हफ्ते की शख्सियत | ...नई सोच के कुशल कारोबारी : अजय पीरामल - चेयरमैन, पीरामल हेल्थकेयर | | पीबी जयकुमार / May 29, 2010 | | | | |
वर्ष 1988 में जब अजय पीरामल 33 साल के थे, तब उन्होंने ऑस्टे्रलिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी निकोलस लैबोरेटरीज को खरीदने का निर्णय लिया।
वह कंपनी उस समय भारत से अपना कारोबार समेटने जा रही थी। निकोलस के विनिवेश की जिम्मेदारी देख रहे माइक बार्कर ने पीरामल से उस समय कहा था कि आप अभी युवा हैं और आपको इस क्षेत्र का अनुभव नहीं है और न ही कंपनी की स्थिति के बारे में खास जानकारी है।
पांच साल पहले प्रकाशित आत्मकथा 'द लाइट हैज कम टू मी' में पीरामल ने बार्कर से उस वक्त हुई बात का जिक्र किया है। उन्होंने बार्कर से कहा था,'मैंने एक सपना देखा है कि इस कंपनी को मैं भारत की प्रमुख पांच कंपनियों में शुमार करूंगा।' बार्कर को भरोसा नहीं हुआ और वह बस हंस दिए।
उस समय निकोलस लैबोरेटरीज भारत में 48 वें नंबर की दवा निर्माता कंपनी थी और प्रमुख पांच कंपनियों में फाइजर और ग्लैक्सो जैसी कंपनियों का कब्जा था। हालांकि बाद में बार्कर पीरामल को कंपनी बेचने पर राजी हो गए। यह सौदा करीब 16.5 करोड़ रुपये में हुआ था।
एक दशक बाद अजय और उनकी पत्नी स्वाति पीरामल माइक बार्कर से मिलने पहुंचे, जो सेवानिवृत्ति के बाद केन्या में रह रहे थे। पीरामल अपने साथ निकोलस पीरामल की सालाना रिपोर्ट भी ले गए थे, जिसमें इस बात का जिक्र था कि कंपनी भारत के दवा उद्योग में पांचवें नंबर की हकदार है।
दो दशक बाद 55 वर्षीय अजय पीरामल ने सबको चकित करने वाला एक और कदम उठाया। उन्होंने पीरामल हेल्थकेयर के घरेलू फर्ॉम्युलेशन कारोबार को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी एबट को बेच दिया। कंपनी का सौदा करीब 17,000 करोड़ रुपये में हुआ। इतनी बड़ी रकम में कंपनी को बेचकर पीरामल ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। कंपनी का मूल्यांकन उसके कारोबार का करीब 9 गुना किया गया।
सौदे के बाद पीरामल हेल्थकेयर के पास करीब 1,700 करोड़ रुपये का कारोबार बचा रहेगा, जिसमें कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरिंग, हेल्थकेयर संबंधित उत्पादों का कारोबार और डायग्नोस्टिक्स लैब शामिल हैं। पीरामल हेल्थकेयर को सौदे के बाद पूंजीगत प्राप्ति कर के रूप में करीब 22 फीसदी (करीब 3,740 करोड़ रुपये) का भुगतान करना पड़ा।
शेष रकम में से कंपनी अपना कर्ज चुकता करेगी, जो करीब 1,300 करोड़ रुपये का है। साथ ही कंपनी के शेयरधारकों को विशेष लाभांश दिया जाएगा और उससे बची रकम को कारोबार के विस्तार में खर्च किया जाना है। उदारीकरण के समय यह कहा जा रहा था कि भारतीय कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कब्जे में ले लेंगी।
वैसे समय में पीरामल ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की परिसंपत्ति का अधिग्रहण किया। 90 के दशक की शुरुआत में निकोलस पीरामल ने स्विटजरलैंड की एफ हॉफमैन ला रॉश की भारतीय इकाई का अधिग्रहण किया। उसके बाद जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशों की कंपनियों की सहायक इकाइयों का भी उन्होंने अधिग्रहण किया।
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