मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने 15 महीने हो चुके हैं। इस दौरान उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का सामना करना पड़ा।
उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान भी व्यापक दौरा किया। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी एक सीट भी नहीं जीत पाई, लेकिन उसने कम से कम 15 सीटों पर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। साथ ही, उन्होंने पंजाब, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और बिहार में भी कई रैलियां की।
इस 15 महीने के दौरान उन्हें बलिया लोकसभा सीट गंवानी पड़ी, तो उन्होंने कई दूसरी लोकसभा और विधानसभा सीटों पर कब्जा भी कर लिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को चौथे और भाजपा को तीसरे स्थान पर धकेल दिया। साथ ही, इस दौरान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार से भी उसका मोह भंग हो गया।
इन 15 महीनों में मायावती को एक बार विश्वास मत का भी सामना करना पड़ा। लेकिन उनके राजनीतिक कैरियर का अब तक का सबसे अच्छा वक्त तो पिछले महीने जुलाई में आया, जब भाकपा नेता ए.बी. वर्ध्दन ने उन्हें मुल्क का भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया।
इस सफर को बुरा तो नहीं कहा जा सकता है, क्यों? सबसे अहम बात यह है कि मायावती के समर्थकों को उनमें काफी अंतर दिख रहा है। वे भी मानते हैं कि बहनजी की सरकार के पहले आठ या नौ महीने काफी मुश्किलों से भरे हुए थे। दलितों पर अत्याचार कभी भी अखबारों के पहले पन्ने की खबर नहीं रही, लेकिन इस बार उन अत्याचारों को पुलिस चुपचाप खड़ी देखती रही।
उनके राज में एक दलित दुकानदार को केवल इसलिए पीटा गया क्योंकि उसने एक ब्राह्मण से किराने का बिल चुकता करने के लिए कहा था। कुछ दिनों के बाद वह यकायक गायब भी हो गया। लेकिन पुलिस ने एफआईआर तक दर्ज नहीं की। पुलिस के मुताबिक यह उनकी अपराध की दर कम दिखाने की कोशिश है।
दरअसल, बहनजी मुख्यमंत्री बनने के बाद दुनिया को यह दिखाना चाहती थीं कि मुलायम सिंह यादव का शासनकाल (जो निठारी कांड के साथ खत्म हुआ था) की तुलना में उनके राज में कानून व्यवस्था की हालत अच्छी है। इसका केवल एक ही रास्ता था। कम एफआईआर मतलब होता है कम अपराध दर।
लेकिन इस साल मार्च-अप्रैल में बिजनौर में हुई घटना ने पूरा का पूरा माहौल ही बदलकर रख डाला। बहनजी के सर्वजन समाज के सपने को भारतीय किसान यूनियन के मुखिया महेंद्र सिंह टिकैत ने सिसौली के पास एक रैली में मायावती को जातीय गाली दे-देकर टुकड़े-टुकडे क़र डाला। वे गालियां ऐसी थीं, जिनके बारे में मैं नहीं बता सकती।
हालांकि, इस रैली ने भयभीत जाटवों (मायावती की जाति को पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसी नाम से जाना जाता है) के लिए यह बात साफ कर दी कि उनके पुराने प्रतिद्वंद्वी जाट उनके सत्ता पर काबिज होने से तो खुश नहीं ही हैं, साथ ही, वे जाटवों को सजा देने से भी बाज नहीं आएंगे। इससे एक बात तो मायावती के लिए भी पूरी तरह से साफ हो गई कि जब तक वह प्रशासन पर अपनी उंगुलियों पर नहीं नचा सकती हैं, वह दलितों की सुरक्षा की भी गारंटी नहीं दे सकती हैं। वह एक मुख्यमंत्री हैं, और उनकी पिता के उम्र का एक आदमी उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां दे रहा है।
