बिजली बोर्डों का बढ़ता घाटा और हाई वोल्टेज ड्रामा | पैनी नजर | | सुनील जैन / April 12, 2010 | | | | |
एक तरफ जहां निवेशकों ने बिजली क्षेत्र की परियोजनाओं को लेना जारी रखा है, वहीं यह समझ पाना मुश्किल है कि कैसे वे उम्मीद कर रहे हैं कि चीजें ठीक हो जाएंगी।
राज्य सरकार के स्वामित्व वाले बिजली बोर्डों और अन्य विद्युत संस्थानों का घाटा साल 2008-09 में 27,317 करोड़ रुपये पर पहुंच गया था और 13वें वित्त आयोग के अनुमान के मुताबिक इस साल यह घाटा 68,643 करोड़ रुपये पर पहुंच जाने की संभावना है।
आयोग के अनुमान के अनुसार साल 2014-15 तक यह घाटा 1,16,089 करोड़ रुपये हो जाएगा। संयोग से, वित्त आयोग ने राज्यों को भविष्य में ऊर्जा उत्पादन, पारेषण, वितरण आदि के लिए जितनी अतिरिक्त रकम की जरूरत का अनुमान लगाया है वह उतनी ही है, जितना राज्यों का बिजली मद में घाटा है।
जैसे, साल 2010-11 में इस मद में 75,880 करोड़ रुपये का घाटा होगा जो 2014-15 तक 1,15,637 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा। विभिन्न राज्य इसका वित्त पोषण कैसे करेंगे, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है क्योंकि मार्च 2008 तक राज्यों ने विद्युत कंपनियों में इक्विटी के तौर पर 71,268 करोड़ रुपये का निवेश किया था, इनमें से 70,652 करोड़ रुपये उन पर बाकी थे और उनके ऋण के लिए राज्यों ने 88,385 करोड़ रुपये की गारंटी दे रखी थी।
इस गारंटी के जरिए बिजली बोर्डों को रोजमर्रा की बिजली खरीद के भुगतान के लिए उधार लेने की इजाजत मिली हुई है। ऐसे में नए पावर प्लांट में निवेश करने वाले भुगतान की उम्मीद कैसे कर सकते हैं, यह सोचकर सिर चकरा जाता है। संभवत: सभी निवेशकों ने यह मान लिया है कि केंद्र सरकार राज्य बिजली बोर्डों के लिए भी ऋण माफी योजना लेकर आएगी।
लेकिन स्वाभाविक प्रश्न यह है कि आखिर नुकसान में इतना तेज इजाफा कैसे हुआ, साल 2008-09 में 27,317 करोड़ रुपये का बजट अनुमान था जो साल 2010-11 में अनुमानित 68,643 करोड़ रुपये कैसे हो गया? निश्चित तौर पर इसकी एक वजह बिजली की खपत व लागत में बढ़ोतरी है लेकिन इसके चलते यह दोगुने से ज्यादा तो नहीं हो सकता।
इसका इससे क्या संबंध है, यह साबित करना मुश्किल है, लेकिन मेरा अनुमान है कि पावर ट्रेडिंग -बिजली का कारोबार इसकी बड़ी वजह है। बिजली की दरें 7-8 रुपये प्रति यूनिट के ऊंचे स्तर तक पहुंच सकती है और हाल के समय में इसमें तीव्र बढ़ोतरी हुई है। करीब 15 अरब यूनिट बिजली (कुल उत्पादन का 2.4 फीसदी) का साल 2006-07 में कारोबार हुआ था।
साल 2009-10 में यह बढ़कर करीब 64 अरब यूनिट (दिसंबर तक के आंकड़ों के आधार पर) पर पहुंच गया, जो कि बिजली के कुल उत्पादन का करीब 9.5 फीसदी है। औसतन 5 रुपये प्रति यूनिट की कीमत के हिसाब से इससे 32 हजार करोड़ रुपये का राजस्व बनता है - इस तरह देश में बेची गई 10 फीसदी बिजली की लागत सभी तरह की बिक्री से मिलने वाले कुल राजस्व के पांचवें हिस्से से ज्यादा है।
यह वांछनीय है कि उपभोक्ता जितनी बिजली की खपत करता है, उसका पैसा चुकाए। ऐसे में किसी भी सूरत में उनसे नहीं कहा जा सकता कि वे कारोबारियों की मुनाफाखोरी के लिए भी भुगतान करें। लेकिन सट्टेबाज यानी ट्रेडिंग की समर्थक लॉबी तर्क देगी कि मुनाफाखोरी कहां है?
