विरोध की धार से बनेगी विकास की नई राह | सुनीता नारायण / January 09, 2012 | | | | |
टाइम मैगजीन के मुताबिक वर्ष 2011 का पर्सन ऑफ द इयर एक 'प्रदर्शनकारी' है। स्पष्ट है कि यह वह छवि है जो समूचे विश्व पर छाई हुई है। इसमें पश्चिम एशिया के बड़े हिस्से में लोकतंत्र की कमी से लेकर दमनकारी व्यवस्था से असहमत लोगों के साथ-साथ दुनिया के विशालकाय और असमान हिस्सों में आर्थिक नीतियों से असंतुष्ट लोग शामिल हैं। हर तरफ लोग यही कह रहे हैं कि बस, अब बहुत हो चुका। लेकिन आने वर्षों में इन आवाजों का क्या होगा? क्या विरोध प्रदर्शनकारियों के आंदोलन दुनिया के कारोबार में बदलाव ला पाने में सफल होंगे? क्या इन आंदोलनों को यह पता भी है कि वे क्या चाहते हैं?
यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि आर्थिक रूप से समृद्घ मुल्कों तथा समृद्घि की राह पर बढ़ रहे मुल्कों में आर्थिक नीति को लेकर पनप रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच समानताओं के बावजूद अंतर मौजूद हैं। अमेरिका में पनपे ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन का नारा था, 'हम 99 फीसदी लोग हैं और हम अब एक फीसदी लोगों का लालच और भ्रष्टाचार ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकते।' इस आंदोलन की शुरुआत न्यूयॉर्क में हुई थी और उसके बाद यह अमेरिका के विभिन्न राज्यों में फैल गया। अनेक स्थानों पर सरकारों ने अपने स्तर पर इनका दमन भी किया लेकिन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वे फिर वापस आएंगे और जीत हासिल करेंगे।
आने वाले समय में इसकी परिणति क्या होगी यह बता पाना बेहद मुश्किल है। यह आंदोलन बड़े गर्व के साथ कहता है कि उस पर किसी एक व्यक्ति का नेतृत्व नहीं है और वह पूरी तरह जन शक्ति के अधीन है। आंदोलनकर्मियों के पास ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है जिसके जरिये वाल स्ट्रीट में कोई सुधार लाएंगे या फिर ऐसी कोई कार्ययोजना भी नहीं है जिसकी बदौलत वैश्विक अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन किया जाए और उसे दुनिया के सभी लोगों के इस्तेमाल के योग्य बनाया जा सके। इस तरह से देखा जाए, ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन को एक और ऐसा विरोध बताकर खारिज किया जा सकता है जिसकी कोई दशा-दिशा नहीं है।
लेकिन एक और संभावना है। यह हकीकत है कि समृद्घ लेकिन आर्थिक संकट से जूझ रहे देशों के अनेक अन्य आंदोलनों की भांति ही इस आंदोलन ने भी व्यवस्था को छेड़ा तो है। वही समृद्घ दुनिया जो कभी उपभोग और आराम में मस्त रहती थी, आज उसे इस दिशा में आगे बढऩे में कठिनाई हो रही है। सामान्य चीजें भी अब वहां आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं। घरों से लेकर चिकित्सा सुविधाओं तक और शिक्षा से लेकर नौकरी तक हर क्षेत्र में दिक्कत है। सरकार जिन बातों को आवश्यक कटौती उपाय बता रही है उनसे प्रत्यक्ष तौर पर आम आदमी प्रभावित हो रहा है। यह वजह है कि वे भी हर संभव तरीके से जवाबी कार्रवाई करने की कोशिश कर रहे हैं।
ये आंदोलन ऐसे कई आंदोलनों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो असहज करने वाले हैं और जिनका सामना करना लाजिमी है। वर्ष 2008 के मध्य में लीमन ब्रदर्स के पतन के साथ जिस वित्तीय संकट की शुरुआत हुई थी उसने आगे चलकर भीषण रूप धारण कर लिया। आगे चलकर और अधिक बैंक तथा कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इसकी शिकार होकर ढह गईं। ऐसे हालात तब हैं जबकि संबंधित सरकारें इस वित्तीय संकट से उबरने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। दरअसल समस्या यह है कि दुनिया के प्रमुख आर्थिक प्रबंधकों को यकीन ही नहीं है कि अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्गठन का कोई ऐसा वास्तविक विकल्प भी हो सकता है जिसमें उनकी खपत में कमी आए, उनका प्रदूषण घटे और उसके बावजूद वह समृद्घ रहे, भले ही अत्यधिक धन संपदा उसके पास न हो।
