न्याय व्यवस्था में बदलाव की बयार का इंतजार | अदालती आईना | | एम. जे. एंटनी / May 05, 2010 | | | | |
न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर ऐसे समय में बदलाव हो रहा है जब भारत के उच्चतम न्यायालय में बकाया मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है और सुधार की बात सिर्फ सपना जैसा ही लगता है।
हाल के समय में इसे उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग के मामले से जूझना पड़ा था और कुछ अन्य के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों से। इनमें एक ऐसा भी मामला है जिसमें उच्चतम न्यायालय खुद के सामने ही सूचना के अधिकार विवाद में याची बन गया है।
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभालने के तुरंत बाद न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने बड़े जोश के साथ ऐलान किया था, ' लोकतंत्र में सूचना सशक्तिकरण है क्योंकि यह पारदर्शिता, एकता और जवाबदेही को प्रोत्साहित करता है।
सार्वजनिक संस्थान की गतिविधियों से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर जनता को सूचित करना अनिवार्य है, उन्हें जानकारी देने और सार्वजनिक संस्थान के काम व प्रदर्शन की बाबत अपनी राय कायम करने में सक्षम बनाने के लिए भी यह जरूरी है। मैं खुश हूं कि उच्चतम न्यायालय ने इस दिशा में अग्रणी स्थान हासिल किया है।'
सिनेमा के क्लाइमेक्स की तरह ही, जैसे ही उन्होंने उच्चतम न्यायालय की पत्रिका में उपरोक्त संपादकीय लिखा तो वह अपीलीय अदालत में न्यायाधीशों की संपत्ति व उनकी नियुक्ति के लिए सलाह की प्रक्रिया से संबंधित सूचना के अधिकार विवाद में घिर गए।
जनता के आक्रोश के प्रत्युत्तर में न्यायाधीशों की संपत्ति का विवरण वेबसाइट पर डाल दिया गया था। लेकिन सलाह की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण अन्य मुद्दा था, इसमें उच्चतम न्यायालय ने खुद के सामने याचिका पेश की और यह याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी जिसने कहा था कि सूचना विशेषाधिकृत नहीं है। यह याचिका अभी भी लंबित है।
दिसंबर 2007 में (करीब-करीब इसी समय न्यायाधीश बालाकृष्णन ने कार्यभार संभाला था) बकाया मामलों की संख्या 39780 थी, पिछले दिसंबर में यह संख्या 55791 थी। जब 1950 में उच्चतम न्यायालय का गठन हुआ था तब बकाया मामलों की संख्या महज 680 थी।
लोगों की साक्षरता व अधिकार के प्रति जागरूकता को देखते हुए मामलों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी अपरिहार्य है। चूंकि कार्यपालिका ने न्यायपालिका की उपेक्षा की है, लिहाजा निपटान की दर में निरंतर कमी आई है।
इसने एक बहस को जन्म दे दिया है कि क्या उच्चतम न्यायालय को सभी अपील स्वीकार करनी चाहिए या फिर अपने आपको संवैधानिक मामलों और सार्वजनिक महत्त्व के मामलों तक सीमित कर लेना चाहिए। अदालत के एक पीठ ने इस सवाल को संविधान पीठ को संदर्भित कर दिया है, जिसका गठन नए मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाडिया को करना है।
सुधार के मोर्चे पर उच्चतम न्यायालय स्थिर रहा है, हालांकि नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन के सेमिनार हॉल में ढेर सारे प्रस्ताव थे और वहां केंद्रीय कानून मंत्री की भी मौजूदगी थी।
इन प्रस्तावों में न्याय प्रदान करने की व्यवस्था को फिर से डिजाइन करना, राष्ट्रीय बकाया ग्रिड की स्थापना, न्यायपालिका को बुनियादी ढांचा, प्रबंधकीय, तकनीकी और कर्मचारियों की सुविधा मुहैया कराना आदि शामिल है। हाई टी (चाय के साथ नाश्ता) के बाद इन्हें भुला दिया गया।
क्या नए मुख्य न्यायाधीश दिख रही समस्याओं के ढेर पर निशान लगा पाएंगे, जहां उनके पूर्ववर्ती नाकाम रहे हैं, यह सवाल कानूनी पेशेवरों के दिमाग में है। ऐसी कोशिश के लिए उनके पास दो साल और चार महीने का वक्त है।
कॉरपोरेट जगत को यह जान लेना चाहिए कि वह चार्टर्ड अकाउंटेंट व कॉस्ट अकाउंटेंट हैं और आर्थिक सुधार के इन दिनों में वे वाणिज्यिक कानूनों में काफी कुछ योगदान दे सकेंगे। उनकी अदालत पहले से ही प्रस्तावित वाणिज्यिक अदालत की तरह संचालित होती है और वकील कर कानूनों पर उनके मेल-जोल से बराबरी करने के लिए संघर्ष करते हैं।
उनके कुछ फैसले जटिल हैं और उनके वास्तविक आयात पर बहस हो रही है। उन्होंने हाल में न्यायाधीशों व वकीलों को विशेष प्रशिक्षण के लिए बुलाया ताकि वे कर संबंधी अपनी जानकारी बढ़ा सकें। उन्होंने कर मामलों में सरकारी पक्ष रखने वाले वकीलों की अपर्याप्त जानकारी पर खेद व्यक्त किया और कहा कि इससे राजस्व का भारी नुकसान होता है क्योंकि निजी कंपनियां सबसे अच्छे वकीलों को उतारती हैं।
राजस्व विभाग द्वारा अपील दायर करने में कई साल की हुई देरी और मामले की सुनवाई के समय वकीलों की अनुपस्थिति उनके आदेश में रिकॉर्ड की गई है। सोमवार को उन्होंने राजस्व खुफिया निदेशालय केवकील से कहा कि उनकी अपील में एक हजार दिन की देरी हुई।
हालांकि उनकी अदालत निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन की तरह सभी मुद्दों पर दाखिल की जाने वाली जनहित याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करती, लेकिन वह स्पेशल ग्रीन बेंच में हैं जो पर्यावरण व वन से जुड़े मुद्दों पर सुनवाई करती है। चूंकि उन्हें अपने पूर्ववर्ती से बडी संख्या में जनहित याचिका विरासत में मिलेगी, तो फिर उनका निपटान करने के उनके तरीके को उत्सुकता से देखा जाएगा।
राजकोषीय विनियमन पर उनकी जानकारी काफी अच्छी तब नजर आती है जब वह न्यायपालिका के लिए और फंड की बाबत बात करते हैं। कोष का संकट सबसे गंभीर समस्या है जो राज्य के इस अंग को प्रभावित कर रहा है।
हाल में उन्होंने टिप्पणी की थी, 'उनका दिल निचली अदालतों के उन न्यायाधीशों को देखकर दुखी हो जाता है जो दूरदराज के इलाके में भीषण गर्मी में बिना पंखे के काम कर रहे हैं।' दरअसल 1989 में दायर एक जनहित याचिका में अधीनस्थ न्यायाधीशों की सेवा शर्तों को उठाया गया है।
|