जलवायु परिवर्तन में कारोबारी मौके तलाश रही हैं कंपनियां | अनसुनी आवाज | | श्रीलता मेनन / January 04, 2010 | | | | |
जलवायु का मुद्दा ज्यादा से ज्यादा कंपनियों के एजेंडे में आखिर क्यों दिखाई देने लगा है?
क्या इसकी वजह यह है कि वे इस बात से डरती हैं कि जलवायु परिवर्तन ग्रह को नुकसान पहुंचाएगा? या फिर वे इस बात से डरी हुई हैं कि यह उनके कारोबार को नुकसान पहुंचाएगा? या इसकी वजह यह है कि हरित बनने की प्रक्रिया में उन्हें सोने की सुगंध आ रही है?
कार्बन डिस्क्लोजर प्रोजेक्ट (सीडीपी) का प्रस्ताव, दुनिया भर में मौजूद ज्यादा से ज्यादा कंपनियों को अपने ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन की रिपोर्ट देने को कहता है। यह एक गैर-लाभकारी प्रयास है। इस प्रोजेक्ट के प्रवर्तक दूसरी जगहों की तरह भारत में भी इस बात को महसूस कर रहे हैं कि यह आखिरी दो कारकों का मिश्रण है जो कंपनियों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि कारोबार के लिए वे साफ-सुथरे तरीके की खोज करें।
भारतीय कंपनियों पर ताजा सीडीपी रिपोर्ट के मुताबिक, 44 कंपनियों ने अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के आंकड़ों का खुलासा करने पर सहमति जताई थी। इन कंपनियों में से 84 फीसदी ने जलवायु संकट को मौके के तौर पर देखा जबकि सिर्फ 34 फीसदी कंपनियां इसे खतरे के रूप में देखती है।
इस परियोजना के मुख्य परिचालन अधिकारी पॉल सिम्पसन का कहना है कि यह सकारात्मक संकेत है। उन्होंने स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन पर कदम उठाने के पीछे कंपनी का मुख्य मकसद रकम कमाना है। उन्होंने कहा कि ये खराब चीजें नहीं हैं। अगर रकम कमाने के चक्कर में ही सकारात्मक कदम उठाए जाएं तो ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? और अगर सकारात्मक कदमों से रकम बनती है तो ऐसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए?
हालांकि इस साल प्रत्युत्तर देने वालों की संख्या कम हो गई। एक ओर जहां साल 2008 में सीडीपी में 51 कंपनियों ने भागीदारी की थी वहीं साल 2009 में इसकी संख्या घटकर 44 पर आ गई। लेकिन अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का खुलासा करने वाली कंपनियों की संख्या दोगुनी होकर 63 फीसदी (24 कंपनियां) पर आ गई है।
साल 2008 में ऐसा खुलासा करने वाली कंपनियों का प्रतिशत 33 था (कुल 17 कंपनियां)। लेकिन सच्चाई यह है कि ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के खुलासे में कुल 68.9 मिलियन यानी 6.89 करोड़ टन का पता चला है, जो कि पिछले दो साल के आंकड़ों के मुकाबले करीब-करीब दोगुनी है।
साल 2008 के मुकाबले प्रत्युत्तर देने वाले ज्यादा लोग अपने स्कोप-1 व स्कोप-2 उत्सर्जन की निगरानी कर रहे हैं। सीडीपी6 (2008) में जहां स्कोप-2 के तहत 0.4 एमटी उत्सर्जन की खबर थी वहीं साल 2009 में यह 10 गुना बढ़कर 4 एमटी पर जा पहुंचा।
रिपोर्ट बताती है कि यह स्पष्ट तौर पर भारतीय कंपनियों द्वारा अपनी ग्रीनहाउस गैस फुटप्रिंट की निगरानी की बाबत बेहतर क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि निगरानी की व्यापकता में सुधार हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऊर्जा पर जोर देने वाली इकाइयों द्वारा अनिवार्य तौर पर ऊर्जा खपत के खुलासे ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
सिम्पसन के मुताबिक प्रत्युत्तर देने वालों की संख्या में कमी का कारण आर्थिक मंदी है। इसके साथ ही उनका कहना है कि भागीदारी में इजाफा हो रहा है। जैसी गुणवत्ता वाले आंकड़ों की जरूरत है उसमें कंपनियों द्वारा मुहैया कराए जाने वाले आंकड़ों के मुकाबले और विस्तार की आवश्यकता है।
जो भी दावे किए जाते हैं उसके सत्यापन का अभाव है, लिहाजा इस पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। सिम्पसन का कहना है कि परियोजना में कुल 475 निवेशक हैं, लिहाजा इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बड़े वित्तीय संस्थान और कंपनियां अपने निवेशकों से झूठ नहीं बोल सकती। कंपनी कुछ भी दावा कर सकती है, लेकिन सीडीपी इसका सत्यापन करने की कोशिश नहीं करता।
रिपोर्ट इस सच्चाई को भी सामने रखता है कि बड़ी संख्या में कंपनियां जलवायु परिवर्तन को मौके के तौर पर देख रही है और इसमें से ज्यादा से ज्यादा अपने हक में करने की कोशिश कर रही है। रिपोर्टिंग व माप के लिए कंपनियां ज्यादा सही तरीके अपना रही हैं और यहां तक कि अपने ग्रीन हाउस उत्सर्जन में आई कमी भी बता रहे हैं। जलवायु अब विंडो-ड्रेसिंग नहीं रह गया है।
यह कारोबार है। इसलिए भारत की ज्यादा कंपनियों ने उत्सर्जन में कमी लाने की योजना सामने रखी है। यह ऐसी चीजें हैं जो किसी कानून व नियम के तहत आवश्यक नहीं है। सिंपसन का कहना है कि प्रत्युत्तर देने वालों में से 68 फीसदी के पास उत्सर्जन की योजना है।
पिछले साल कुल 61 फीसदी कंपनियों के पास ही ऐसी योजना थी। ऐसे में क्या इसका कोई मतलब बनता है जब जलवायु के साथ सब कुछ ठीक नहीं हो रहा हो?
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