कीमतों पर लगाम कसने के लिए जरूरी उपाय | हमने उपभोग की इच्छा को बढ़ाने पर तो जोर दिया लेकिन प्रति व्यक्ति उपलब्धता के समान स्तर पर बने रहने या उसमें गिरावट के बारे में ध्यान नहीं दिया। बता रहे हैं | | श्रीकांत संब्रानी / February 08, 2010 | | | | |
बेचारे शरद पवार! कृषि मंत्री को इन दिनों चारों तरफ से इतनी बुरी तरह घेरा जा रहा है कि वह अक्सर अपना आपा खो बैठते हैं, हालांकि उनका ऐसा व्यवहार इससे पहले कभी देखने को नहीं मिला।
दो सप्ताह पहले उन्होंने कहा कि वह कोई ज्योतिषी नहीं हैं और इस बात की भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं कि कीमतों में गिरावट की शुरुआत कब होगी। इसके बाद उन्होंने चीनी, दलहन आदि के बारे में कोरी बातें ही अधिक की हैं।
उन्होंने कहा कि अगर मौसम के बारे में गारंटी दी जा सकती हो तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। क्या होता अगर वह पहले से ही आगाह होते और उनका अनुमान सही होता? वह अकेले नहीं हैं। प्रधानमंत्री से लेकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तक एक दूसरे को दोष देने के इस खेल में शामिल हैं।
हमेशा की तरह ही इस साल पड़े सूखे का दोष इन सबके सिर फोड़ा जा रहा है- अडियल राज्य, लालची जमाखोर, पूंजीपतियों का शोषण और जाहिर तौर पर भगवान को भी नहीं छोड़ा गया है। हमारे नेता एक दूसरे को दोष देने की भूलभुलैया में खो गए हैं और इसे समझने में असफल रहे कि मौजूदा संकट तो घटित होने के लिए पहले से ही इंतजार कर रहा था और कोई भी इसे आते हुए नहीं देख सका।
अगर कोई उदार होना चाहे या फिर अधिक यथार्थवादी हो जाए तो भी वह यह नहीं मान सका कि इस लेखक सहित विश्लेषकों द्वारा मचाया जा रहा कर्कश शोर सच भी हो सकता है। पहले मौजूदा वर्ष की बात करते हैं- मैंने 5 जुलाई 2009 से लेकर 29 अगस्त 2009 के दौरान बिजनेस स्टैंडर्ड के अंग्रेजी संस्करण में पांच आलेख लिखे।
इस दौरान हालात की गंभीरता की ओर ध्यान आकर्षित किया गया और बताया गया कि हालात अनुमान से अधिक बुरे साबित हो सकते हैं और महंगाई का संकट उठ खड़ा होगा। मौसम विभाग ने पहले तो इनकार किया और बाद में सूखे की बात स्वीकार की।
प्रधानमंत्री से जोखिमपूर्ण 'सूखा' शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज किया और इसके बजाए इसे मॉनसून की कमी बताया। वित्त मंत्री ने यह कहते हुए अपने वार्ताकारों को झिड़की दी कि अगर वे लगातार सूखे की बात करते रहे तो इससे हालात में सुधार आने वाला नहीं है।
पवार ने जुलाई के अंतिम सप्ताह के दौरान कहा कि हालात मुश्किल जरूर हैं लेकिन इनमें सुधार आ रहा है, क्योंकि भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने अगस्त में सामान्य बारिश की निश्चित भविष्यवाणी की है। इस समय तक खरीफ की फसल काफी हद तक बर्बाद हो चुकी थी। आईएमडी हालात को अच्छी तरह नहीं समझ सका और इस साल मॉनसून सत्र 23 प्रतिशत की कमी के साथ खत्म हुआ।
इससे पहले 2002-03 में हमारे पिछले बुरे मॉनसून में मॉनसून में 21 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी और आजादी के बाद से 1972-73 में पड़े अब तक के सबसे बुरे सूखे में 25 प्रतिशत कमी दर्ज की गई थी।
ऐसे में इस बात को लेकर तो कोई सवाल रह ही नहीं जाता है कि हम एक भयानक विपत्ति का सामना करने जा रहे हैं, लेकिन हम लगातार मानते रहे कि रबी की पैदावार अच्छी होगी और 3 करोड़ टन के बफर स्टॉक के जरिए कमी और महंगाई की चुनौतियों का सामना कर लिया जाएगा।
