तकरीबन एक साल या कुछ और पहले शेयर बाजार अपने उफान पर था। निवेशक भारतीय बाजारों में सस्ता डॉलर उड़ेल रहे थे, रुपया मजबूत हो रहा था, रीयल एस्टेट पीछे मुड़कर देखने को तैयार नहीं था।
यानी सारी चीजें पटरी पर रफ्तार से दौड़ रही थीं। हालांकि उम्मीद के मुताबिक, सरकार इस दौरान बाकी सारी चीजों से बेखबर सिर्फ अपनी सत्ता बचाने में जुटी थी। सरकार अर्थव्यवस्था को नियमों की जकड़ से मुक्त करने की दिशा के प्रति बिल्कुल उदासीन हो गई थी। मुझे लग रहा था कि हम लोग ढांचागत सुधार से महरूम विकास की दिशा में आगे बढ़ रहे थे।
मैं उस वक्त 'क्या संकट हमारा दरवाजा खठखटाने को तैयार है?' शीर्षक से लेख लिखने की भी सोच रहा था। लेकिन अर्थव्यवस्था 9 फीसदी की दर से आगे बढ़ रही थी और इसके मद्देनजर मैं संकट के बादलों की फुसफुसाहट भी नहीं सुन सका।
कहा जाता है कि इतनी अहम बातों को कहने में काफी सावधानी बरतनी चाहिए। हालांकि, मैं जिस संकट के बारे में कहने जा रहा था, हो सकता है कि महंगाई दर की वर्तमान समस्या उसी का नतीजा हो।
भारत में मुद्रास्फीति के प्रबंधन का महत्व मुझे कई वर्षों पहले काफी विचित्र और हैरानी भरे अंदाज में देखने को मिला। यह 1986 या 87 की बात रही होगी। मैं हाल में अमेरिका से वापस लौटा था और इस बात को समझने की कोशिश कर रहा था कि भारत में चीजें कैसे काम करती हैं। और अव्वल मैं उस वक्त अकेला था।
एक दिन शाम को मैं बांद्रा स्थित अपने पसंदीदा बार में गया। यह एक छोटी-सी जगह थी, जहां खुली हवा का आनंद उठाया जा सकता था। शायद यह किसी ईरानी का रहा होगा, जिसने पहले बीयर के लिए लाइसेंस प्राप्त किया होगा और बाद में शराब के लिए भी। मुझे यह जगह काफी अच्छी लगती थी और मैं अक्सर यहां आया करता था।
एक दिन शाम को मैं इस बार में बैठकर रम और सोडा पी रहा था। मैनें मुश्किल से दूसरा ही पैग लिया होगा कि सामने से कुछ अफ्रीकी लड़कियों को गुजरते हुए देखा। यह 20 साल पहले की बात है, जब मुंबई में बहुत सारी अफ्रीकी लड़कियों को देखा जाना कोई आम बात नहीं थी। खासकर उतनी खूबसूरत लड़कियों का देखा जाना तो बिल्कुल नहीं, जितनी ये लड़कियां थीं।
इनमें से एक तो बहुत ही खूबसूरत थी और उसे देखकर मैं हैरान रह गया। ये लड़कियां मेरे पीछे स्थित टेबल पर बैठ गईं। इसके मद्देनजर उन्हें देखने के लिए मुझे उठकर सामने वाली बेंच की तरफ बैठना पड़ा। मैंने एक और ड्रिंक का ऑर्डर किया और सोचने लगा कि कैसे इनके बारे में जानकारी प्राप्त की जाए।
ये लड़कियां एक-दूसरे से बात करने में व्यस्त थीं। इसे देखते हुए मैं उठा और उनके पास पहुंच गया। उनकी टेबल के पास पहुंचकर मैंने पूछा, 'माफ कीजिए, क्या आप लोग स्विट्जरलैंड से हैं?' यह सवाल सुनकर लड़कियों ने हैरानी से मेरी तरफ देखा, क्योंकि वे पूरी तरह काली थीं। बहरहाल मैं भी उनके पास बैठ गया।
