टाइपिंग की मामूली भूल चुभ सकती है बनकर शूल | अदालती आईना / एम जे एंटनी January 06, 2013 | | | | |
यदि किसी दस्तावेज के मसौदे को टाइप करने वाले व्यक्ति को व्याकरण और विराम चिह्न का सही ज्ञान नहीं है तो मसौदा तैयार करने में वकीलों द्वारा की गई मेहनत बेकार हो सकती है। हाल में कनाडा में एक फोन कंपनी और टेलीविजन केबल कंपनी के मामले में एक पक्ष को करोड़ों डॉलर के करार से हाथ धोना पड़ा था क्योंकि एक अद्र्घविराम गलत जगह पर लग गया था। भोपाल गैस मुआवजा मामले में उच्चतम न्यायालय ने समय पर हस्तक्षेप कर करोड़ों रुपये का नुकसान होने से बचा लिया, जो एक टाइपिंग की गलती के कारण हो सकता था।
ऐसी गलतियों के कारण कई कानूनी विवाद हुए हैं और इस विषय पर असरदार कानून भी बना हुआ है। कंप्यूटरों में स्पेलचेक और ऐसी कई सुविधाओं से भी हालात कुछ सुधरे नहीं हैं। एक ठेके से जुड़े विवाद पर फैसला विवादित उच्चतम न्यायालय के एक आदेश में कहा गया है कि 'रिपिटिटिव सिस्टमैटिक कंप्यूटर टाइपोग्राफिकल ट्रांसमिशन फेल्यर' भी हो सकता है। ऐसी किसी फॉरेंसिक झगड़े से बचने के लिए आजकल करारों में ऐसे प्रावधान शामिल किए जाने लगे हैं, जो गणित में हुई गलती, दशमलव कहां लगा है, मुद्राओं का विनिमय और भी बहुत सी गलतियों का निराकरण करते हैं।
लेकिन लगता है कि यह भी काफी नहीं है। पिछले महीने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक विवाद पर फैसला सुनाया गया। एक रेलवे लाइन की खातिर जारी किए गए 'बोलीदाताओं के लिए निर्देश' दस्तावेज में एक पृष्ठï था। हालांकि इसके बावजूद सुप्रीम इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडिया लिमिटेड और रेल विकास निगम को गणित में हुई एक गलती की वजह से न्यायालय की शरण में जाना पड़ा। यूं तो निर्देशों में ऐसी लापरवाहियों से निपटने के लिए विस्तृत प्रावधान किए गए थे लेकिन ये प्रावधान ही विवाद की जड़ बन गए।
सबसे कम कोटेशन देने वाली सुप्रीम इन्फ्रा टाइपिंग में हुई एक गलती के कारण फंस गई। यूनिट की कीमत कुल कीमत से मेल नहीं खाती थी। कंपनी ने कहा, 'यह गणित से जुड़ी गलती नहीं बल्कि प्रामाणिक तौर पर व्यक्ति से हुई चूक है, जो निविदा दायर करने वाले व्यक्ति को हुई थकान का नतीजा है।'
चूंकि यह स्पष्टतया एक चूक थी इसलिए रेल विकास निगम को बोलियों का निर्णय लेते वक्त अपनी सहज बुद्घि ओर तर्क शक्ति का सहारा लेना चाहिए। सरकारी कंपनी ने बोलीकर्ताओं का प्रतिरोध किया ओर कहा कि वे बोली से बाहर निकलने, उसमें बदलाव लाने अथवा बोली के लिए दस्तावेज देने के बाद उसमें परिवर्तन करने के लिए अधिकृत योग्य नहीं थे। यह भी कहा गया कि उद्वृत यूनिट दर और कुल कीमत में भारी विसंगति थी और नियमों का भलीभांति पालन होना चाहिए था।
बहरहाल, न्यायालय ने निजी कंपनी की याचिकाएं स्वीकार कर लीं जिनमें पांच कारणों के जरिये यह बताया गया था कि आखिर क्यों गलतियां बहुत बड़ी नहीं थीं। फैसले में कहा गया कि बोली लगाने वाला ऑफर कीमत में बहुत अधिक बदलाव नहीं ला सकता लेकिन उसे बाद में पता चली गणितीय भूलों को सुधारने का पूरा हक है। न्यायालय ने यह कहते हुए सरकारी कंपनी की बात को ठुकरा दिया कि अगर बोलियों के मूल्यांकन की प्रक्रिया को इस मामले की तर्ज पर ही तकनीकी तौर, बिना मानवीय बुद्घि का सहारा लिए ही अंजाम देना है तो फिर इस पूरी कवायद को मशीन अथवा कम्प्यूटर द्वारा ही पूरा होने के लिए छोड़ा जा सकता था।
इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय में गया एक प्रमुख मामला है पश्चिम बंगाल एसईबी बनाम पटेल इंजीनियरिंग कंपनी। इस मामले में न्यायालय ने 27 गलतियों में सुधार की अनुमति नहीं दी थी। इन गड़बडिय़ों में भारतीय, जापानी और अमेरिकी मुद्राओं की विनिमय दर और प्रति यूनिट उल्लिखित कीमत में सुधार जैसी बातें शामिल थीं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि गलतियों की प्रकृति और उनकी मात्रा इतनी ज्यादा थी कि सुधार की अनुमति का अर्थ होता बोली के स्वरूप में ही बदलाव लाना।
अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे विवादों को लेकर कुछ दिशानिर्देश तय किए हैं। उसने मोफेट एचसी कंपनी और रोशेस्टर मामले में कहा कि बोली निम्रलिखित आधारों पर रद्द हो सकती है: पहला, जहां बोलीकर्ता की ओर से सामान्य जांचबूझ के जरिये गलती को बचाया जा सकता था लेकिन ऐसा उन्हीं मामलों में हो जहां पेशकश करने वाले को गलती का भान हो, दूसरा जहां बोलीकर्ता गलती का पता चलने पर भी तत्काल संबंधित अधिकारियों को सूचित करने में नाकामयाब रहा हो और उसने इन गलतियों में सुधार करने का अनुरोध नहीं किया हो।
अमेरिका में निविदाओं के ही एक अन्य मामले में टाइप करने वाले ने 4 डॉलर की जगह 400 डॉलर लिख दिया। न्यायालय ने गलती सुधारने का आदेश देते हुए कहा कहा, 'वास्तव में बोलीकर्ता का इरादा यही था कि ऐसी गलतियों की अनदेखी कर दी जाए।'
प्रिंटर और टाइपिंग की गलतियां विभिन्न कानूनी मामलों को बहुत विचित्र स्थिति में पहुंचा देती हैं। दंड प्रक्रिया संहिता से संबंधित एक मामले (एफकॉन इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा, 'न्यायिक निपटान और मध्यस्थता शब्दों की परिभाषा में जो गड़बड़ी है वह मसौदा तैयार करने के दौरान हुई लिपिकीय अथवा टाइपिंग की गलती है, जिसके परिणामस्वरूप दो शब्द आपस में बदल गए।' यही बात न्यायालय ने एक और फैसले में कही जहां वादी गवाह और प्रतिवादी गवाह को लेकर घालमेल हो गया था लेकिन इसमें सुधार किया गया। ऐसी गलतियों का सिलसिला थमा नहीं है। बहरहाल, अगर मंत्रालयों और कानूनी फर्मों के टाइपिस्ट्स को अच्छी अंग्रेजी का प्रशिक्षण दिया जाए तो शायद ऐसी गलतियां कम होंगी।
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