एक आम मध्यम वर्गीय हिंदुस्तानी से अगर आप यह कहें कि वह बड़े जोखिम में है, तो वह आपकी बात को हंसी में टाल देगा। कहेगा, 'मेरे पास तो जीवन बीमा है, स्वास्थ्य बीमा है।
और तो और मैंने पेंशन प्लान भी ले रखा है।' लेकिन हकीकत तो यही है कि वह बड़े जोखिम में जिंदगी बिता रहा है। अगर अपने मुल्क में मॉनसून, खासतौर पर दक्षिण पश्चिम मॉनसून की कृपा नहीं होती तो हिंदुस्तान के ज्यादातर इलाके आज की तारीख में थार के रेगिस्तान से ज्यादा अलग नहीं होते।
दिक्कत यह है कि कोई भी शख्स इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है। हवाओं और समुद्र के तापमान पर असर डालने वाली कुछ बेहद मुश्किल चीजों को वैज्ञानिकों ने समझने में कामयाबी पाई है। इसी समझदारी के बूते पर उन्होंने सुपर कंप्यूटरों पर चलने वाले ऐसे गणितीय मॉडल बनाए हैं, जिनसे मॉनसून की भविष्यवाणी की जा सके।
लेकिन सच्चाई तो यही है कि ये मॉडल सटीक नहीं हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हम आज भी काफी हद तक अंधेरे में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। साल दर साल हम अच्छी बारिश की केवल उम्मीद भर कर सकते हैं। अनिश्चितता के इस दौर में एक और मुसीबत हमारे गले पड़ गई है, ग्लोबल वॉर्मिंग। इसकी वजह हमारे पूरे जलवायु पर ही असर पड़ रहा है। इसकी वजह से न सिर्फ मौसम बदल रहा है, बल्कि वह और भी अनिश्चित होता जा रहा है।
सबसे पहले तो हमें मॉनसून को समझना होगा। पहली बात तो यह है कि मॉनसून का पूरा मौसम केवल तीन महीने का होता है। इसका मतलब यह हुआ कि मुल्क के लिए साल अच्छा रहेगा या बुरा, इसका फैसला 12 में से इन्हीं 3 महीनों में होने वाली बारिश के बूते होता है। इन तीन महीनों के दौरान भी पूरे देश में एक समान बारिश नहीं होती है। मॉनसून के दौरान भारी बारिश के तीन दौर आते हैं, जिनमें हरेक में तीन तीनों तक लगातार वर्षा होती है। इसका मतलब, अगर मॉनसून समय पर (एक जून) आ भी जाता है, तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बारिश पूरे मुल्क में अच्छी तरीके से होगी।
मॉनसून को पूरे मुल्क में फैलने में एक महीने का वक्त लगता है। इस दौरान इसमें काफी उतार-चढ़ाव आते हैं। अक्सर होता तो यही है कि मॉनसून तो वक्त पर आता है, लेकिन उसके बाद वह या तो कमजोर पड़ जाता है या फिर गायब ही हो जाता है। ऐसी हालत में लोगबाग हाथ जोड़े इंद्र देव की प्रार्थना में जुट जाते हैं। अगर मॉनसून लौट भी आता है, तो वह अपने साथ कई दूसरी मुसीबतों को साथ लेकर आता है। कई बार मॉनसून के आखिरी चरण में इतनी तेज बारिश होती है कि खेतों में खड़ी फसल ही बर्बाद हो जाती है।
मॉनसून के मूड का अंदाजा आपको इस साल कर्नाटक में जो हुआ, उसे देखकर साफ लग सकता है। वहां इस साल मॉनसून के पहले तो अच्छी बारिश हुई। ज्यादातर लोगों के लिए तो वह चिलचिलाती गर्मी में राहत का सबब बनकर आई। साथ ही, वह कॉफी की फसल के लिए भी काफी अच्छी रही। लेकिन अंगूर उत्पादकों के लिए वह मुसीबत बन गई। वे प्रार्थना करते रहे कि बारिश बंद हो जाए और गर्मी वापस आ जाए, ताकि अंगूर पक सकें और अच्छी पैदावार हो सके।
