दिल्ली के स्प्रिंगडेल्स स्कूल के ग्यारहवीं कक्षा के छात्र-छात्राओं के लिए कमरा बनकर तैयार है, जिसमें जीव विज्ञान के 40 विद्यार्थियों के बैठने की व्यवस्था है।
कक्षा में 40 विद्यार्थी हैं भी, लेकिन उनमें से केवल 16 ने ही जीव विज्ञान विषय का चयन किया है। उन्हें उम्मीद है कि आगे चलकर वे डॉक्टर बनेंगे। अन्य विद्यार्थी फाइन आर्ट्स आदि विषय पढ़ रहे हैं। हालांकि पिछले साल इनकी संख्या कुछ अधिक यानी 19 थी। इसके साथ ही दो कक्षाएं और भी हैं, जिनमें गणित के छात्र पढ़ाई कर रहे हैं।
उन्होंने जल्द ही इंजिनियर बन जाने का सपना देखा है। उसमें से कुछ बिजनेस स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं। स्कूल की प्रिंसिपल अमीता मुल्ला वाटेल कहती हैं कि अब छात्रों के सामने कैरियर के चुनाव के लिए ढेरों विकल्प मौजूद हैं। इस समय डॉक्टर बनने का सपना देखने वाले विद्यार्थियों की संख्या घट रही है।
संदेश स्पष्ट है। अगली पीढ़ी के लिए सफेद कोट और स्टेथेस्कोप के प्रति आकर्षण कम हो रहा है। पहले स्कूलों और कॉलेजों के तेज-तर्रार और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की पहली पसंद मेडिकल शिक्षा हुआ करती थी और वे डॉक्टर बनने को पहली प्राथमिकता देते थे। अब वह धारणा बदल चुकी है।
जीव विज्ञान के एक चिकित्सक ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा कि अब वही छात्र जीव विज्ञान की पढ़ाई करने को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं, जिनके माता-पिता का पहले से ही हॉस्पिटल या नर्सिंग होम है। कुछ इसी तरह के आंकड़े आल इंडिया प्री-मेडिकल टेस्ट आयोजित करने वाले सेंट्रल बोर्ड आफ सेकेंडरी एजूकेशन से भी मिल रहे हैं। पिछले साल जहां इस परीक्षा में 2 लाख विद्यार्थियों ने भाग लिया, वहीं इस साल यह संख्या घटकर 1 लाख 60 हजार रह गई है।
राजधानी में यह संख्या 2007 और 2008 के बीच 40,000 से घटकर 26,000 रह गई है। इस मामले से परिचित एक सीबीएसई के अधिकारी का कहना है कि पिछले चार साल से संख्या में कमी आ रही है, लेकिन पिछले साल इस संख्या में तेजी से गिरावट देखी गई।
एक और भी ऐसी संख्या है, जिससे इस पेशे के प्रति लोगों के आकर्षण कम होने का संकेत मिलता है। 2004 से जहां देश भर में 300 नए इंजिनियरिंग और 400 बिजनेस स्कूल खुले हैं, वहीं केवल 38 नए मेडिकल कॉलेज खुले हैं। 270 मेडिकल कॉलेजों में कुल सीटों की संख्या 30,433 है। यह 350,000 इंजिनियरिंग की सीटों की तुलना में करीब 10 प्रतिशत कम है।
मानव संसाधन के विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ है कि अन्य क्षेत्र में अधिक वेतन के ऑफर मिल रहे हैं। सात साल की पढ़ाई के बाद मेडिकल कॉलेज से एक डॉक्टर बाहर निकलता है तो उसे नौकरी के लिए शुरुआती ऑफर करीब 15,000 रुपये प्रतिमाह का मिलता है। जबकि एक कॉल सेंटर में काम करने वाले को भी उतनी ही तनख्वाह का ऑफर मिलता है। इसकी तुलना में एक इंजिनियरिंग ग्रेजुएट को इससे दोगुने वेतन का ऑफर मिलता है।
