करोड़ों की फिरौती के सहारे नक्सली हिंसा | माओवादी फिरौती के जरिए 1,200 करोड़ रुपये से 2,000 करोड़ रुपये के बीच जुटाते हैं। बता रहे हैं | | शांति मैरियट डीसूजा और विभु प्रसाद राउतरे / May 20, 2010 | | | | |
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी साल भर में फिरौती के जरिए कितनी रकम जुटाती होगी, क्या आपको इसका अंदाजा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक यह रकम 1,400 करोड़ रुपये सालाना है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने हाल ही में कहा था कि यह रकम सालाना 1,000 से 1,200 करोड़ रुपये है। हालांकि छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ने नवंबर 2009 में कहा था कि यह रकम 2,000 करोड़ रुपये के करीब है।
मगर नक्सल नेताओं ने गिरफ्तारी के बाद अपराध कबूल करते हुए जो बयान दिए हैं और इस दौरान जो कागजात जब्त किए गए हैं उनसे कुछ और ही पता चलता है। दरअसल इस सिलसिले में गृह मंत्रालय और राज्य सरकारों ने जो आंकड़े पेश किए हैं वे महज अनुमान पर आधारित हैं। ऐसे में इन आंकड़ों में अंतर पाया जाना स्वाभाविक है।
जो भी हो मगर इसमें कोई शक नहीं है कि नक्सली अपने प्रभाव वाले इलाकों से जो रकम जुटाते हैं वे उनके आंदोलनों की आग को जलाए रखने के लिए काफी होती है। उपलब्ध सूचनाओं से पता चलता है कि अकेले झारखंड में नक्सली फिरौती के जरिए 300 करोड़ रुपये जुटाते हैं जबकि छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा करीब 150 करोड़ रुपये का है।
हाल के वर्षों में नक्सलियों को प्राप्त होने वाले धन में झारखंड की हिस्सेदारी काफी बढ़ी है। राज्य का वैध और गैरकानूनी खनन उद्योग काफी बड़ा है और यहां वन्य उत्पादों के कारोबार से भी करोड़ों रुपये की कमाई होती है। यही इस तथाकथित लाल क्रांति के रीढ़ की हड्डी बनी हुई है।
बिहार और उड़ीसा जैसे दूसरे नक्सल प्रभावित राज्यों का भी खासा योगदान रहता है। दोनों ही राज्यों में सीपीआई-माओवादी के युद्ध कोष में विभिन्न स्त्रोतों से जो योगदान किया जाता है वह कमोबेश एक बराबर होता है।
इसमें वन्य उत्पाद ठेकेदारों, खनन कंपनियों, सड़क ठेकेदारों, ट्रांसपोर्टरों और लघु व मझोले उद्योगों की ओर से एक समान योगदान रहता है। हालांकि अलग अलग लोगों से जबरन जो रकम वसूली जाती है वह अपेक्षाकृत काफी छोटी होती है। खुफिया एजेंसियों का कहना है कि नक्सली इस पैसे का इस्तेमाल कर म्यानमार और बांग्लादेश के अवैध हथियार बाजार से अस्त्र और शस्त्र खरीदते हैं।
आंकड़ों से यह वता चलता है कि सीपीआई-माओवादी बड़े पैमाने पर चलने वाली फिरौती और जब्ती के जरिए जो रकम जुटाती है और उसके 'सालाना बजट' में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए सीपीआई-माओवादी पोलितब्यूरो के सदस्य मिसिर बेसरा, जिन्हें सितंबर 2007 में गिरफ्तार किया गया था ने पूछताछ के दौरान खुलासा किया था कि इस संगठन का 2007-09 का बजट 60 करोड़ रुपये का था।
इनमें से 42 करोड़ रुपये हथियारों और विस्फोटक पदार्थों के लिए खर्च किए गए थे, 2 करोड़ रुपये गुप्त सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए और बाकी बचे 16 करोड़ रुपये परिवहन, कंप्यूटर प्रशिक्षण, प्रचार कार्यों और दस्तावेज तैयार करने के लिए खर्च किए गए थे। यहां तक कि सीपीआई-माओवादी पोलितब्यूरो के सदस्य कोबाड गांधी जिन्हें सितंबर 2009 को नई दिल्ली में गिरफ्तार किया गया था, उन्होंने बताया कि संगठन 15 से 20 करोड़ रुपये के बजट पर काम करता है।