बारिश के पहले तक उन्हें यही उम्मीद थी कि पैदावार होगी, लेकिन उस वर्षा और समय से पहले आए मॉनसून ने उनकी उम्मीद पर पानी फेर दिया। जब पूरा कर्नाटक खुशियां मना रहा था, तब वाइन उत्पादक खून के आंसू रो रहे थे। दूसरी तरफ, अच्छी बारिश की वजह से धान की खेती करने वाले किसानों की तो बांछें खिल गईं। उन्होंने धान की ताबड़तोड़ बुआई शुरू कर दी। लगा कि खेती के लिए बारिश पर पूरी तरीके से निर्भर इस सूबे में अबकी धान की जबरदस्त फसल होगी। हालत यहां तक पहुंच गई थी लेकिन वक्त पर आने के बाद बरखा रानी रूठ गई।
जैसे-जैसे जुलाई गुजरने लगा, सूखे का डर हर किसी को सताने लगा। बांधों में पानी का स्तर खतरनाक तरीके से नीचे आने लगा। बांधों में पानी की न्यूनतम मात्रा बरकरार रखने की खातिर वहां से भी पानी की निकासी रोक दी गई। इससे जलविद्युत के उत्पादन पर जबरदस्त असर पड़ा और बिजली की कटौती शुरू हो गई। मुसीबत की इस घड़ी में राहत मिली मौसम विभाग की इस घोषणा से कि बारिश जल्द ही सूबे की तरफ वापस रुख करेगी। वैसे, इस बार उनकी बात सच भी हो गई। वहां पिछले 10 दिनों में काफी बारिश हुई है।
मॉनसून में इस तरह के उतार-चढ़ाव मुल्क के दूसरे हिस्सों में हर साल देखने को मिलते हैं। ऊपर से, जैसे-जैसे मौसम बदलेगा, ऐसे उतार-चढ़ाव और भी तेजी से बढ़ेंगे ही। तो इससे निपटा कैसे जाए? जवाब है कि अपनी सिंचाई क्षमता में इजाफा करके, ताकि मॉनसून की प्रगति पर हमारी निर्भरता कम हो सके। वैसे, हमारे मुल्क की केवल 40 फीसदी खेती योग्य भूमि ही सिंचित है। साथ ही, जिन बड़े बांधों से सिंचाई हो सकता था, वो भी बनाए जा चुके हैं। ऊपर से, इन बांधों को बनाए जाने पर ही अब सवालिया निशान खड़ा किया जा रहा है। इससे निपटने का एक ही जरिया है कि पूरे देश में, एक-एक गांव में पानी के संचयन को लागू किया जाए।
राज्य सरकारों के इस बारे में पहले ही छोटे-मोटे कार्यक्रम चल रहे हैं और कुछ में उन्हें विदेशों से भी मदद मिल रही है। पिछले बजट में वर्षा सिंचित भूमि विकास कार्यक्रम की घोषणा की गई थी। इसमें उन इलाकों में पानी के संचयन के बारे में कार्यक्रम चलाने पर कहा गया था, जहां पहले से ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं चल रहा था। आज भी ज्यादातर गांवों में सिंचाई की बहुत बड़ी क्षमता यूं ही पड़ी हुई है। यहां पहली जरूरत तो यही है कि जल भंडार को एक साथ जोड़ा जाए।
जहां जरूरत हो वहां इनका निर्माण भी किया जाए। बारिश के यूं ही बहते पानी को कुंओं की तरफ मोड़ा जाए, जहां भूमिगत जल और बारिश का पानी साथ में जमा किया जा सके। इससे भूमिगत जल के स्तर में भी काफी सुधार आएगा। जहां तक हो सके, नदियों पर छोटे-छोटे बांध बनाए जाएं। इसके बाद जरूरत है, जमीन को कटाव से बचाने की। इसके लिए जमीन पर ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने की जरूरत है। इससे रूठी बरखा रानी वापस उस इलाके की तरफ रुख करेगी।
जैसे-जैसे बरखा रानी वापसी की तरफ रुख करेगी, हमें अपने गांवों और जिले के स्तरों पर अपने प्रयासों को बढ़ाने की जरूरत है। इसमें कोई रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। ये वो छोटी-छोटी बातें हैं, जिनका इस्तेमाल हमारे पुरखे सिंचाई के लिए किया करते थे। जरूरत है तो बस आज मुल्क के हर कोने में इन्हें अपनाने की। इनसे न केवल हम रुठी बरखा रानी को मना सकते हैं, साथ ही हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से भी निपट सकते हैं।