बंगाल में बुद्धिजीवियों का तीसरा मंच | देवज्योत घोषाल और ईशिता आयान दत्त / कोलकाता February 12, 2010 | | | | |
कुछ दिन पहले गृह मंत्री पी चिदंबरम जब राइटर्स बिल्डिंग में नक्सलवाद प्रभावित चार राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन की योजना और समीक्षा में व्यस्त थे तो इससे महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी के नेतृत्व में बंगाल के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और गृह मंत्री के पुतले फूंक रहा था।
यह खुला विरोध इस बात का प्रतीक था कि राज्य में राजनीतिक खामियां हैं। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेता ममता बनर्जी के समर्थन वाले बंगाल के ये बुद्धिजीवी अब लालगढ़ की समस्या को सुलझाए जाने को लेकर विभाजित हैं। लालगढ़ पश्चिम बंगाल का नक्सल प्रभावित आदिवासी गढ़ है।
हालांकि यह बहस का मुद्दा नहीं है कि राज्य में प्रमुख राजनीतिक पार्टियां - माकपा और टीएमसी लालगढ़ को लेकर पूरी तरह विभाजित हैं, लेकिन ममता बनर्जी के सांस्कृतिक शिविर में इस समस्या के समाधान को लेकर रोष बढ़ रहा है। बनर्जी भी अब नक्सलियों से दूरी बना रही हैं।
बंगाली बुद्धिजीवी नंदीग्राम और सिंगुर विवाद के दौरान बनर्जी के समर्थन में सामने आए थे और लोक सभा चुनावों से पहले उनका स्वर और अधिक तेज हो गया था। लेकिन अब ये बुद्धिजीवी अलग-थलग पड़ते दिख रहे हैं। टीएमसी के सांसद, गायक और पूर्व पत्रकार कबीर सुमन अब इन बुद्धिजीवियों के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं।
सुमन ने पिछले साल अपना पहला चुनाव लड़ा था। सुमन कहते हैं, 'नक्सलवाद अपनी जड़ जमा चुका है। नंदीग्राम के विपरीत प्रशासन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे लोग बंगाली नहीं हैं, वे आदिवासी हैं। ये वे लोग हैं जो अपने दम पर लड़ने के लिए तैयार हैं और उनके लिए टीएमसी स्पष्ट विकल्प नहीं है।'
उन्होंने कहा, 'कुछ बुद्धिजीवी, जो अब लाभकारी रेलवे की समितियों का हिस्सा हैं, सिंगुर में यह कह रहे हैं कि वे आंदोलन में शामिल होने के लिए नहीं आए थे बल्कि स्थिति का जायजा लेने के लिए आए। ये वे लोग हैं जो बुद्धदेव के साथ थे, लेकिन अब वे ममता बनर्जी के साथ हो गए हैं। लेकिन यहां एक तीसरी आवाज है और मैं उसका हिस्सा हूं।
माकपा नेता मोहम्मद सलीम बंगाल में बुद्धिजीवियों की महत्ता को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, 'बंगाल की राजनीति में मध्य वर्ग का दबदबा है और बुद्धिजीवी राय निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।' वामपंथी झुकाव वाले बंगाली बुद्धिजीवी आगामी लोक सभा चुनावों से पहले सीपीआई (एम) के लिए पिच बिगाड़ने की तैयारी में हैं और अब वे बनर्जी के साथ तालमेल बिठा कर आगे बढ़ रहे हैं।
एक तरह से यह कहा जा सकता है कि बुद्धिजीवियों का यह वर्ग एक स्वतंत्र तीसरे मंच के तौर पर उभर कर सामने आया है जो किसी राजनीतिक पार्टी के समर्थन पर सवार नहीं है।
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