केंद्रीय बिजली नियामक आयोग (सीईआरसी) ने ट्रेडिंग मार्जिन पर 4-7 पैसे की सीमा लगा रखी है और कुछ हफ्ते पहले उच्चतम न्यायालय ने भी सीईआरसी के फैसले को वैध ठहराया है। यह सच है, लेकिन न तो सीईआरसी की व्यवस्था और न ही अदालती फैसलों में चीजें बदलने का अधिकार है। वास्तव में सीईआरसी ने कारोबारियों के लिए कीमतों में कृत्रिम तरीकेसे इजाफा करना आसान बना दिया है।
ट्रेडिंग मार्जिन में किस तरह नाटकीय बढ़ोतरी हुई है, यह जानने के लिए उड़ीसा का अध्ययन करना सही हो सकता है। उड़ीसा सरकार की ट्रेडिंग कंपनी ग्रिडको सरकारी स्वामित्व वाले संयंत्र या निजी संयंत्र से बिजली खरीदती है और इसकी कीमत 1.5 से 2 रुपये प्रति यूनिट के बीच कुछ भी हो सकती है।
ग्रिडको इसे अन्य ट्रेडिंग कंपनी (उदाहरण के तौर पर पावर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन) को उड़ीसा की सीमा के भीतर पांच रुपये प्रति यूनिट पर बेच देती है। इसके बदले पीटीसी इस बिजली को उड़ीसा की सीमा से बाहर ले जाती है और फिर इसकी बिक्री कर देती है।
मान लिया जाए कि वह राजस्थान बिजली बोर्ड को यह 5.04 रुपये प्रति यूनिट पर बेच देती है। चूंकि सीईआरसी का दिशा-निर्देश उसी लेनदेन पर लागू होता है जो अंतरराज्यीय हो न कि उस पर जो राज्य के भीतर हो। कानून को धोखा देने का यह आसान रास्ता है।
समस्या यह है कि (यही वजह है कि सीईआरसी को अपने दिशा-निर्देशों की समीक्षा करने की दरकार है) बिजली अधिनियम के तहत बनाया गया मूल नियम एक ट्रेडर को दूसरे ट्रेडर के हाथ बिजली बेचने पर पाबंदी लगाता है (ऐसे में ग्रिडको पीटीसी को बिजली नहीं बेच सकती)। अंतरराज्यीज व राज्य के बाहर के मसलों के बावजूद सीईआरसी अगर चाहता तो वह पीटीसी को ग्रिडको से बिजली खरीदने से रोक सकता था।
एक बार सीईआरसी ने ऐसी बिक्री की अनुमति देने की खातिर कानून में बदलाव किया था, लेकिन अब यह ऐसा नहीं कर सकता है। साथ ही, ऐसे कई अदालती फैसले हैं जो बताते हैं कि अगर बिक्री राज्य के भीतर होती है, लेकिन इसका मकसद अंतरराज्यीय उपभोग से है तो फिर इसे अंतरराज्यीज लेनदेन ही माना जाएगा। गेंद फिर सीईआरसी के पाले में है - वह बिजली क्षेत्र को धराशायी होने से रोक सकता है या फिर उसे इसी हालत में छोड़ सकता है।
|