विभिन्न नक्सल प्रभावित इलाकों में खुफिया और पुलिस अधिकारी बताते हैं कि किस तरह आंदोलन के नाम पर जुटाए गए धन का एक बड़ा हिस्सा बड़े नक्सली नेता दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसी कहानियां भी सुनी जा सकती हैं कि किस तरह नक्सल नेताओं के बच्चे मेट्रो शहरों में इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं जबकि नक्सली खुद सुदूर इलाकों में जनजातीय बच्चों के स्कूलों को ध्वस्त करने में जुटे हुए हैं।
ऐसे स्कूल समय समय पर सुरक्षा बलों को आसरा देते रहे हैं मगर माओवादियों को लगता है कि इन स्कूलों की सबसे बड़ी गलती यह है कि नक्सली राज्य सरकार की नजरअंदाजगी को लेकर जो बढ़ा चढ़ाकर बातें किया करते हैं, इन स्कूलों की वजह से नक्सलियों के इस झूठ का पर्दाफाश हो जाएगा।
वास्तविकता तो यह है कि सीपीआई-माओवादी जैसा एक बड़ा और जटिल संगठन जिस तरह से काम करता है, उससे यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि अराजक नक्सली नेताओं द्वारा अपने खुद के फायदे के लिए इस कोष का इस्तेमाल कर पाना इतना आसान नहीं है। हालांकि आपराधिक संगठनों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उनके लिए बात कुछ अलग ही है।
नक्सलियों के लिबास में ऐसे संगठन झारखंड में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। अगर हम इतना कुछ जानते हैं तो यह बिहार और झारखंड में यह नए तरीके की शुरुआत जहां नागरिक प्रशासन भी इस तरह के भ्रष्टाचार में शामिल है। वर्ष 2009 में फील्ड दौरे के दौरान झारखंड पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पाया कि प्रखंड विकास अधिकारी अक्सर नक्सल प्रभावित जिलों में नियुक्ति पाने के लिए रिश्वत देते हैं।
इस अधिकारी ने कहा था, 'यहां पर्याप्त पैसा है मगर इसका कोई हिसाब किताब नहीं है।' उनका इशारा साफ था कि झारखंड में अवैध खनन गतिविधियों के जरिए नक्सली, नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों तीनों की जेबें बराबर गर्म होती हैं। एक बढ़ती युद्ध अर्थव्यवस्था के इस पहलू को समझने के लिए काफी कम प्रयास किए गए हैं। ऐसा करने के बजाय सरकार लाल सेना के इस लूट और फिरौती के साम्राज्य का ही जिक्र करती रही है।
मगर इसमें भी एक संकेतात्मक संबंध देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, सुदूर इलाकों में जिन ठेकेदारों को सड़क बनाने का काम सौंपा गया है वे नक्सलियों के इशारे पर सड़क के नीचे विस्फोटक पदार्थ लगाने को तैयार रहते हैं ताकि इससे सड़कें और छोटे पुल उड़ा दिए जाएं और उनके निम् गुणवत्ता वाले कार्यों का कोई सुबूत ही न रह जाए।
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने फरवरी 2008 में अपनी सातवीं रिपोर्ट में इन चुनौतियों से निपटने के लिए सबसे पहले राज्य सरकारराज्य पुलिस को एक ऐसी विशेष सेल के गठन का सुझाव दिया है जो फिरौती और काले धन को सफेद बनाने के गोरखधंधे को रोकने की दिशा में काम करे। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को यह निर्देश दिया है कि वे अवैध खनन पर निगरानी रखने और उन्हें रोकने के लिए कार्य योजना तैयार करें।
इस तरह की कार्य योजनाओं को बनाते और उन्हें अमल में लाते वक्त केंद्र ने राज्यों से सैटेलाइट तस्वीरों और खुफिया सूचनाओं की मदद लेने का सुझाव दिया है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने खनिज रियायत देते वक्त विलंब रोकने के लिए एक संयोजन-सह-अधिकार प्राप्त समिति का गठन किया है ताकि अवैध खनन के मौके सीमित रहें।इसमें कोई शक नहीं है कि ये जरूरी कदम हैं।
मगर नक्सलियों और दूसरे समूहों द्वारा फिरौती के मामलों को रोकने के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में राज्य सरकारों का दबदबा कायम हो। मगर नक्सलियों से निपटने के लिए फिलहाल जिस तरह से अभियान चलाया जा रहा है उससे तो नहीं लगता है कि निकट भविष्य में यह संभव हो पाएगा।
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