यह आलेख मेरी मौजूदा चीन यात्रा के दौरान लिखा गया है। मेरी पिछली चीन यात्रा तकरीबन 15 वर्ष पहले हुई थी। तब से अब तक यहां हुए परिर्वतनों को देखकर मैं चकित हूं। हालांकि चीन के विकास के बारे में पढ़ते हुए हमें इसका अनुमान तो था लेकिन निश्चित रूप से वहां कुछ चकित करने वाली बातें भी मौजूद थीं। सभी अन्य भारतीय पर्यटकों की तरह मेरी निगाहें भी पेइचिंग के बुनियादी विकास पर टिक गईं। हालांकि वहां की कई चीजों के बारे में बात की जा सकती है लेकिन मुझे सबसे अधिक प्रभावित वहां सड़क की पटरियों की गुणवत्ता ने किया। वे शारीरिक अक्षमता के शिकार लोगों के लिए भी सहायक थीं। यह भी नहीं कि ऐसा केवल पेइचिंग की मुख्य सड़कों पर ही हो बल्कि शहर के भीतर और देश के अन्य छोटे शहरों में भी मुझे ऐसा ही देखने को मिला। हो सकता है कि चूंकि दिल्ली में पैदल चलने वालों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता इसलिए मैं अतिउत्साह में कुछ ज्यादा प्रतिक्रिया दे रहा हूं लेकिन शहरी प्रशासन की स्थिति की जांच के लिए यह अच्छा उदाहरण है। शहरी क्षेत्रों की स्थिति को बुनियादी ढांचा क्षेत्र में चीन के भारी भरकम निवेश का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ विश्लेषकों का यह भी कहना है कि इस क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा निवेश कर दिया गया है। हालांकि मुझे कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि संसाधनों के इस्तेमाल में कोताही बरती गई हो। पेइचिंग और उसके आसपास तमाम इलाकों में सड़कें वाहनों से भरी हुई रहती हैं। दिन में अधिकांश समय सबवे और बसों में भी खचाखच लोग भरे रहते हैं। मैंने जहां कहीं भी विमान यात्रा की, वे पूरी तरह भरे हुए थे। हवाई अड्डïों पर भी भीड़भाड़ देखने को मिली। ऐसे में जबकि परिवहन व्यवस्था को पूरा उपयोग होता हुआ दिखाई दे तो जरूरत से ज्यादा निवेश की बात तो बेमानी है। कम से कम बुनियादी ढांचे के बारे में तो ऐसा कहा ही जा सकता है। संयोग से मेरी यात्रा उस समय हुई है जबकि विश्व बैंक और चीन के रिश्तों की 30वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। मैं भी इस समारोह में आमंत्रित था। इस समारोह से संबंधित कुछ बातें हम भारतीयों के लिए रोचक साबित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि चीन के नीति निर्माण में विश्व बैंक की भूमिका और आर्थिक प्रबंधन के मसले पर बाहरी राय को चीन में खासी तवज्जो दी जाती है। हालांकि वहां ऐसे संदर्भ भी आए जिनमें नीतियों को राष्टï्रवादी बनाने के लिए उनमें जरूरी बदलाव की बात कही गई। चीन ने बाजार आधारित विकास के मसले पर बैंक की सलाह मानी लेकिन उसने सुधारों को अपने तरीके से लागू किया। मुझे इस बात ने चकित किया कि वहां प्रशासन नए विचारों को सुनने के लिए तैयार रहता है जबकि हमारे यहां तो नौकरशाहों का हर सलाह पर यही रुख रहता है कि हम तो पहले ही यह कह कर देख चुके हैं। समारोह के दौरान चीन के एक मध्य आय वाले देश से उच्च आय वाले देश में रूपांतरण पर भी चर्चा हुई। यह शंका भी व्यक्त की गई कि कैसे वैश्विक स्तर पर ऐसा हर परिवर्तन अंतिम रूप से विकास की धीमी गति की परिणिति को प्राप्त हुआ है। यह भी कि चीन के भौगोलिक परिदृश्य