आपराधिक लापरवाही की शिकायत में अफसरों का नाम अवश्य हो
अदालती आईना
एम. जे. एंटनी / August 11, 2010
सामान्य तौर पर मान्यता यह है कि किसी दूसरे की गतिविधियों के लिए कोई व्यक्ति आपराधिक रूप से जिम्मेदार नहीं होता। लेकिन एक अपवाद इन दिनों कंपनी के निदेशकों और शीर्ष अधिकारियों को परेशान कर रहा है और वह है स्थानापन्न दायित्व का नियम।
कॉरपोरेट सोपान में यह किसी को भी जाल में फंसा सकता है, चाहे वह भोपाल जैसी बड़ी आपदा हो या फिर किसी पिज्जा चेन के खिलाफ खाद्य मिलावट का मामला हो। सजा के मुकाबले निचले स्तर के कर्मचारियों की गलती के लिए अदालत में अपने आपको बचाने का कटु अनुभव और भी बुरा हो सकता है।
यह ऐसा मुद्दा है जो सभी अदालतों (दीवानी या फौजदारी) में कभी-कभी सामने आता है क्योंकि कई विधानों में समान प्रावधान हैं जो कंपनी द्वारा गलत किए जाने की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति पर तय करता है। पिछले हफ्ते उच्चतम न्यायालय ने कीटनाशक अधिनियम के ऐसे ही प्रावधान का सामना किया, जहां रेकिट ऐंड कोलमैन ऑफ इंडिया का एक एग्जिक्यूटिव घाट (डॉक) पर था (स्टेट ऑफ एनसीटी बनाम राजीव खुराना मामला)।
कंपनी के क्षेत्रीय तकनीकी निदेशक कंपनी के उत्पादों की गुणवत्ता नियंत्रण का काम देख रहा था और भारतीय मानक ब्यूरो के मानकों से नीचे उत्पाद बेचने पर मुकदमे का सामना कर रहा था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनको जारी समन को खारिज कर दिया, लेकिन दिल्ली सरकार इस मामले को उच्चतम न्यायालय ले गई। हालांकि सरकार की अपील खारिज कर दी गई।
प्रबंधकों यानी प्रभारियों के लिए बुरा स्वप्न साबित होने वाले विशिष्ट प्रावधान कुछ इस तरह से हैं : इस कानून के तहत कंपनी द्वारा जब कोई अपराध किया जाता है तो इस अपराध के समय जो भी प्रभारी थे, वे कंपनी के कारोबार के लिए जिम्मेदार होंगे और कंपनी के साथ-साथ उन्हें इस अपराध का दोषी माना जाएगा। इसकी सजा कैद और जुर्माना है।
इस तरह से जब कंपनी द्वारा जारी किया गया चेक बैंक में पर्याप्त रकम न होने पर बाउंस होता है तो इसके प्रभारी व्यक्ति ऐसे काम के लिए जिम्मेदार होंगे। इस चेक पर हस्ताक्षर करने वाले स्पष्ट रूप से इस अपराध के लिए जिम्मेदार होते हैं। एक अग्रणी मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट ऐक्ट की धारा 11 के तहत प्रबंध निदेशक और संयुक्त प्रबंध निदेशक इसके लिए जिम्मेदार हैं (एसएमएस फार्मास्युटिकल लिमिटेड बनाम नीता भल्ला मामला)।
हालांकि एक फर्म के सभी साझेदार अपनी गतिविधियों के लिए जिम्मेदार होते हैं, ऐसी कोई परिकल्पना या धारणा नहीं है कि उनमें से हर कोई लेनदेन के बारे में जानता है। इसलिए जब किसी साझेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज होती है तो विशेष तौर पर कहा जाता है कि वह व्यक्ति फर्म की गतिविधियों का प्रभारी था (मोनाबेन बनाम गुजरात राज्य मामला)।
दिल्ली नगर निगम के फूड इंस्पेक्टर ने 1983 में मोर्टन ब्रांड टॉफी बेचने पर खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के तहत कंपनी और इसके तीन निदेशकों व प्रबंधक पर अभियोग चलाया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस अभियोग को खारिज कर दिया था क्योंकि निगम नामित व्यक्तियों को कंपनी की गतिविधियों का प्रभारी साबित नहीं कर पाया।
हरियाणा राज्य बनाम बृज लाल मित्तल (1998) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने ड्रग ऐंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट के तहत मामले की सुनवाई की। इसने कहा कि किसी व्यक्ति का कंपनी का निदेशक होने पर अनिवार्यत: यह मतलब नहीं होता कि प्रभारी व्यक्ति कंपनी के कामकाज के लिए जिम्मेदार था। दूसरी ओर, निदेशक हुए बिना कोई व्यक्ति प्रभारी हो सकता है और कंपनी की गतिविधियों के लिए जिम्मेदार हो सकता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने विष्णु प्रकाश बाजपेयी बनाम सेबी के मामले की सुनवाई की थी जिसमें सेबी अधिनियम के तहत अभियोग चलाया गया था। प्रतिवादी ने कहा कि वह कंपनी का प्रमोटर था और यहां तक कि कंपनी का निदेशक भी नहीं था। अदालत ने निर्देश दिया कि उनके ऊपर जिम्मेदारी तय करने से पहले निश्चित तौर पर तथ्यों का पता लगाया जाना चाहिए।
पिछले साल के. के. आहूजा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा : ऐसे कई निदेशक व सचिव हो सकते हैं जो कंपनी की गतिविधियों के प्रभारी नहीं हों। कोई व्यक्ति निदेशक हो सकता है और इस तरह से नीति बनाने वाले लोगों के समूह का हिस्सा हो सकता है, लेकिन फिर भी वह कंपनी के कारोबार का प्रभारी नहीं हो सकता, कोई व्यक्ति प्रबंधक हो सकता है और कारोबार का प्रभारी भी, लेकिन हो सकता है कि वह पूरे कारोबार का प्रभारी न हो और कोई व्यक्ति अधिकारी हो सकता है और यह व्यक्ति कारोबार के कुछ हिस्से का ही प्रभारी हो सकता है।
हालांकि कानून स्पष्ट नजर आ रहा है, फिर भी यह लंबी मुकदमेबाजी शुरू कर सकता है और इसके परिणामस्वरूप आरोपित व्यक्ति को परेशानी हो सकती है। पिछले हफ्ते उच्चतम न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि भोपाल मामले में दोषी लोगों पर जिम्मेदारी तय करने में 25 साल का वक्त लगा, इसमें 25 साल और लग सकते हैं अगर पूरा मामला दोबारा शुरू किया जाए और तब इनमें से कोई भी दोषी जीवित नहीं होगा।
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