किसी मुल्क का कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। उसके लिए स्थायी अगर कुछ होता है, तो वह उसके हित हैं।'
बेंजामिन दार्सिली ने 100 साल से पहले यह बात मुल्कों के लिए कही थी, लेकिन इसकी अहमियत आज की तारीख में देश के तेजी से बढ़ते टेलीकॉम सेक्टर को देखकर समझ में आती है।
अभी कुछ महीने पहले तक सेल्युलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) और ट्राई के बीच नए ऑपरेटरों के मुद्दे घमासान मचा हुआ था। ट्राई ने नए ऑपरेटरों को मोबाइल फोन बाजार में अनुमति दे दी थी, जबकि सीओएआई इसके सख्त खिलाफ था। निजी टेलिकॉम ऑपरेटरों के मुताबिक ट्राई के इस फैसले से प्रति यूनिट स्पेक्ट्रम पर उपभोक्ताओं की तादाद कई गुना बढ़ जाएगी।
वहीं, नए ऑपरेटरों को 3जी मोबाइल लाइसेंस की संभावित नीलामी से दूर रखने के मुद्दे पर आज ट्राई और सीओएआई दोनों साथ-साथ खड़े हैं। देसी मोबाइल फोन बाजार की तकनीकी तरक्की के 3जी टेक्नोलॉजी काफी अहम है और इस मुद्दे पर भी जबरदस्त घमासान होना तय माना जा रहा है।
वैसे सीओएआई का काम ही यही है कि वह प्रतिस्पर्धा को कम से कम रखे, लेकिन असल चिंता तो ट्राई के हर रोज बदलते स्टैंड को लेकर होती है। जब प्रदीप बैजल ट्राई के अध्यक्ष थे तो उनका कहना था कि 3जी सेवाएं, 2जी तकनीक का ही अगला हिस्सा है। इसीलिए 3जी सेवाएं मुहैया करवाने की जिम्मेदारी उन्हीं कंपनियों को दी जानी चाहिए, जो इस वक्त देश में 2जी पर आधारित सेवाएं दे रही हैं।
फिर जब नृपेंद्र मिश्र ने ट्राई की बागडोर संभाली तो उन्हें इस तर्क को खारिज कर दिया। उनके मुताबिक 2जी और 3जी को दो अलग-अलग तरह की तकनीकें हैं। इसी वजह से ट्राई ने 3जी लाइसेंसों की नीलामी की सिफारिश कर दी। अजीब बात यह है कि इसके साथ-साथ ट्राई ने 3जी लाइसेंस के लिए केवल उन्हीं कंपनियों को बोली लगाने की इजाजत देने का सिफारिश की, जो इस वक्त देश में 2जी सेवाएं मुहैया करवा रही हैं। अब आप भी सोच रहे होंगे कि ट्राई ने आखिर ऐसा क्यों किया?
दरअसल, ट्राई का कहना है कि जब तक कंपनियों के पास कम से कम 2जी तकनीक पर आधारित नेटवर्क नहीं होता, उनके लिए 3जी नेटवर्क मुहैया करना काफी मुश्किल और खर्चीला होगा। सोचने वाली बात यह है कि बिना 2जी नेटवर्क वाली कोई कंपनी अगर 3जी नेटवर्क के लिए बोली लगाना चाहती और इसके लिए पैसे गंवाने के लिए भी तैयार है तो इसमें ट्राई को क्या दिक्कत है। ट्राई के मुताबिक इतनी जल्दी निष्कर्ष निकलना ठीक नहीं।
अगर बिना 2जी नेटवर्क वाली कोई कंपनी 3जी सेवाएं मुहैया करवाने का लाइसेंस हासिल कर लेती है और नेटवर्क मुहैया नहीं करवा पाती तो आखिरकार घाटा तो लोगों का ही होगा। चलिए मान ली ट्राई की यह बात, लेकिन इस वक्त मुल्क में मौजूद 15 टेलिकॉम कंपनियों में से केवल 6 के पास ही 2जी नेटवर्क है। बाकी की कंपनियों तो ट्राई की उस सिफारिश के बाद बाजार में कूद पड़ीं, जिसमें उसने कहा था कि 2जी मोबाइल फोन कंपनियों की तादाद के लिए कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खिंची जानी चाहिए।
