मुद्रास्फीति को लेकर इन दिनों जो हल्ला हो रहा है, उसके साथ दिक्कत यह है कि यह तथ्यों के बजाय धारणाओं पर आधारित लगती है।
महंगाई के मुद्दे पर मीडिया बहुत मुखर है और ऐसा लगता है कि वह दो धारणाओं पर काम कर रहा है। पहली यह कि पूरी दुनिया में खाद्यान्न की कीमतों में अप्रत्याशित उछाल आया है, जो सही बात भी है।
दूसरी यह कि वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न की ऊंची कीमतों के चलते देश में भी महंगाई दर आठ प्रतिशत के आसपास पहुंच चुकी है। यह किसी भी तरीके से पूरी तरह सही नहीं है। चूंकि हर सप्ताह आने वाले मुद्रास्फीति के आंकड़े जिस भी लिहाज से महत्वपूर्ण हों, हमारी औद्योगिक, निर्यात और मौद्रिक नीति को नियंत्रित करने लगते हैं।
वे हमें क्या बताते हैं, उन्हें समझना महत्वपूर्ण है। 19 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह के 2 मई को जारी आंकड़ों पर नजर डालते हैं। उस सप्ताह औसत मुद्रास्फीति दर 7.57 प्रतिशत दर्ज की गई। संयोग से 26 अप्रैल वाले सप्ताह के ताजातरीन आंकड़े भी बताते हैं कि प्राथमिक वस्तुओं (खाद्यान्न) की कीमतों में तेजी का रुख जारी है।
प्राथमिक वस्तुओं की इस सूची में चावल जैसी वस्तुएं शामिल हैं और वार्षिक आधार पर इनकी कीमतों में 5.14 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। दूसरी ओर इस्पात वर्ग में शामिल वस्तुओं में 35.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। यदि मुद्रास्फीति के दायरे से लोहे और स्टील की वस्तुओं को निकाल दिया जाए तो मुद्रास्फीति की दर गिरकर 6.3 प्रतिशत पर पहुंच जाएगी।
मुद्रास्फीति को बढ़ाने में योगदान देने वाले अन्य बड़े कारण क्या हैं? कृषि उत्पाद मूल्यों पर कीमतों का दवाब है पर गैर खाद्य वस्तुओं जैसे तिलहन और कपास से भी जुड़े हैं। 19 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह में गैर खाद्य-प्राथमिक वस्तुओं की मुद्रास्फीति 11.2 प्रतिशत थी।
यदि हम चार अहम वस्तुओं लोहा और इस्पात, खाद्य तेल, कपास और तिलहन को इससे हटा लें तो उस सप्ताह में मुद्रास्फीति की दर गिरकर 5.8 प्रतिशत रह जाएगी। हालांकि इसमें एक और बात महत्वपूर्ण है वह यह कि ये कीमतें थोक बाजार की हैं न कि खुदरा बाजार की।
अगर खुदरा मार्जिन में उतार-चढ़ाव आता है तो जरूरी नहीं कि थोक मूल्यों का उतार-चढ़ाव खुदरा कीमतों के उतार-चढ़ाव में भी झलके। लिहाजा, थोक मूल्य के मुद्रास्फीति आंकड़े और घरेलू खर्च में बदलाव के बीच संबंध खोजने की कोशिश बेकार ही होगी।
और अधिक आंकड़े देने के बजाय मैं आपको उभरते पैटर्न के नतीजे बताता हूं। पहली बात तो यह कि मैं वैश्विक खाद्यान्न संकट को कमतर आंकने की कोशिश नहीं कर रहा। यह महत्त्वपूर्ण है कि तेज महंगाई के इस दौर में खाने-पीने की चीजों की वस्तुओं की कीमतों ने दोयम भूमिका निभाई है। इसलिए, मौजूदा महंगाई को खाद्य सुरक्षा की बहस तक सीमित रखना न्यायसंगत नहीं होगा।
दूसरी बात यह कि यदि लोहे तथा इस्पात की कीमतों से महंगाई सबसे ज्यादा बढ़ी है तो इस्पात निर्माताओं द्वारा कीमतों में कटौती के फैसले से मुद्रास्फीति पर दवाब घटने की संभावना है। मैं इस बात की तह में नहीं जाना चाहता कि कीमतें घटने से इन कंपनियों पर क्या फर्क पड़ने वाला है। वैसे मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं, उनको जल्द ही लागू करना चाहिए तभी यह सार्थक सिद्ध हो पाएंगे।