समस्या यह है कि हम विकास की एक ही विचारधारा से बंधे हुए हैं। यही कारण है कि विकास से जुड़ी तमाम समस्याओं के नजर आने के बावजूद उन्हीं लोगों को इन समस्याओं को हल करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है जो दरअसल इन समस्याओं को पैदा करने के जिम्मेदार हैं। जाहिर है हमें विरोध प्रदर्शनों के सर उठाने पर भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। और अगर इन लोगों के पास इन तमाम समस्याओं का कोई हल न भी हो तब भी उन्हें यह पता है मौजूदा नीतियां काम की साबित नहीं हो रही हैं। उनका गुस्सा कम से कम हमें यह तो याद दिलाता है कि परिवर्तन आना चाहिए। भले ही वह आने वाले कल में आए या उसके बाद आए।
उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले मुल्कों में जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वे कई तरह के हैं और उनके पीछे जो जनता है उसमें भी अलग-अलग तरह के लोग हैं। एक ओर शहरी भारत की सड़कों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन को बड़े पैमाने पर जनता और मीडिया का साथ भी मिला है। लेकिन इसके साथ ही कई अन्य तरह के विरोध प्रदर्शन हैं। देश के तमाम हिस्सों में विस्थापन और प्रदूषण के विरुद्घ लोगों का विद्रोह। इस तरह के विरोध प्रदर्शनों के बारे में भी हमें सुनने को मिलता है लेकिन हम उसे बहुत जल्द भूल जाते हैं। छोटे पैमाने पर लोगों द्वारा अपने अस्तित्व के लिए किए जा रहे ये आंदोलन वास्तविक आंदोलन है जिनकी प्रकृति दिन पर दिन और अधिक सघन होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुनवाई होनी चाहिए। इन विरोध प्रदर्शनों में से कई भूमि अधिग्रहण, जल से जुड़ी समस्या, खनन, बांध, बिजली परियोजनाओं अथवा प्रदूषण आदि पर केंद्रित हैं और इनकी अब कुछ हद तक सुनवाई होने लगी है।
यह नहीं कहा जा सकता है कि हर विरोध प्रदर्शन सफल ही होगा। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि ये आंदोलन उन आवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो विकास के नए तरीकों की मांग करती हैं। इन आंदोलन में जमीन, पानी, वन और खनिज संसाधनों के लिए आवाज बुलंद की जाती है। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, ये आंदोलन समग्र रूप से हमें यह सिखा रहे हैं कि हमें आर्थिक विकास की अलग राह चुननी होगी जिसमें विकास अधिक स्थायी और समावेशी हो।
इसलिए भले ही ये प्रदर्शन अथवा आंदोलन भविष्य के आर्थिक मॉडल की कोई रूपरेखा खुद में न छिपाए हों लेकिन इनमें इतनी काबिलियत जरूर होती है कि ये हमें नए रास्तों की तलाश के बारे में सोचने के लिए विवश करें। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये आंदोलन मौजूदा चुनौतियों के प्रत्युत्तर में ही सामने आते हैं। यकीनन वे तब तक हमारे सामने मौजूद रहेंगे जब तक कि हम इन बड़े सवालों के जवाब तलाश नहीं लेते।
हमारे सामने वर्ष 2012 में और उसके बाद भी यह चुनौती बरकरार रहेगी। समूचा विश्व उबल रहा है और क्रोध की इस लहर का शमन नहीं होने वाला। सवाल यही है कि क्या इन विरोध प्रदर्शनों के जरिये विकास के नए और बेहतर मार्ग की तलाश की जा सकती है।
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