इसके बाद छूटते हुए उन लड़कियों में से एक ने कहा, 'भारत में लंबे अर्से से ब्याज दरों को जबरन काफी कम रखा गया है।' मैं हैरान रह गया। दरअसल ये लड़कियां अर्थशास्त्र की छात्राएं थीं और इम्तिहान देने के बाद यहां पहुंची थीं। इनका मानना था कि आजादी के बाद कुछ साल तक कम ब्याज दरों का होना भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं रहा, क्योंकि कृत्रिम रूप से ब्याज दरों को कम किए जाने का मतलब है कृत्रिम रूप से ऊंची मुद्रास्फीति।
मेरा मानना है कि औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए ऐसा किया गया। मुद्रास्फीति के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं रह सकता है और गरीब लोगों पर इसकी मार और तेज होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो गरीब लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली नीतियां गैरजरूरी दबाव में आखिरकार हमारी सबसे बड़ी ताकत साबित हुईं।
मुझे समझ मे नहीं आ रहा था कि इन बातों पर किस तरह से प्रतिक्रिया जताई जाए, लेकिन कुल मिलाकर हमारा वक्त काफी अच्छे से गुजर गया। नबंवर 2004 के बाद से कीमतें काफी तेजी से बढ़ रही हैं और उसी वक्त से यह घटना बार-बार मेरा ध्यान आकर्षित करती है। मेरी राय में अफ्रीकी लड़कियों की बात बिल्कुल सही थी। किसी भी गरीब मुल्क में महंगाई पर नियंत्रण काफी अहम होता है।
हालांकि वर्तमान स्थिति काफी मुश्किल भरी है, क्योंकि महंगाई बढ़ने की बड़ी वजह दुनिया भर में खाद्य पदार्थों और ऊर्जा संसाधनों की कीमतों में तेजी से हो रही बढ़ोतरी है। पिछले 6 महीने में इनकी कीमतों में 50 फीसदी से भी ज्यादा का उछाल देखने को मिला है।
रिजर्व बैंक का इस पर पूरी तरह से बस नहीं है। ब्याज दरों से छेड़छाड़ नहीं किए जाने के मामले में रिजर्व बैंक को शत-प्रतिशत अंक दिए जाने चाहिए। हालांकि यह बात जरूर है कि नीतिगत संबंधी बयान में 5.5 फीसदी मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय किया गया है और इसे जल्द से जल्द 5 फीसदी तक लाने की कोशिश करने की बात कही गई है।शायद रिजर्व बैंक को यह बात पता हो कि वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकता, इसके बावजूद वह इस मुश्किल से खुद को उबारने में सक्षम होगा।
ऐसे में जरूरत डिरेग्युलेशन ( नियमों में ढील देना) की प्रक्रिया को तेज करने की है। अगर हमारा मुद्रा बाजार काफी तरल हो तो मुद्रास्फीति की इस स्थिति में भी ब्याज दरें कम से कम 1.50 फीसदी कम हो जाएंगी। इससे भी अहम बात यह है कि अगर कृषि की उपज बढ़ाने पर तवज्जो दी जाए तो खाद्य पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकेगा।
शायद वैश्विक स्तर पर भी ऐसा होना मुमकिन होगा। खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल के मामले में भारत का स्थान दुनिया में दूसरा है। इसके बावजूद यहां पैदावार सबसे कम है, जो अमेरिका का 10 फीसदी है।
इसके मद्देनजर भूमि सुधार, बेहतर कृषि तकनीकों को लागू करने और फूड सप्लाई चेन इन्फ्रास्ट्रक्टर को मजबूत बनाने की दिशा में काम किए जाने की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे नीति निर्माता इन सब चीजों से बेपरवाह नजर आते हैं। अगर हमें 10 फीसदी विकास दर का लक्ष्य हासिल करना है, तो महंगाई की आग को बुझाना ही पड़ेगा।