उनके समर्थकों का कहना है कि कानून व्यवस्था और दलितों की सुरक्षा बहनजी के राज में कोई मुद्दा नहीं रह गया है। अब कोशिश चल रही है 50-60 सांसदों को जुटाने की, ताकि वह पीएमओ पर अपना दावा ठोक सकें। अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी दलितों के लिए एक बड़ा कदम था, तो आप उस असर का अंदाजा तक नहीं लगा सकते, जो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पैदा होगा। लेकिन सवाल पैदा होता है, कैसे? उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के होने की घोषणा कर दी है। इसके पीछे वजह यह है कि सूबा यह जान सके कि कोई है, जो उनके बाद उसे संभाल सकता है।
बहनजी से उम्र में 18 साल छोटे दलित वर्ग के एक नेता का नाम एक सीलबंद लिफाफे में बसपा नेतृत्व को सौंप दिया गया है। इस तरह से उनकी गैरमौजूदगी में बसपा पर कब्जा जमाने का ख्वाब देने वाले नेताओं को वह साफ संकेत देना चाहती हैं कि दूर रहो। उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना तभी पूरा हो सकता है, जब उन समर्थन बड़े क्षेत्र में होने के साथ-साथ गहरा भी हो। यह मकसद तो विकास कार्यों के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आज की तारीख में विकास का चक्का तेज रफ्तार से घूम रहा है।
केंद्र सरकार के पैसों के जरिये कई जगहों पर सड़क और गरीबों के लिए घर बनाने के काम किया जा रहा है। मायावती इस बात को सुनिश्चित कर रही हैं कि बिना किसी प्रशासनिक दिक्कत के काम पूरा हो। उनके समर्थक इन परियोजनाओं में भ्रष्टाचार की शिकायत करते हैं, जो उनके मुताबिक ऊंची जाति के लोगों की साजिश है। गरीबों के लिए वजीफों की बरसात हो रही है और हर चीज ऑनलाइन हो रही है।
पिछले साल के विधानसभा चुनाव में कुल वोटों में बसपा का 31 फीसदी वोटों पर कब्जा था। वहीं उससे पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 24 फीसदी मत मिले थे। पिछले साल उसकी जीत की अहम वजह थी सभी जातियों के गरीबों को लुभाना। समाजवादी पार्टी को 25 फीसदी वोट ही मिले थे, लेकिन इस बार उसे 48 सीटों को गंवानी पड़ी। इस हार में कांग्रेस के आठ फीसदी वोटों की बड़ी भूमिका रही।
अगर सपा ने कांग्रेस के साथ चुनाव से पहले ही समझौता कर लिया होता, तो वोटों का यह बंटवारा नहीं हो पाता। इस खतरे से निपटे के वास्ते बसपा को सपा में से हर उस नेता को तोड़ना पड़ेगा, जिसके मन में थोड़ा सा असंतोष है। लेकिन यह राह इतनी आसान नहीं है। मिसाल के तौर पर सपा के दो सांसद, अतीक अहमद और अफजल अंसारी को ही ले लीजिए। वे दोनों इस वक्त जेल में बंद हैं, जबकि पार्टी से उन्हें निष्कासित किया जा चुका है।
वे अब बसपा से जुड़ने की अपनी ख्वाहिश खुले तौर पर जाहिर कर चुके हैं। अहमद इस वक्त बसपा विधायक राजू पाल की 2005 में हुई हत्या के सिलसिले में इस वक्त जेल में बंद हैं। पाल की विधवा पूजा बसपा विधायक हैं। अशरफ, पाल के खिलाफ इलाहाबाद से खड़े हुए थे, लेकिन हार गए थे। हार के बाद अजीम ने सबके सामने कहा था कि इस सीट पर जल्द ही उपचुनाव होगा। पाल की 2005 में गणतंत्र दिवस के दिन हत्या कर दी गई थी।
जाहिर सी बात है, पूरे पाल समुदाय (उन्हें केवट समुदाय के नाम से भी जाना जाता है) की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि बहनजी क्या करती हैं। क्या वह उनके एक भाई के हत्यारे का दामन थाम लेंगी या फिर उस हत्यारे के दोस्ती के हाथ को झटक देंगी? उन्होंने इस बारे में वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने साफ कह दिया कि किसी भी हालत में राजू पाल के हत्यारों के साथ समझौते नहीं किया जाएगा।
वैसे, एक बात तो साफ है कि चाहे बहनजी प्रधानमंत्री बनें या नहीं, लेकिन उत्तर प्रदेश के दलित इस कोशिश में उनके साथ रहेंगे। वे इसके लिए सारे अपमान सहेंगे और उफ तक नहीं करेंगे। लेकिन क्या उनकी यह कोशिश इस लायक है, इस बात का पता तो आगे चलकर ही लगेगा।