दोहरी मंदी का भय | संपादकीय / August 29, 2010 | | | | |
साल 2008 की महादहशत से हम काफी उबर गए हैं, लेकिन जोरदार विकास, भरोसे के साथ उपभोक्ता खर्च और कम बेरोजगारी के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है। पिछले हफ्ते अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बेन बर्नान्के द्वारा जैकसन होल सम्मेलन में दिए गए भाषण का सार यही था।
बर्नान्के ने हर तरह से आश्वस्त करते हुए साफतौर पर स्वीकार किया कि अकेले केंद्रीय बैंक दुनिया की समस्याएं नहीं सुलझे सकते, इस तरह बर्नान्के ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हो रहे सुधार की निरंतरता की बाबत आशावाद को उड़ा दिया। उन्होंने स्वीकार किया कि सुधार कुछ हद तक वैसे नहीं है, जैसी उम्मीद थी।
उन्होंने अवस्फीति के रुझानों के फिर से उभरने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया। आलोचकों ने बर्नान्के के बयान की यह कहते हुए आलोचना की है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बंशी बजा रहा था, पर इस बयान का मतलब यही है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था से अच्छी खबरें एकदम अच्छी नहीं हैं।
पिछले हफ्ते जारी अमेरिका की राष्ट्रीय आय में हुई वृद्धि के ताजा आंकड़ों के आधार पर अमेरिकी अधिकारियों ने जून 2010 की तिमाही में विकास की अनुमानित सालाना दर को 2.4 फीसदी से घटाकर 1.6 फीसदी कर दिया है।
निर्यात विकास शून्य के आसपास है, बेरोजगारी का स्तर ऊंचा है और उपभोक्ताओं का खर्च अभी भी कमजोर है। बर्नान्के ने कहा कि नीति के स्तर पर लंबी अवधि में ऊंची बेरोजगारी चिंता का कारण रहेगी। बर्नान्के का पूर्वानुमान बताता है कि दोहरी मंदी की काली छाया से अमेरिकी नीति निर्माता अभी भी परेशान हैं। यह साफ है कि अमेरिका जिस मंदी से जूझ रहा है, वह चक्रीय के मुकाबले संरचानात्मक ज्यादा है।
इसका मतलब कि वहां मौद्रिक नीति की सीमाएं हैं, इस वास्तविकता को बर्नान्के ने साफ तौर पर स्वीकार किया। उन्होंने आश्वस्त किया कि अमेरिकी फेडरल ओपन मार्केट कमेटी विकास दर बढ़ाने, अवस्फीति रोकने और कीमतों में स्थिरता के सभी उपाय करेगी। आखिर में बर्नान्के ने कहा - मुझे भरोसा है कि जो कुछ भी मैंने कहा है वह सबसे सुखद परिणाम है, मैक्रोइकनॉमिक अनुमान स्वाभाविक रूप से अनिश्चित हैं और अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित घटनाक्रम के प्रति संवेदनशील बनी रहेगी।
बर्नान्के और उनके जैकसन होल सहयोगी जरूरत से ज्यादा सतर्क हैं या जरूरत से ज्यादा आशावादी? अमेरिका के लिए समस्या यह है कि जहां मौद्रिक नीति से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, वहीं राजकोषीय नीति में करने के लिए बहुत कुछ नहीं है। बर्नान्के के भाषण में भारतीय कारोबार के लिए दो चीजें हैं : पहला, अमेरिका में उच्च बेरोजगारी जारी रहने के कारण लगता नहीं कि वह बाह्य व्यापार नीति के प्रति ज्यादा उदार रहेगा। एच-1बी वीजा जैसे झटके जारी रहेंगे।
दूसरा, भारत के पास अमेरिका की मदद करने का मौका है, बशर्ते वह उच्च तकनीक निर्यात पर लगी पाबंदी में छूट दे। अमेरिकी परमाणु ऊर्जा उपकरण और रक्षा आपूर्ति की बाबत आयात का दरवाजा खोलना इस समय काफी अच्छा रहेगा और राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ चुके ओबामा के चेहरे पर इससे मुस्कराहट आएगी।
क्या भारत जरूरत केसमय अमेरिका का दोस्त बन सकता है? भारतीय सांसदों ने अभी तक ऐसी रणनीतिक सोच और लेनदेन की कूटनीति की क्षमता प्रदर्शित नहीं की है।
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