विश्व व्यापार संगठन के कृषि और औद्योगिक उत्पादों के बारे में जारी हुए मसौदे से कोई खुश नहीं है। इसलिए इससे विश्व व्यापार वार्ता के दोहा दौर पर जारी गतिरोध दूर होने की उम्मीद करना बेवकूफी ही होगी।
हालांकि शुरू में कृषि उत्पादों के मसौदे पर हमने थोड़ा सकारात्मक रुख दिखाया था, लेकिन जैसे ही इसका विस्तृत रूप सामने आया यह पता चल गया कि इसमें भारतीय किसानों को कृषि उत्पादों के बड़े निर्यातक राष्ट्रों से बचाने के लिए काफी कम जरिये दिए गए हैं।
इस बीच, नॉन एग्रीकल्चर मार्केटिंग एक्सेस (नामा) के नए मसौदे ने मुल्क की छोटी और मध्यम औद्योगिक इकाइयों तक के संरक्षण को मुश्किल कर दिया। हालांकि, भारत के खास उत्पादों के लिए लचीले बर्ताव और स्पेशल सेफगार्ड मैकेनिज्म की मांग को डब्लूटीओ ने सिरे से ठुकराया तो नहीं, लेकिन इसके असर को काफी कम कर दिया गया है।
ध्यान रहे कि स्पेशल सेफगार्ड मैकेनिज्म के तहत ऐसे उत्पादों के आयात पर कड़ा नियंत्रण रखने की बात कही गई है, जिसकी वजह से देसी उत्पादकों की वित्तीय सेहत पर बुरा असर पड़ता है। इसके साथ-साथ उन उत्पादों की सूची में भी काफी काट-छांट कर दी गई, जिसे भारत और अन्य विकासशील मुल्क अमीर देशों से आने वाली सामान की बाढ़ से बच सकते हैं। हकीकत में यह हिंदुस्तानी मांग के ठीक उलट है।
भारत की मांग थी कि जुलाई 2004 में विकासशील देशों को जो लचीलापन मिला हुआ था उससे औद्योगिक दरों को कम करने वाले किसी फॉर्मूले से जोड़कर न देखा जाए। लगता है, इस मसौदे के जरिये अमेरिका और दूसरे विकसित देशों ने विकासशील देशों के बीच क्रीमी लेयर के मुल्क यानी भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका पर असर बनाने की कोशिश की है। इसके जरिये विकसित देशों ने कोशिश की है कि वे अपने यहां बने उत्पादों को हम जैसे मुल्कों में बेच सकें।
उनके इस लालच का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि भारत और दूसरे विकासशील देशों की 'ऊंच-नीच के सिंध्दात' को नामा का आधार बनाने की मांग पर कान नहीं दिया जा रहा है। अगर यह मांग मान ली जाती तो अमीर देशों को विकासशील मुल्कों की तुलना में ज्यादा टैक्स कटौती करनी पड़ती।
अगर यह मसौदे समझौते की शक्ल लेगा तो हमारे जैसे मुल्कों को अमीर देशों के बाजारों में थोड़ी सी भी जगह बनाने के लिए उन्हें अपने बाजार तक काफी ज्यादा पहुंच देनी पड़ती। इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधियों ने इस मामले में आनन फानन यह ऐलान कर दिया कि वैश्विक बाजार के बदलते हालात को देखते हुए अगर दूसरे देश भी इस मसौदे को अपनाने को तैयार हैं, तो उन्हें भी स्वीकार करने में ऐतराज नहीं होगा।
अमेरिका ने कृषि सब्सिडी को भी कम करने से इनकार कर दिया। नए मसौदे को डब्लूटीओ द्वारा प्रतिनिधि स्तर की वार्ता को इसी महीने से फिर से शुरू करने की कोशिश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। लेकिन मुश्किल काम तो प्रतिनिधियों के बीच मतभेदों को दूर करना रहेगा।