स्पेक्ट्रम की भारी किल्लत को देखते हुए ऐसी सिफारिश, खुदकुशी करने के बराबर है। मुद्दे की बात यह है कि ट्राई ने कैसे नौ नई कंपनियों को भी 3जी लाइसेंस के लिए बोली लगाने की इजाजत दे दी, जबकि उनके पास 2जी नेटवर्क भी नहीं हैं। ट्राई की सिफारिशों से 3जी लाइसेंस हासिल करने की दौड़ में शामिल होने से पहले नई कंपनियों को पहले इन 2जी कंपनियों को खरीदना पड़ेगा।
उन्हें उस 2जी लाइसेंस के लिए मोटी कीमत चुकानी पड़ेगी, जिसे इन कंपनियों ने कौड़ियों के भाव में खरीदा था। बिजनेस स्टैंडर्ड को 23 मई को दिए अपने इंटरव्यू में भी मिश्र ने साफ कहा था कि उन्हें सरकार के उस दिशानिर्देशों पर कोई ऐतराज नहीं है, जिसके मुताबक एटीऐंडटी या इटसालैट जैसी कंपनियां इन नई टेलीकॉम कंपनियों में 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीद सकती हैं। इसके अलावा. मिश्र ने 2जी स्पेक्ट्रम की किल्लत के बारे में भी अपना पक्ष रखा था।
उनका कहना था कि अगर किसी नई कंपनी को 3जी लाइसेंस मिलता है, तो ट्राई को यूएएसएल लाइसेंस देना पड़ेगा। इसके तहत उसे 4.4 मेगाहट्र्ज का 2जी स्पेक्ट्रम भी मिलेगा। लेकिन इस वक्त जिन्हें लाइसेंस मिल भी चुके हैं उनके लिए भी पूरे स्पेक्ट्रम नहीं हैं। और तो और उन 22 कंपनियों के लिए भी स्पेक्ट्रम सरकार के पास नहीं हैं, जिन्होंने 2जी लाइसेंस के लिए अप्लाई किया है।
3जी लाइसेंस को जारी करने से पहले सरकार को इन कंपनियों को स्पेक्ट्रम मुहैया करवाने पड़ेंगे। मजे की बात है कि यही तर्क सीओएआई ने दूरसंचार सचिव को लिखे एक पत्र में दिया था। उस चिठ्ठी में वह हिस्सा भी शामिल है, जिसके मुताबिक बिना 2जी नेटवर्क के 3जी लाइसेंस का मिलना बेमानी हो जाएगा। सीओएआई ने मंत्रालय को वह पत्र इसलिए लिखा था क्योंकि मंत्रालय नए खिलाड़ियों को 3जी लाइसेंस की दौड़ में शामिल करने के पक्ष में है।
इस तर्क के साथ दिक्कत यह है कि इसमें समग्र यूएएसएल लाइसेंस को अहमियत नहीं दी गई है। इसी वजह से लाइसेंस में उस फ्रिक्वेंसी का उल्लेख होता है, जिसके तहत कंपनी को स्पेक्ट्रम मिलते हैं। इसी तरह रिलायंस को यूएएसएल लाइसेंस मिला था, जिसमें इसे 1800 मेगाहट्र्ज की फ्रिक्वेंसी मिली थी। लेकिन इसे ज्यादा अच्छी 800 मेगाहट्र्ज की फ्रिक्वेंसी पर जाने की इजाजत नहीं मिली।
रिलायंस ने जब इसकी मांग की तो सीओएआई ने इसका कड़ा विरोध किया। इसी तरह रिलायंस को मिली फ्रिक्वेंसी को तकनीकी रूप से 3जी सेवाएं मुहैया करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था, लेकिन इसके भी खिलाफ सीओएआई ने मोर्चा खोल दिया। ट्राई ने भी सीओएई की बात मान ली कि इसका इस्तेमाल 3जी सेवा मुहैया करने के लिए नहीं किया जा सकता।
असल में यूएएसएल के जरिये आपको किसी भी फ्रिक्वेंसी पर स्पेक्ट्रम मिल सकता है। रिलायंस को अपने जीएसएम मोबाइल सेवा (जो अभी तक शुरू नहीं हुई है) के लिए नई लाइसेंस के वास्ते अप्लाई करने के जरूरत नहीं है। वह बस सरकार से अपने सीडीएमए स्पेक्ट्रम के कुछ हिस्से को वापस लेने को कहकर नए जीएसएम स्पेक्ट्रम को ले सकती थी। इसलिए अब यह समझा जा सकता है कि 2जी लाइसेंसों के लिए ट्राई और सीओएआई इतना क्यों जोर दे रही है।
इसके खिलाफ कुछ भी होने पर ट्राई और सीओएई, दोनों के हितों को चोट पहुंच सकती है। अब तो आपके समझ में आ गया होगा कि इस जहां में कोई भी स्थायी तौर पर दोस्त या दुश्मन नहीं होता। स्थायी अगर कुछ होते हैं तो वे अपने हित हैं।