सरकारी अफसरी के तुरंत बाद निजी नौकरी पर सवाल | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / December 15, 2010 | | | | |
सन 1985 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपनी पहली विदेश यात्रा पर गए थे। यात्रा के दौरान संवाददाता सम्मेलन में उनसे पूछा गया कि क्या भारत में सरकारी अधिकारियों को कम वेतन मिलने के कारण सरकार में भ्रष्टाचार इतनी बड़ी समस्या बन गया है। यह प्रश्न असहज करने वाला था क्योंकि कुछ ही अरसा पहले भारतीय अधिकारियों पर आरोप लगा था कि उन्होंने विदेशी खुफिया एजेंसियों को गोपनीय दस्तावेज दिए हैं।
बहरहाल, इस सवाल से अविचलित राजीव गांधी ने जवाब दिया कि इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि पश्चिमी देशों में बेहतर भुगतान ने भ्रष्टाचार का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया है। जाहिर है उन्होंने इस जवाब के जरिए पत्रकारों को और सवाल पूछने से रोक दिया और एक ऐसी स्थिति से निकल आए जो आगे शर्मनाक हो सकती थी। देश में नौकरशाहों ने राजीव गांधी के जवाब की तारीफ भी की।
कुछ वर्ष बाद 1990 में बी जी देशमुख ने, जो कि दो प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रमुख सचिव रहे, तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से अचानक मुलाकात की। देशमुख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय छोडऩे का मन बना लिया था और नए प्रधानमंत्री को सारी चीजें बता दी थीं।
बहरहाल, चंद्रशेखर ने उनसे अपने कार्यकाल के अंत तक काम करते रहने को कहा। दो माह बाद कार्यकाल समाप्त हो रहा था और देशमुख इसके लिए तैयार हो गए। लेकिन कुछ ही दिन बाद देशमुख से पद छोडऩे को कहा गया क्योंकि सरकार ने एस के मिश्रा को नया प्रमुख सचिव बनाना तय किया था। देशमुख को बहुत बुरा लगा और उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात करके कहा कि वह इस घटनाक्रम से बहुत निराश हैं। उन्होंने इस्तीफा तो दे दिया लेकिन साथ ही सरकार को एक औपचारिक अनुरोध भेजा कि वह उन्हें टाटा के लिए काम करने की अनुमति दे। चंद्रशेखर ने देशमुख से कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय छोडऩे के बाद उनके टाटा के लिए काम करने पर कोई आपत्ति नहीं है। बहरहाल, उन्हें इसकी अनुमति कभी नहीं मिली और देशमुख को अपने अनुवर्ती अधिकारी से पता चला कि चंद्रशेखर इस बात के खिलाफ थे कि सेवानिवृत्ति के बाद कोई अधिकारी इतनी जल्दी निजी क्षेत्र के लिए काम करे।
ये दोनों घटनाएं करीब दो दशक पुरानी हैं लेकिन वे ऐसे पहलुओं को रेखांकित करती हैं जिन्हें सरकार के साथ कॉरपोरेट लॉबीइंग की मौजूदा बहस में पूरी तरह अनदेखा किया गया है। ये नौकरशाहों के अच्छे आचरण से संबंधित है, फिर चाहे वे सेवा में हों या सेवानिवृत्त हो गए हों। अपनी सीमाओं के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने नौकरशाहों के लिए नेकनीयती के सिद्धांत और आचार संहिता को बनाए रखने की भरसक कोशिश की लेकिन वह सरकारी कर्मचारियों के सेवानिवृत्ति के बाद निजी क्षेत्र को अपनाने पर अपेक्षा के अनुरूप कार्रवाई नहीं कर सकी। निश्चित रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार सेवानिवृत्त होने वाले सरकारी अधिकारियों को निजी क्षेत्र में जाने के पहले अनिवार्य अवधि तक रोकने (कूलिंग-ऑफ पीरियड) के मामलों में कुछ नरम रही है।
सबसे पहले नाम आता है अशोक झा का जो कुछ वर्ष पहले वित्त सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए लेकिन उन्हें एक वाहन कंपनी में काम करने के लिए सरकारी अनुमति मिल गई। अब सरकार सेवानिवृत्त होने वाले सभी सरकारी अधिकारियों पर लागू होने वाली इस अवधि को हटाने के अपने कदम का बचाव कर सकती है। ऐसी भी कोई राय नहीं है कि झा ने वित्त सचिव के रूप में अपने पद का दुरुपयोग कर निजी क्षेत्र की नौकरी हासिल की हो। बहरहाल, सरकार की इस छूट ने कई लोगों की भृकुटियां तान दी हैं। क्या एक आईएएस अधिकारी को सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने के तत्काल बाद निजी क्षेत्र की नौकरी पकडऩी चाहिए? देशमुख ने चंद्रशेखर से एक अनुग्रह चाहा था लेकिन सरकार ने अनुरोध स्वीकार नहीं किया। झा ने भी मनमोहन सिंह से ऐसी ही चाह रखी थी जो स्वीकार हो गई। सही कौन था? मनमोहन सिंह या चंद्रशेखर?
इसी तरह, तीन वरिष्ठï सेवानिवृत्त अधिकारियों ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर कॉरपोरेट लॉबिइंग फर्म से जुडऩा बेहतर समझा। यह महज संयोग नहीं हो सकता कि हालिया लॉबिइंग विवाद में इन सभी फर्म का जुड़ाव है। याद रखिए, ये कोई साधारण अधिकारी नहीं थे। प्रदीप बैजल विनिवेश सचिव थे और बाद में दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के अध्यक्ष बने। अजय दुआ उद्योग नीति एवं संवर्धन विभाग में सचिव थे और सीएम वासुदेव आर्थिक मामलों के सचिव और विश्व बैंक के बोर्ड में भारत सरकार की ओर से नामित कार्यकारी निदेशक थे।
तीनों वरिष्ठï अधिकारी कॉरपोरेट लॉबिइंग फर्म के साथ अपने जुड़ाव का किसी न किसी तरह बचाव कर लेंगे। यह भी संभव है कि इन अधिकारियों ने इन संस्थाओं में अपनी छोटी कार्यावधि के दौरान किसी तरह की गड़बड़ी न की हो। बहरहाल, एक प्रश्न जो अब भी अनुत्तरित रह जाता है वह यह है कि क्या एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी को कॉरपोरेट लॉबिइंग फर्म में काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
समय आ गया है जब सरकार को यह देखना चाहिए कि कोई सरकारी अधिकारी सेवानिवृत्ति के कितने समय के बाद निजी क्षेत्र में काम कर सके। क्या कुछ ऐसे काम भी हैं जिन्हें ऐसे अधिकारियों को निजी क्षेत्र के साथ करने से रोका जाना चाहिए।
दुर्भाग्यवश, मौजूदा सरकार की नीतियां ऐसा कोई अंतर नहीं करतीं। इसलिए सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी भी तय मियाद के बाद ऐसी कंपनियों से जुड़ जाते हैं जो सशस्त्र सेनाओं को हथियार बेचने का काम करती हैं। क्या सरकार को ऐसी अनुमति देनी चाहिए? इसी तरह, आईएएस अधिकारियों को लॉबिइंग फर्म या किसी अन्य ऐसी कंपनी में काम करने से रोका जाना चाहिए जिसके साथ उसका सरकारी नौकरी के दौरान अपने आखिरी के तीन पदों के दौरान संपर्क रहा हो। अनैतिक तरीकों से लॉबिइंग करने के दुरुपयोग को रोकने के लिए अकेले कूलिंग-ऑफ अवधि का नियम पर्याप्त नहीं होगा।
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