अपनी गरदन बचाने के क्रम में निर्णय प्रक्रिया लगी ठिकाने
एम जे एंटनी / October 21, 2012
हर सफल घोटाले के पीछे नौकरशाहों की सहयोगी भूमिका होती है। भले ही वे नेपथ्य में खड़े हों पर उनकी भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। वे चुपचाप एक आज्ञाकारी अधिकारी की भूमिका निभाते हैं और जब किसी मामले में उनकी संलिप्तता पर सवाल उठाए जाते हैं तो वे यह कह कर पल्ला झाडऩे की कोशिश करते हैं कि वह तो महज आदेशों का पालन कर रहे थे।
कानून की भाषा में इस तरह की गतिविधियों को 'बिना विवेक का इस्तेमाल किया गया काम' कहते हैं। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक फैसले (सुरिंदर सिंह बनाम केंद्र सरकार) में चंडीगढ़ के प्रमुख अधिकारियों की आलोचना करते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया। इन अधिकारियों ने एक निजी आईटी परियोजना के लिए किसानों से अवैध तरीके से जमीन हासिल की।
ऊपर से मिले आदेशों पर आंख मूंद कर अमल करने के लिए जमीन अधिग्रहण अधिकारी की आलोचना करते हुए अदालत ने कहा, 'अगर उन्होंने अलग हटकर निर्णय लेने का साहस जुटाया होता और जमीन अधिग्रहण के खिलाफ सुझाव देते तो निश्चित तौर पर उन्हें उनकी जगह से हटाकर दूसरी जगह भेज दिया जाता और इस तरह उनका करियर खतरे में पड़ सकता था। मौजूदा शासन व्यवस्था के तहत कनिष्ठï अधिकारी तो ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकते, कहने का मतलब है कि अपने ऊपर बैठे अधिकारियों की मर्जी के खिलाफ करने की बात। यह एक तरह से अलिखित आचरण संहिता बन चुकी है और जो कोई भी इसके खिलाफ जाने की सोचेगा वह अपने आप को खतरे में डाल कर ही ऐसा कर सकता है और उसे मूर्ख समझा जाएगा।'
यहां तक कि जो ऊंचे ओहदों पर बैठे होते हैं वे भी कम से कम प्रतिरोध करना ही उचित समझते हैं और अपने से ऊपर के लोगों की आज्ञा का पालन करना ही बेहतर मानते हैं। विशेष सचिव, वित्त और प्रशासक के सलाहकार भी जमीन अधिग्रहण के नियमों का पालन करने में विफल रहे। वे अलग राय जताने का साहस नहीं दिखा सके। विशेष सचिव ने बिल्कुल वैसा ही किया जैसा चंडीगढ़ सरकार ने अपनी चि_ïी में उनसे करने को कहा। सलाहकार तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने तो विशेष सचिव द्वारा तैयार किए गए नोट पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। ऐसा लगा मानो अधिकारी सरकार के विचारों तले दबे थे और खुद को बचाए रखने के खयाल से उन्होंने सरकार की मर्जी के खिलाफ नहीं जाने का फैसला किया जो यह चाहती थी कि अतिरिक्त जमीन अधिग्रहीत कर एक निजी निवेशक को दी जाए। आखिरकार जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया गया।
अपने ऊपर बैठे अधिकारियों के गलत फरमान को नकारने के लिए नौकरशाहों में अदम्य साहस होना चाहिए। ऊपर बैठे अधिकारी भी नेताओं या सर्वोच्च अधिकारियों के आदेशों का पालन कर रहे होते हैं। दरअसल युवावस्था से ही हमारे माता पिता, शिक्षक और पुजारी हमें हमसे ऊपर के लोगों की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा देते हैं। येल यूनिवर्सिटी के एक लोकप्रिय अध्ययन से यह पता चला है कि भले ही अधिकार प्राप्त समूहों के कान में पीडि़तों की चीख जोर जोर से गूंजती है फिर भी अधिकारियों की मद्घम आवाज अक्सर जीत जाया करती है। युद्घ और दंगों के समय की एक कड़वी सच्चाई है। इससे कम गंभीर हालात में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है।
तीन साल पहले उच्चतम न्यायालय ने कर आकलन का एक मामला दोबारा से खोला क्योंकि इसमें संदेह व्यक्त किया जा रहा था कि संबंधित अधिकारी ने अपने अधिकारियों के दबाव में कार्य किया है (सीआईटी बनाम ग्रीनवुड कॉरपोरेशन)। संबंधित अधिकारी ने हिमाचल प्रदेश की कंपनी के द्वारा फाइल किए गए रिटर्न को स्वीकार कर लिया और एक संलग्न नोट में कहा कि उन्होंने आयुक्त से मिले निर्देशों के आधार पर ऐसा किया। उनके नोट से ऐसा नजर आ रहा था जैसे उन्होंने आयुक्त के निर्देशों का बड़ी तन्मयता से पालन किया है क्योंकि उन्होंने अपने नोट में कई बार उनका जिक्र किया। उस अधिकारी का जल्दी ही वहां से तबादला कर दिया गया और नए अधिकारी को आयुक्त के कार्यों में कई सारी गड़बडिय़ां नजर आईं।
वर्ष 2001 के तरलोचन सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में एक निगम परिषद के अध्यक्ष को राज्य सरकार के प्रमुख सचिव के आदेश से उनके पद से हटा दिया गया। सरकार का आदेश रद्द करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा, 'संविधान के अंतर्गत लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था के बीच वरिष्ठï अधिकारी जैसे कि सचिव जो प्रमुख ओहदों पर बैठे हैं, उन्हें अपने विवेक, इच्छाशक्ति और फैसला लेने के अधिकार को गिरवी नहीं रखना चाहिए। कंडक्ट रूल्स ऑफ दी सेंट्रल गवर्मेंट सर्विसेज नौकरशाहों को यह निर्देश देता है कि वे हर समय नैतिक सिद्धांतों के साथ पूरी तरह ईमानदारी बरतें और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहें और ऐसा कुछ न करें जो एक सरकारी नौकर की जिम्मेदारियों से अलग हटकर हो।'
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