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   कानून   प्रतियोगिता संबंधी कानूनों पर ध्यान देने की जरूरत
कानून

प्रतियोगिता संबंधी कानूनों पर ध्यान देने की जरूरत

adminसोमशेखर सुंदरेसन— May,05 2008 12:31 AM IST
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चुनाव का समय नजदीक आ रहा है और इंडिया शाइनिंग अभियान की तर्ज पर भारत निर्माण कार्यक्रम भी तैयार कर लिया गया है।

यहां तक कि कर्मचारी राज्य बीमा निगम जैसे सरकारी संगठन भी यह विज्ञापन प्रदर्शित कर रहे हैं। हालांकि एक मनलुभावन चुनावी बजट देने के बावजूद सरपट भागती महंगाई सरकार का सारा खेल बिगाड़ सकती है।

थोक मूल्य सूचकांक के चढ़ते पारे को नीचे लाने के लिए तमाम राजनीतिक प्रयास करते हुए सरकार जाहिर तौर पर इसके घटकों पर नजर दौड़ाएगी लेकिन कुछ वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का व्यवहार माहौल को और भयावह बना रहा है। सबसे पहले, सरकार ने कीमतें कम करने के लिए सीमेंट और इस्पात क्षेत्र से बातचीत करने जैसी नैतिक कसरत की।

फिर उसने फरियादी की भूमिका अख्तियार की और अंत में, एकाधिकार एवं अनुचित व्यापार व्यवहार आयोग (एमआरटीपीसी)  से जांच कराने की धमकी दी गई। अर्थशास्त्र का संबंध मुख्य रूप से इस बात से है कि अलग अलग परिस्थितियों में मानव व्यवहार क्या रुख अख्तियार करता है और सरकार के मुताबिक फिलहाल यह काबू में नहीं है।

इस कॉलम के जरिए मैं अर्थशास्त्र के सिध्दांतों पर भारी भाषण देने नहीं जा रहा हूं। लेकिन इससे एक बात तो तय है कि हालात से निपटने के लिए सरकार के पास कोई नियामक ढंचा नहीं है। इस मोर्चे पर सरकार बुरी तरह विफल रही है। अगर कीमतें तय करने का सरकार का फैसला उग्र भी है तब भी यह सही है।

अगर नियामक ढांचे में किसी एक विफलता की बात की जाए तो वह प्रतियोगिता को नियंत्रित करने से जुड़ा है। जब 1991 में एमआरटीपी एक्ट में संशोधन किया गया था जिसमें उन प्रावधानों को हटाने की बात कही गई थी जिसके तहत आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण के लिए सरकारी मंजूरी लेना जरूरी था। लेकिन कानून निर्माताओं ने प्रतिबंधित और अनुचित व्यापार कार्य प्रणाली से जुड़े प्रावधानों को नहीं हटाया गया।

अगर वास्तविक धरातल पर देखा जाए तो एमआरटीपीसी का कोई योगदान नजर नहीं आता। 1990 के दशक के मध्य में कॉरपोरेट जंग छेड़ने में एमआरटीपी एक्ट ने एक हथियार की तरह काम आया करता था खासकर उपभोक्ता वस्तुओं की श्रेणी में लेकिन एक समय के बाद वह भी बंद हो गया।

इस दशक की शुरुआत में एक मर्चेंट बैंकर ने मुझे एक कहानी सुनाई थी कि कैसे एक भारतीय उद्योगपति ने अधिग्रहण समझौते पर चल रही बातचीत को बीच में ही छोड़ कर विदा ली थी क्योंकि उसे एक कार्टल की बैठक में शामिल होना था। कॉम्पिटिशन एक्ट 2002 पारित कर दिया गया था लेकिन वह भी कानूनी पचड़ों में फंस गया है।

दरअसल इस कानून के प्रावधान हैं ही इतने कठोर कि इसे भारी विरोध झेलना ही था। कॉम्पिटिशन एक्ट के तहत प्रस्तावित जिन नियम कानूनों पर विवाद चल रहा है उनसे मुख्य रूप से विलय और अधिग्रहण जैसी गतिविधियां प्रभावित होंगी। इन गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले नियमों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है।

एक और बात यह है कि भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड के अधिग्रहण संबंधी कानूनों के साथ इनका जो पारस्परिक प्रभाव है वह भी काफी जटिल है। लेकिन कीमतें निर्धारित करने और कार्टलाइजेशन से जुड़े प्रावधानों पर ऐसा कोई वाद विवाद नहीं हो रहा है। यह पूरी तरह से सही है कि इतने सालों में भी सरकार कार्टलों को पहचान कर उन्हें खत्म नहीं कर पाई है। यह नियामक ढांचे की असफलता है।

व्यवस्था में इनसे निपटने के तरीकों पर काम ही नहीं किया गया है। मामलों को निपटाने में न्यायपालिका की गति किसी से छिपी नहीं है और इसी वजह से निजी स्तर पर कोई भी प्रयास नहीं कि ए जाते। नतीजतन प्रतियोगिता विरोधी गतिविधियों पर लगाम रखने वाले कानूनों का कोई अस्तित्व नहीं पनप सका।

अब ऐसे में अगर बढ़ती महंगाई को देखते हुए मंत्री इसे जड़ से उखाड़ने और एमआरटीपीसी से जांच कराने जैसी धमकी देते हैं तब भी शायद ही कोई ऐसा नियामक उपाय होगा जिसके जरिए सरकार को ताकीद किया जा सके या फिर कोई कानूनी दांव पेंच लगाया जा सके।

जब जब सरकारें बदलती हैं और शेयर सूचकांक गिरता है तो सेबी जांच करता है कार्रवाई करता है और संसद को अपनी रिपोर्ट भेजता है। लेकिन बिना किसी आधार के उठाए गए कदमों की वजह से अक्सर नियामकों को शर्मिंदगी उठानी पड़ती है, जब न्यायालय में चुनौती दी जाती है। यह भी एक मुश्किल समय है क्योंकि नियामकों की शक्ति का अहसास कराने के लिए जांचर्क त्ता बाजार व्यवस्था पर जबरदस्त वार कर सकते हैं।

प्रतिभूति बाजार को नियंत्रित करने वाले नियम पहले ही कई उदाहरण पेश कर चुके हैं। प्रतियोगिता को नियंत्रित करने वाले कायदे कानून उसे ठीक करने में पूरी तरह सक्षम हैं लेकिन एक गलत कानूनी कार्रवाई प्रतियोगिता कानूनों और उनकी विश्वसनीयता के लिए नुकसानदायक हो सकती है। साथ ही उसका कोई नतीजा भी नहीं होगा। इस वक्त सरकार की हालत उस बच्चे जैसी है जिसने इम्तिहान की रात से पहले कुछ नहीं पढ़ा।

लेखक जेएसए , एडवोकेट ऐंड सॉलिसिटर्स में पार्टनर हैं। लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं।

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