तीसरी बात यह है कि उन वस्तुओं की सूची बनाई जाए जिनकी कीमतों में सबसे ज्यादा तेजी आई है। इसके बाद यह देखना चाहिए कि इन वस्तुओं का आयात अधिक होता या फिर निर्यात। यह तिकड़म इसलिए है कि इन वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय कीमतों से तुलना की जा सके। इसको समझने के लिए किसी वैज्ञानिक फॉर्मूले की जरूरत नहीं है कि मुद्रा की कीमत में बढ़ोतरी ने भी कीमतों को प्रभावित किया है।
केंद्रीय बैंक के लिए यह एक अच्छा विचार हो सकता है कि रुपये की कीमतों में गिरावट के बाद वह कुछ कदम उठाए। यह तब तक ही कारगर होगा जब तक मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए सरकार भविष्य में भी कीमतों को काबू में करने की रणनीति पर काम करती रहेगी। तेल की बेतहाशा बढ़ती कीमतों के चलते प्रारंभिक दबाव से निपटने में मुश्किल आ सकती है।
दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय कीमतों के नीचे आने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है। इससे निपटने का एक ही रास्ता है कि तेल पर दी जाने वाली सब्सिडी को सीमित कर देना चाहिए और तेल की कीमतों मे मुद्रास्फीति को रुपये के जरिये नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए। कीमतों को एक स्तर पर रोकने और सब्सिडी पर होने वाला उत्पादन इसका स्थायी हल नहीं है।
सब्सिडी का आखिरकार ऑयल बांड्स के जरिये भुगतान करना होता है जो बढ़ता ही जा रहा है। इसकी वजह से कहीं न कहीं विकास जरूर प्रभावित होगा। अब कुछ अच्छी खबर का रुख करते हैं। साल दर साल(वर्तमान कीमतों का पिछले साल इसी दौरान की कीमतों के साथ तुलना करने पर ) होने वाले थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति के आंकड़े कहने की बजाय बहुत कुछ छुपाते भी हैं।
मुझे इस सप्ताह की कीमतों की पिछले सप्ताह की कीमतों के साथ तुलना कहीं ज्यादा मुनासिब लगता है। कुछ हफ्तों से मुद्रास्फीति दर मापन की दर कम हुई है। दूसरी ओर औसत मूल्य सूचकांक का स्तर बढ़ने पर है और बढ़ोतरी दर कम हुई है।
अगर यही रुझान चलता रहा तो अगले कुछ हफ्तों में मूल्य सूचकांक एक स्तर से ऊपर जा सकता है और बाद में नीचे का रुख कर सकता है। इससे परंपरागत साल दर साल मुद्रास्फीति को कम करने में भी मदद मिलेगी। वैसे मई के आखिर तक साल दर साल वाला मुद्रास्फीति का आंकड़ा 7 प्रतिशत तक हो सकता है।
आखिर में मैं समझता हूं कि मुद्रास्फीति के जो आंकड़े साप्ताहिक तौर पर आते हैं अगर मासिक आधार पर आएं तो ज्यादा बेहतर होगा। दुनिया भर में मुद्रास्फीति के आंकड़े महीने में जारी होते हैं और अपने देश में इसे हर हफ्ते जारी करने की कोई खास वजह मुझे नजर नहीं आती। साप्ताहिक आंकड़ों से वित्तीय बाजारों खासकर बांड बाजार में अनिश्चितता की स्थिति बनी रहती है। हफ्ते दर हफ्ते जारी होने वाले आंकड़ों में गलतियों की भी संभावनाएं ज्यादा बनी रहती हैं।
आंकड़ो को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जितना भी संभव हो सके इसमें घरेलू वस्तुओं की कीमतों में आए वास्तविक परिवर्तन को शामिल किया जाए। हां, इसमें एक और बात की जा सकती है वह यह कि इसे आसानी से समझने लायक बनाया जाए। साथ ही महीने दर महीने होने वाले परिवर्तनों पर खास ध्यान दिया जाए।