वरिष्ठ स्तर पर भी वेतन कुछ बेहतर नहीं है। कैरियर नेट कंसल्टिंग के सीईओ ऋषि दास कहते हैं कि उनकी कंपनी ने नेशनल हेल्थ सर्विस यूके के लिए भर्ती के दौरान पाया कि वरिष्ठ स्तर के विशेषज्ञ चिकित्सक भी भारत में 100,000 रुपये से ज्यादा वेतन नहीं पाते हैं।
यह भी सच्चाई है कि अस्पताल में सम्मानजनक पद पाना भी मुश्किल होता है। युवा चिकित्सक जिन्होंने मेडिकल की प्राथमिक डिग्री हासिल की है, बगैर पोस्ट ग्रैजुएट कोर्स किए अच्छे पद की उम्मीद नहीं करते। इन कोर्सों के लिए न केवल कड़ी प्रतियोगिता है, बल्कि इसमें 30-40 लाख रुपये का भारी भरकम खर्च भी आता है। यह कोर्स करने के बाद भी तीस साल की उम्र के पहले आप बढ़िया वेतन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि चिकित्सकों की कमी के बावजूद इस क्षेत्र में वेतन बहुत ही कम है। योजना आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 6,00,000 डॉक्टरों, 10 लाख नर्सों और 2,00,000 डेंटल सर्जन की कमी है। इसके अलावा पैरा मेडिकल कर्मचारियों की भी भारी कमी है। इस कमी को पूरा करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कम से कम 60 नए मेडिकल कॉलेज और 225 नर्सिंग स्कूल खोले जाने की जरूरत बताई गई है।
इसके विपरीत, मेडिकल कॉउंसिल आफ इंडिया ने दर्जनों मेडिकल कॉलेजों की मान्यता खत्म किए जाने की नोटिस भेजी है, क्योंकि उनमें शिक्षा के लिए पर्याप्त सुविधाएं मौजूद नहीं हैं। इनमें से कुछ तो बहुत ही पुराने हैं। यह हकीकत है कि वहां पर अध्यापकों और ट्रेनिंग स्टाफ की किल्लत है। योजना आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा और डिग्री धारकों की वार्षिक संख्या केवल करीब 45,00 है, जो आवश्यकता को देखते हुए बहुत ही कम है।
मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के अध्यक्ष केशवन कुट्टी ने कहा, 'स्वाभाविक है कि यह बहुत बड़ी समस्या है, जिस पर सरकार और योजना आयोग को प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना चाहिए।' उन्होंने कहा, 'छठे वेतन आयोग ने भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों का खास खयाल रखा है, वहीं चिकित्सकों की उपेक्षा हुई है।'
उन्होंने कहा, 'मैं त्रिवेंद्रम मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में 24,000 रुपये प्रतिमाह वेतन पाता था। आईटी क्षेत्र में काम करने वाले हमारे साथी 2 लाख से तीन लाख रुपये प्रतिमाह कमा रहे हैं। ऐसा कौन चाहेगा?' मध्य प्रदेश के रेवा के श्याम शाह मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल जीपी द्विवेदी को कॉलेज की मान्यता खत्म किए जाने की नोटिस मिली है, लेकिन वे लाचार हैं, कुछ नहीं कर सकते। उन्होंने कहा, 'कॉलेज में शिक्षकों की कमी है।
थोडा बहुत नहीं बल्कि मानकों को देखते हुए 50 प्रतिशत शिक्षक कम हैं। हमारा बायोकेमिस्ट्री विभाग, शिक्षक न होने के चलते बंद हो गया। रेडियोलॉजी विभाग में केवल एक असिस्टेंट प्रोफेसर है, जबकि हमें दो लोगों, एक असिस्टेंट प्रोफेसर और एक प्रोफेसर की जरूरत है।' इसके अलावा कॉलेज में 1000 नर्सों की कमी है।