानिकों के बीच का यह अंतर किसानों के समक्ष मौजूद कई अहम परिचालन समस्याओं की वजह बनता है, जिनका समाधान नहीं निकलता। लेकिन इस पूरे खेल में नुकसान सिर्फ किसानों का ही नहीं होता है बल्कि कृषि वैज्ञानिकों के हाथ भी निराशा लगती है क्योंकि उनकी मेहनत को कोई पहचान नहीं मिल पाती है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक और शोध प्रबंधक किसानों के साथ करीब से बातचीत करने की अहमियत को नहीं समझते हैं या नजरअंदाज करते हैं। दरअसल पारंपरिक तौर पर राज्य सरकार के नियंत्रण में आने वाली एजेंसियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है कि वे कृषि वैज्ञानिकों और शोध प्रबंधकों के बीच दो तरफा संवाद का काम करें। लेकिन वे अपनी इस जिम्मेदारी को प्रभावी तरीके से निभाने में विफल रही हैं। इसलिए किसानों और कृषि वैज्ञानिकों को करीब लाने के लिए नई रणनीति बनाई गई है।
सौभाग्य की बात है कि पिछले कुछ समय से इस दिशा में काफी सोच-समझकर और सुनियोजित पहल की जा रही हैं। इनमें से कई पहल ने काफी उपयोगी उद्देश्य भी हासिल करने में सफलता पाई है। इनमें लैब टु लैंड प्रोग्राम (1979), ऑपरेशनल रिसर्च प्रोग्राम (1974) और द इंस्टीट्यूट विलेज लिंकेज प्रोग्राम (1995) सबसे उल्लेखनीय कार्यक्रम रहे हैं। इसके अलावा विश्व बैंक के समर्थन से चल रहे राष्टï्रीय कृषि नवप्रवर्तन कार्यक्रम (2006) के उद्देश्य में से एक लक्ष्य खेत से लेकर खाने की मेज तक आने वाले मसलों को सुलझाने के लिए सहयोगात्मक शोध को प्रोत्साहित करना भी था। इन कार्यक्रमों के तहत किए जा रहे शोध में उत्पादकों से लेकर उपभोक्ताओं तक जुड़े सभी पक्षों को जानकारी के दायरे में रखा जाता है। हालांकि यह पहल भी उपभोक्ताओं और उत्पादकों को साझेदार नहीं बना पाई।
इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए पूरे राष्टï्रीय कृषि अनुसंधान तंत्र (एनएआरएस) की निगरानी करने वाली भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने एक नया नजरिया अपनाया फार्मर-फस्र्ट। इस विचारधारा को 12वीं पंचवर्षीय योजना में अमली जामा पहनाने की कोशिश की जाएगी। इस पहल में पुराने कार्यक्रमों के सकारात्मक पहलुओं को शामिल करने के अलावा वैज्ञानिक-किसानों की बातचीत को आगे ले जाया जाएगा, जिससे तकनीकी विकास के हर चरण में किसानों को शामिल किया जा सके। यानी शोध परियोजनाओं के नतीजों को अपनाने की योजना से लेकर उसके क्रियान्वयन और संवद्र्घन तक में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। इस तरह की सहभागिता से किसानों के परंपरागत ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल शोध एवं विकास परियोजनाओं का प्रारूप तैयार करने और उसे लागू करने में भी उपयोगी साबित होगा। जाहिर तौर पर यह पहल शीर्ष से निचले स्तर तक की पारंपरिक व्यवस्था से हटकर होगी, जिसमें शोध संस्थान तकनीकी विकास में शामिल होंगे और फिर किसानों को इससे अपनाने को कहेंगे यानी शोध कार्यक्रमों का क्रियान्वयन निचले स्तर से शुरू होकर ऊपर की ओर जाएगा।
इस अवधारणा के पीछे जो तर्क दिया गया है वह काफी सही प्रतीत होता है। किसानों को खेती के दौरान आमतौर पर नित्य नई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उनके पास इन समस्याओं के समाधान का कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं होता है। फार्मर-फस्र्ट अवधारणा से वैज्ञानिकों को किसानों की समस्याओं को समझने और उनका समाधान तलाशने का अवसर मिलेगा। दरअसल किसान जल और मिट्टïी जैसे प्राकृतिक संसाधनों और तकनीक अपनाने की स्थानीय लोगों की क्षमता जैसे स्थानीय हालात से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं। ऐसे में वे काफी उपयोगी सुझाव दे सकते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि शोध के नतीजे काफी व्यावहारिक और प्रासंगिक हों।
खास बात यह है कि फार्मर-फस्र्ट कार्यक्रम महज फसल उत्पादकों तक ही सीमित नहीं रहेगा। पशुपालकों, मछुआरों और बीज उत्पादन, मधु-मक्खी पालन, मशरूम की खेती, जैविक खाद (केंचुआ आधारित), फसलों के मूल्य वर्धन जैसी गतिविधियां भी इसके दायरे में आएंगी। एनएआरएस के तहत आने वाले सभी कृषि शोध संस्थान इस अवधारणा का पालन करेंगे। इनमें 97 आईसीएआर शोध संस्थान, राज्यों के 22 कृषि विश्वविद्यालय, एक केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, 632 कृषि विज्ञान केंद्र और शोध संस्थानों के प्रादेशिक केंद्र और कृषि विश्वविद्यालय शामिल होंगे।
हर संगठन दो से चार गांवों के 1000 कृषक परिवारों को अपने साथ जोड़ेगा। इस परियोजना में लघु एवं सीमांत किसानों को तरजीह दी जाएगी क्योंकि आमतौर पर उनके पास संसाधनों की किल्लत रहती है और उन्हें इन समस्याओं के लिए किफायती और व्यावहारिक समाधान की दरकार होती है। हर पहल को विभिन्न गतिविधियों के अनुसार आगे कई उप-परियोजनाओं में बांटा जा सकता है मसलन फसल, बागवानी, पशुपालन, मुर्गीपालन, मत्स्य पालन और अन्य गतिविधियां। इन पहल के नतीजों को न सिर्फ स्थानीय प्रतिभागियों के साथ साझा किया जाएगा बल्कि इसमें राज्यों की एजेंसियों, कृषि विज्ञान केंद्रों, स्वयंसेवी संस्थाओं और अन्य के साथ भी साझा किया जाएगा, जिससे ये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके।
इससे तो फौरी तौर पर यही लगता है कि फार्मर-फस्र्ट योजना से आम किसान को व्यावहारिक और किफायती तकनीक उपलब्ध कराने में सक्षम है। अगर इस योजना को सफलतापूर्वक लागू किया गया तो इससे कृषि विकास को रफ्तार मिलने की उम्मीद की जा सकती है साथ ही इससे किसानों की आय में इजाफा होगा, लागत घटाने में मदद मिलने के साथ ही उनकी उत्पादकता में भी बढ़ोतरी होगी।
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