जमीन का पड़ा ऐसा पचड़ा कि डाक तक का थैला छिन गया | अनसुनी आवाज / श्रीलता मेनन February 11, 2013 | | | | |
ओडिशा के तीन गांव ऐसे हैं जहां पिछले पांच सालों से किसी को कोई चिट्ठी नहीं मिली है। ऐसा नहीं है कि जगतसिंहपुर जिले में पारादीप बंदरगाह के सीमावर्ती ढिनकिया तालुक के तीन गांवों- ढिनकिया, गोविंदपुर और पाटना के लोगों को कोई चिट्ठी लिखता ही नहीं है। दरअसल ढिनकिया के डाकिया बाबाजी चरण को 14 दिसंबर 2007 को नौकरी से निलंबित किया गया था और तब से ही यहां के लोगों को डाक मिलनी बंद हो गई है। चरण पिछले 28 सालों से यहां डाकिये का काम कर रहे थे।
65 वर्षीय चरण निलंबन के बाद भी काम करते रहे और अगले आठ महीनों तक यानी कि जुलाई 2008 तक लोगों को उनकी डाक पहुंचाते रहे। उसके बाद डाक विभाग ने उन्हें डाक देनी ही बंद कर दी। तब से लेकर अब तक इन तीन गांव के लोगों को कोई डाक नहीं मिली है।
चरण ने कोई अपराध नहीं किया है। उनका कसूर बस इतना है कि वह अपने हक की खातिर आवाज उठाने वाले लोगों के समूह में शामिल हो गए। उनके निलंबन पत्र के मुताबिक सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए उन्हें निलंबित किया गया है। उनका मुख्य अपराध यह था कि चरण जिस इलाके में रहते थे वहां दक्षिण कोरिया की कंपनी पोस्को को एक इस्पात संयंत्र और एक कैप्टिव ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए जमीन की सख्त जरूरत थी। चरण और बाकी गांव वालों का एक गुनाह यह भी है कि उनकी आय का मुख्य स्रोत पान के पत्ते की खेती है और अगर उनकी जमीन का अधिग्रहण हो जाता है तो उनकी आजीविका का यह स्रोत उनसे छिन जाएगा।
दो गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के तथ्य जुटाने वाले दल की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक इन तीन गांवों के 2,000 लोगों के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत 230 मामले दर्ज हैं। 'कैप्टिव डेमोक्रेसी' नाम से तैयार की गई यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे ये तीन गांव जेल बने हुए हैं क्योंकि लोग यहां गिरफ्तारी के डर से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटाते हैं।
गांव वालों पर हत्या, हत्या की कोशिश, दहेज हत्या से लेकर बलात्कार तक के मामले दर्ज हैं। एक मामला तो ऐसा भी है जहां एक महिला पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है। ढिनकिया गांव की मनोरमा कठुआ पर बलात्कार के आरोप में मामला दर्ज है, उनके खिलाफ 20 और मामले दर्ज हैं। 29 वर्षीय कठुआ पोस्को के खिलाफ विरोध में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती रही हैं। इन लोगों के बचने का कोई रास्ता ही नहीं है क्योंकि जैसे ही ये गांव छोड़कर बाहर निकलते हैं उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। एनजीओ दिल्ली फोरम के संजीव कुमार इस रिपोर्ट के लेखकों में से एक हैं, वह बताते हैं कि एक बार गिरफ्तार होने पर जमानत के लिए 1,500 से 2,000 रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
इनका मानना है कि ये आरोप निराधार हैं इसलिए वे इन्हें रद्द करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने की योजना बना रहे हैं। साल 2005 से ही इन्हें सरकार से टक्कर लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। दरअसल इसी साल पोस्को और राज्य सरकार ने एक इस्पात संयंत्र, एक बंदरगाह और एक कैप्टिव ऊर्जा संयंत्र बनाने के लिए समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत कंपनी को पारादीप बंदरगाह से सटे आठ गांवों में 4,000 एकड़ जमीन पर यह संयंत्र बनाने की इजाजत दी गई थी। एक ओर जहां गांव के लोग लगातार जमीन अधिग्रहण का विरोध करते आए हैं, वहीं जमीन पर कब्जा जमाने की कोशिशें जारी हैं और पुलिस इन गांवों में रेड डालती रहती है। अभी पिछले हफ्ते ही पुलिस ने इन गांवों पर रेड डाला था। यह सब तब है जबकि पोस्को परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी मिलनी बाकी है और इस समझौते को चुनौती देने वाली एक याचिका पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई जारी है।
चरण के एक रिश्तेदार ने अपना नाम उजागर नहीं होने की शर्त पर बताया कि इस समस्या को तभी हल किया जा सकता है अगर सरकार और लोगों के बीच सीधे बातचीत हो। वह पूछते हैं, 'अगर कंपनी गांव के लोगों को इतनी मासिक आय दे जो पान की खेती से होने वाली आय से अधिक हो, जो वे सदियों से करते आए हैं तो फिर गांव वाले विरोध क्यों करेंगे?' और वह इसकी वजह भी बताते हैं। वह कहते हैं, 'कोई भी सरकार या कंपनी पर विश्वास नहीं करता है। गांव के लोगों और सरकार के बीच कोई सीधा संपर्क नहीं है।' और रही बात चिट्ठी, डाक और पेंशन की तो उन्हें लेने के लिए गांव वाले यहां से 13 किलोमीटर दूर कुजांग के उप डाकघर जाते हैं।
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