किफायती मकान पर दें ध्यान | संपादकीय / May 20, 2010 | | | | |
आवासीय संपत्ति के बाजार में आई मंदी को देखते हुए भारतीय रियल एस्टेट डेवलपरों ने किफायती मकानों की ओर रुख किया।
इसका फायदा भी उन्हें देखने को मिला और खरीदारों ने तत्काल ऐसी परियोजनाओं में दिलचस्पी दिखलाई। इसके बाद ऐसे परंपरागत खरीदार जिन्होंने पहले कदम वापस खींच लिए थे, वे फिर से बाजार के लक्जरी वर्ग की ओर लौटने लगे हैं।
इस तरह बाजार में अभूतपूर्व दौर आ गया, जहां महंगे और सस्ते मकानों के खरीदार तो हैं मगर मध्यम वर्ग के मकान जिनकी कीमत 30 से 75 लाख रुपये के बीच है, उनके लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं।
हाल के दिनों में इस वर्ग में भी कुछ सुधार देखने को मिला है मगर साथ ही किफायती मकानों के कारोबार में सुस्ती देखने को मिली। इस तरह एक बार फिर से वह दौर लौटने लगा है जब किफायती मकानों को लेकर न तो डेवलपरों और न ही खरीदारों में कोई उत्साह है।
ऐसे मकानों की मांग में आई कमी को देखते हुए डेवलपर एक बार फिर से परंपरागत क्षेत्रों की ओर लौटने लगे हैं जहां खरीदारों ने दोबारा से दिलचस्पी दिखलानी शुरू कर दी है। वह दौर खत्म होता दिख रहा है जब डेवलपरों को बाजार में बने रहने के लिए नई पहल करने की जरूरत हुआ करती थी।
अगर यह चलन आगे भी जारी रहता है तो इससे नुकसान उठाना पड़ सकता है। पिछले कुछ सालों में अर्थव्यवस्था में बड़ी तेजी के साथ विकास देखने को मिला है। अगर कॉरपोरेट और संगठित क्षेत्रों की बात करें तो सबसे निचले तबके में हरकत देखने को मिली है।
कस्बाई और ग्रामीण बाजार न केवल एफएमसीजी कंपनियों के लिए व्यापक संभावनाओं वाले बाजार बने हुए हैं बल्कि टिकाऊ उपभोक्ता सामान के लिए भी ये बाजार तेजी के साथ उभरे हैं। शहरी गरीबों के लिए मकान की तैयारी तेज रफ्तार शहरीकरण के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है और उम्मीद की जा रही है कि यह आगे भी जारी रहेगी।
जब तक किफायती मकान एक आकर्षक कारोबार नहीं बन कर उभरता है तब तक शहरी भारत में लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा नहीं बल्कि और गिरेगा ही। फिलहाल जो लोग मेट्रो शहरों में रहते हैं उनमें से तकरीबन आधों का बसेरा तो झुग्गी बस्तियों में है।
किफायती मकानों की मांग में कमी का मतलब साफ है कि जो लोग झुग्गी बस्तियों में रह रहे हैं वे ऐसे मकानों में नहीं रह सकते हैं क्योंकि जिन मकानों की उन्हें पेशकश की जा रही है वे उनके लिए ठीक नहीं हैं। डेवलपर ऐसे मकान शहर से काफी बाहर बना रहे हैं और किफायती मकानों के नाम पर मकानों का आकार घटाया जा रहा है।
मगर ऐसे मकान तैयार करते वक्त यह ध्यान में रखना होगा कि क्या ऐसे मकान किसी ड्राइवर, ऑफिस के चपरासी या किसी सब्जी बेचने वाले की जरूरतों को पूरा करते हैं। क्या उनके पास इतना पैसा है कि वे ऐसे मकान खरीद सकें या फिर वे जितना कमाते हैं उसके दम पर रोज कमाने खाने के लिए इतनी दूर यात्रा कर सकें।
बस बिल्डरों को इतना भर आदेश दे देना कि उन्हें अपनी परियोजना में से कुछ हिस्सा किफायती मकानों के तौर पर विकसित करना होगा, काफी नहीं है। जो लोग ऐसे मकान खरीदना चाहते हैं उनके लिए हाउसिंग वित्तीय संसाधनों को भी आगे आना होगा। साथ ही शहरी जमीन की आपूर्ति भी बढ़ानी होगी। इस दिशा में काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।
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