को देखते हुए यह व्यावहारिक नहीं लगता कि वह इस स्थिति का सामना कर पाएगा। इस समस्या का हल तेज शहरीकरण, उच्च शिक्षा के विस्तार और नई पहलों को आगे बढ़ाने के रूप में देखा गया। समारोह में गैरी बेकर ने तर्क दिया कि अगर निम्र से मध्य आय की ओर परिवर्तन हो तो उसे सही प्रोत्साहन, आयातित तकनीक और बढिय़ा मानव संसाधन के जरिए संभाला जा सकता है। परंतु, उन्होंने कहा कि मध्य से उच्च आय वर्ग की यात्रा एक कठिन काम है और इस दौरान घरेलू स्तर पर नए उत्पादों का विकास जरूरी हो जाता है। यह काम उच्च शिक्षा के तेज विकास और गुणवत्ता में सुधार के आधार पर ही किया जा सकता है। भविष्य के विकास के लिए उच्च शिक्षा और नई पहलों पर यह जो जोर दिया जा रहा है उसे विश्वविद्यालयों में चीन के भारी भरकम निवेश के रूप में महसूस किया जा सकता है। नई पहल वाले क्षेत्रों में अक्षय ऊर्जा का नाम लिया जा सकता है। चीन न केवल सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में दूसरे देशों से आगे निकल गया है बल्कि वह इन उद्देश्यों के लिए नई इकाइयों का निर्माण भी कर रहा है। एक चीनी नौकरशाह ने पूछा कि विकास के इस चीनी मॉडल के खतरे क्या हैं? मैंने तत्काल प्रतिक्रिया दी कि कुशल श्रमिकों की कमी और बढ़ते वेतन भत्ते इस संबंध में बड़ी अड़चन के रूप में सामने आ सकते हैं। दरअसल 80 और 90 के दशक में चीन में एक बच्चा संबंधी नीति लागू होने के बाद से वहां 'लिटिल प्रिंस ऐंड प्रिंसेसÓ सिंड्रोम फैल गया है। इसमें एक बच्चा होने के कारण वह मां बाप और दादा-दादी की देखरेख में बिगड़ जाता है। क्या ऐसे बच्चों में देश के विकास के लिए जरूरी अनुशासन पैदा किया जा सकेगा। देश में अस्थिरता का एक और कारण इस कम्युनिस्ट शासित देश में लोकतंत्र की मांग भी है। भारत की अपेक्षा चीन का समाज कहीं अधिक एकरूप है। सिंकियांग और तिब्बत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए उसने पुलिस बल का प्रयोग किया। अगर देश के कुशल कामगारों का तबका जागृत हुआ तो लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ सकती है। चीन इससे किस तरह निपटेगा? वहां सत्ता की पुलिस ताकत को परदे में रखा गया है। आमतौर पर आपको यह लगता है कि अधिकार वादी देशों में ढेरों सुरक्षाकर्मी और जवान आदि घूमते दिखाई देंगे, लेकिन चीन के साथ ऐसा नहीं है। वहां आव्रजन और सीमा संबंधी औपचारिकताएं तेजी से निपटाई जाती हैं। सड़कों आश्रैर गलियों में कई ट्रैफिक जवान देखने को मिलेंगे जो भलीभांति अपना काम संभालते हैं। अन्य सेवाओं जैसे कि होटल, एयरलाइन और स्थानीय परिवहन में भी यही तेजी देखने को मिली। कुल मिलाकर चीन की इस छोटी यात्रा से तो एक स्थिर राष्टï्र की छवि ही बनती है। ऐसा राष्टï्र जो उच्च आय से आने वाली समृद्घि और बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था के साथ आगे बढ़ रहा है। व्यवस्था में भले ही भ्रष्टïाचार हो लेकिन वह अपना काम कर रही है। हो सकता है कि अन्य विश्लेषकों से उलट यह एक पर्यटक के नजरिए से देखी गई चीजें हों। मैं यही कह सकता हूं कि चीन किसी संकट की ओर बढ़ रहा है। इस पर यकीन करने के लिए मुझे अभी के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रमाणों की आवश्यकता होगी।