रबी सत्र अभी भी आशावादी लग रहा है और भारतीय रिजर्व बैंक भी कह रहा है कि इस दौरान कृषि पैदावार में कोई कमी नहीं होने जा रही है। लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। सर्दियों में होने वाली बारिश इस बार गायब रही है, खासतौर से उत्तर-पश्चिम के प्रमुख रबी क्षेत्रों में। ठीक ऐसा ही मॉनसून के दौरान हुआ था।
रबी सत्र के दौरान मध्य जनवरी तक खाद्यान्न की बुआई में 0.6 प्रतिशत की कमी देखने को मिली, हालांकि गेहूं का रकबा अपरिवर्तित रहा है। इसके साथ ही खरीफ के दौरान धान की पैदावार में कम से कम 15 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है। यह कमी करीब 1.2 करोड़ टन है।
वर्ष 2009-10 के दौरान 23 करोड़ टन का खाद्यान्न उत्पादन पिछले दो वर्षों के समान ही है, और कमी को पूरा करने के लिए खासतौर से गेहूं की जरूरत है। सामान्य रुझानों के मुताबिक सर्दी की फसल में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है। आमतौर पर यह बढ़ोतरी गेहूं के माध्यम से होती है। गेहूं की मांग भी सबसे अधिक रहती है और खासतौर से इस साल तो रहनी ही है।
तुलनात्मक रूप से खाद्य उत्पादन 1972-73 में 10.5 करोड़ से घटकर 9.7 करोड़ टन (8 प्रतिशत) रह गया था और 2002-03 के दौरान उत्पादन 21.2 करोड़ टन से घटकर 17.4 करोड़ टन रह गया। पिछले आंकड़ों से तुलना करने पर यह सवाल उठता है कि क्या हम एक अवांछित आशावाद को फैलाने का काम नहीं कर रहे हैं।
कहानी में एक और मोड़ भी है- सूखा तो कीमतों में मौजूदा बढ़ोतरी की केवल एक वजह है। वर्ष 2002 से 2004 तक चले पिछले सूखे के दौरान खाद्य वस्तुओं की महंगाई में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत की दर से ही बढ़ोतरी हुई थी। ये आंकड़े शहरी मजदूरों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित हैं। वर्तमान में यह आंकड़ा 20 प्रतिशत के करीब जा पहुंचा है।
सच्चाई यह है कि जनवरी 2006 में नई श्रृंखला की शुरुआत होने के बाद से खाद्य वस्तुओं के सूचकांक में 180 अंकों की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2007 और 2008 में मौद्रिक सख्ती के कारण कीमतों को नियंत्रित करने में कुछ हद तक कामयाबी मिली थी, लेकिन इसमें कभी भी कमी नहीं आई। पिछले साल वैश्विक मंदी को देखते हुए यह विकल्प भी अब मुश्किल से उपलब्ध है।
वर्ष 2001 और 2009 के बीच भारत की प्रति व्यक्ति आय में 56 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान प्रति व्यक्ति आय 16,000 से बढ़कर 25,000 के स्तर तक जा पहुंची जबकि समान अवधि में आबादी 15 प्रतिशत बढ़कर 1 अरब से 1.15 अरब हो गई।
इस बात पर विचार करते हुए कि ज्यादातर भारतीयों को आज भी भरपेट भोजन नहीं मिल पता है, इन बदलावों से निश्चित रूप से आवश्यक वस्तुओं की मांग में बढ़ोतरी हुई होगी। लेकिन उत्पादन इन बदलावों के साथ मुश्किल से ही तालमेल बैठा पाया है।
इस साल गिरावट से पहले खाद्यान्न के उत्पादन में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है, 2007 तक चीनी का उत्पादन 17 प्रतिशत बढ़ा है लेकिन उसके बाद घटकर 2001 के स्तर पर आ गया है, दलहल की पैदावार जस की तस बनी हुई है, चाय का उत्पादन 8 लाख से 10 लाख टन के बीच है और कॉफी 3 लाख टन।
इन सभी वस्तुओं की कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ है। हमने उपभोग की इच्छा को बढ़ाने पर तो जोर दिया लेकिन प्रति व्यक्ति उपलब्धता के समान स्तर पर बने रहने या उसमें गिरावट के बारे में ध्यान नहीं दिया। सूखे और महंगाई के कारण बार-बार पैदा होने वाले इस संकट से हम कब और कैसे निपट सकेंगे इस बारे में सभी को विचार करना होगा।
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