संयम का सवाल | संपादकीय / May 11, 2010 | | | | |
महज एक महीने पहले यानी 10 अप्रैल को भारत सरकार के कैबिनेट सचिव ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों को पत्र लिखा था।
पत्र के जरिए उन्हें बताया गया था कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि मीडिया से बातचीत के दौरान मंत्रिगण सीमा से आगे न निकल जाएं। यह पत्र काफी स्पष्ट था। कैबिनेट सचिव ने संदेश दिया था, अगर कोई मुद्दा प्रधानमंत्री की नजर में संवेदनशील पाया जाता है तो उनका फैसला है कि एक मंत्रालयविभाग को मीडिया से बातचीत के लिए नोडल मंत्रालय बनाया जाएगा।
यह नोडल एजेंसी सरकार द्वारा उठाए गए कदमों या उस पर विचार के साथ-साथ अपनाए गए रुख की सटीक अभिव्यक्ति मीडिया को पेश करेगी। प्रधानमंत्री का निर्देश कितनी ज्यादा अहमियत पा सकता है?
अगर कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय नोडल मंत्रालयविभाग नहीं बना पाया है जो मीडिया से विभिन्न मुद्दों मसलन ऊर्जा व दूरसंचार क्षेत्र में विदेशी निवेश की बाबत भारत की नीति या चीनी निवेश पर भारत की नीति आदि पर अकेले प्रतिनिधि के तौर पर बातचीत करे तो फिर पर्याप्त कल्पना की जा सकती है कि पर्यावरण व वन मंत्री ऐसे नोडल मंत्री होंगे।
हम विदेश मंत्रालय के मंत्री को माफ कर सकते हैं, यहां तक कि मीडिया का ध्यान खींचने वाले शशि थरूर जब चीन के मसले पर बोलते हों। हम दूरसंचार मंत्री को भी माफ कर सकते हैं, यहां तक कि निश्चित तौर पर कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा करने वाले मसलन ए. राजा को, जो दूरसंचार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर बोलते हों। लेकिन चाहे हमारे मंत्री का रुख जलवायु परिवर्तन व बाघों पर कुछ भी हो, वे वाकपटुता से दहाड़ते हुए भारत में चीनी निवेश के माहौल पर बोलते हैं?
न सिर्फ पर्यावरण व वन मंत्री जयराम रमेश ने असमय बयान दिया बल्कि उन्होंने प्रधानमंत्री के निर्देश का उल्लंघन भी किया और भारत को शर्मिंदा किया। अविवेकी रुख की वजह से शशि थरूर को पद से हटा चुकेप्रधानमंत्री के पास शायद इतनी ऊर्जा नहीं भी हो सकती है कि वह एक और मंत्री की छुट्टी कर दें।
लेकिन फोन पर दी गई झिड़की उनके द्वारा उठाया गया वह सबसे छोटा कदम था, जो कि वह कर सकते थे। मंत्रिमंडल में प्रतिभा की कमी के इस दौर में थरूर और रमेश ऐसे चुनिंदा लोगों में हैं जो उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल का सक्षम सदस्य बनाता है। दोनों ने ही अपने दफ्तर में दिलेरी दिखाई है।
अगर प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद को पुनर्गठित करें तो अक्षमता के आधार पर हटाए जाने वालों की पहली सूची में कोई भी नाम नहीं होगा, चाहे मंत्रालय से बाहर रखने की अन्य वजह क्यों न हो, जैसा कि थरूर का मामला था।
शायद यह उनकी सापेक्ष ताकत को महसूस करने का समय है जिसने उन्हें अतिआत्मविश्वासी और इतना अभिमानी बना दिया है कि वे राजनीति में अन्य लोगों को परेशानी में डाल देने वाले और मीडिया की प्रसन्नता की वजह बन गए हैं।
उनके जैसे मंत्रियों को खुद प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों मसलन प्रणव मुखर्जी व पी. चिदंबरम के उदाहरण से सीखना चाहिए। ये मंत्री पूरी तरह सक्षम हैं न कि अकड़ वाले या अभिमानी, जो देश को सही दिशा में ले जा रहे हैं।
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