मुक्त व्यापार के मामले में भारत का सफर उतार-चढ़ाव भरा और धीमा रहा है। आंशिक तौर पर ऐसा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की दोहा दौर की वार्ता के कारण भी हुआ है। यह वार्ता तकनीकी तौर पर अभी बंद नहीं है लेकिन कहा जा सकता है कि यह मृतप्राय है। हालांकि यह भी सच है कि यूरोपीय संघ और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के समूह यानी आसियान जैसे बड़े समूहों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय कारोबार की बातचीत में भी अनेक बाधाएं आई हैं। इनमें से कुछ के लिए घरेलू राजनीतिक अनिवार्यताएं भी जिम्मेदार रहीं। लेकिन ज्यादातर मामलों में तो यह राज्य की अक्षमता रही क्योंकि वह बातचीत को तेज गति से अंजाम नहीं दे पाया। शायद यही वजह है कि आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौते को सेवाओं और निवेश तक विस्तारित करने में कई वर्ष का अतिरिक्त समय लग गया जबकि इन पर मोटे तौर पर सहमति थी। आंशिक तौर पर यूरोपीय संघ के साथ बातचीत में गतिरोध के लिए भी यही जिम्मेदार है। भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते को अभी अंतिम रूप दिया जाना है। इस बीच बाजार में आ रही गिरावट ने देश के निर्यात पर असर डालना जारी रखा है जिसका बुरा असर घरेलू विकास और रोजगार पर पड़ रहा है। समस्या केवल व्यापार वार्ता तक ही सीमित नहीं है। जलवायु परिवर्तन संबंधी बातचीत में भी भारत अमेरिका, चीन और जोखिम का सामना कर रहे विकासशील देशों के बीच गतिरोध दूर कर पाने और नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहा है। इसके लिए भी उसका बातचीत में शामिल दल जिम्मेदार है। वहां विशेषज्ञ और जानकार लोग हैं लेकिन अन्य देशों के मुकाबले सदस्यों की कमी है। इस बीच जी-20 समूह के विभिन्न कार्य और विशेषज्ञ समूहों के घटकों का विश्लेषण करें तो वहां आंकड़ों में उतार चढ़ाव देखने को मिल रहा है लेकिन वहां भी कमोबेश सात-आठ सदस्यों का दल ही भ्रष्टाचार, ऊर्जा और आर्थिक सुधार जैसे मसलों से निपटने के काम में लगा हुआ है। एक ओर जहां तमाम अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के रूप में अधिकारियों के दल भेजती हैं वहीं हमारा देश आमतौर पर महज एक अधिकारी भेजता है जो एक से अधिक कार्य समूहों में देश का नेतृत्व करता है। पिछली जी-20 शिखर बैठकों में भारत को कार्य समूह की अध्यक्षता आसानी से मिल जाती थी लेकिन धीरे-धीरे इस रुझान में बदलाव आया है। देश की सरकार में मानव संसाधन की समस्या कोई छिपी हुई बात नहीं है। लेकिन ऐसे मामलों में जहां ज्ञान, विस्तृत जानकारी तथा उस पर ध्यान केंद्रित किया जाना आवश्यक हो, वहां यह कमी सबसे ज्यादा अखरती है। भारतीय विदेश सेवा की हालत तो हद से ज्यादा खराब है। वहां इस समय 4,800 से भी कम अधिकारी हैं। यह संख्या एक दशक पहले के आंकड़ों से भी कम है जबकि पिछले एक दशक के दौरान देश की जिम्मेदारियों में काफी इजाफा हो चुका है। इतने अधिकारी तो न्यूजीलैंड जैसे देश में ही हैं। अगर विदेश मंत्रालय में प्रमुख पदों पर 12 से भी कम अधिकारी पदस्थ हों तो फिर जाहिर है अंतरराष्ट्रीय वार्ता जैसे महत्त्वपूर्ण मसलों को पर्याप्त तवज्जो मिल पाना खासा मुश्किल काम है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने कुछ माह पहले एक संसदीय पैनल से कहा था कि हर भारतीय राजनयिक की तुलना में ब्राजील के चार राजनयिक जबकि चीन के सात राजनयिक होते हैं। इससे पता चलता है कि हम पर कितना दबाव है। इसका एक हल यह नजर आता है कि सरकार के बाहर से भी नियुक्तियां की जाएं फिर भले ही भारतीय प्रशासनिक सेवा की इस बारे में कुछ भी राय हो। यह कदम तत्काल उठाया जाना आवश्यक है।
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