बनाइए नए राज्य पर रहे ध्यान इतना... | भारत के प्रमुख महानगरों को संघ शासित क्षेत्र बना देना चाहिए। ऐसे में राज्यों के पुनर्गठन के मसले से प्रमुख महानगरीय केंद्रों के भविष्य का सवाल अलग हो जाएगा। बता रहे हैं | | संजय बारू / December 21, 2009 | | | | |
बीते दिनों केंद्र सरकार ने तेलंगाना के बारे में एक ऐसा बयान दिया जिसे सुनियोजित ढंग से तैयार नहीं किया गया था। इसके बाद भारतीय राज्यों के पुनर्गठन की मांग को लेकर आंदोलन अप्रत्याशित रूप से तेज हो गया।
सरकार का यह बयान के आने से ठीक एक सप्ताह पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शहरी विकास के लिए राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान गर्व के साथ कहा था कि शहरी पुनरुद्धार पर उनकी सरकार की पहल शहरी भारत की तस्वीर बदलने में कामयाब होगी।
प्रधानमंत्री ने कहा कि 'आज इस बात को माना जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनरुद्धार मिशन (जेएनएनयूआरएम) ने शहरी क्षेत्र के प्रति नजरिए में आमूल-चूल बदलाव किया है।' उन्होंने कहा कि यह बदलाव राज्यों के स्तर पर हुआ है और शहरों के स्तर पर भी।
प्रधानमंत्री ने जेएनएयूआरएम के तहत शहरी भूमि हदबंदी को खत्म करना, किराया नियंत्रण कानून में सुधार और सामुदायिक भागीदारी तथा सार्वजनिक खुलासा कानून को पारित करने जैसी पहलों को 'आमूल-चूल' बदलाव और 'तस्वीर-बदलने' वाला बताया।
नगरीय सुधार, नगरीय वित्त में सुधार, साफ सफाई और जल आपूर्ति, सार्वजनिक परिवहन जैसी बुनियादी ढांचागत सुविधा में निवेश पर जोर देते हुए डा. सिंह ने कहा कि शहरी विकास को लेकर केंद्र की भारी प्रतिबद्धता को देखते हुए इस मान्यता को बल मिलता है कि शहरी क्षेत्र का संतुलित विकास हमारी समेकित विकास की रणनीति का अहम हिस्सा है।
शहरी विकास पर नए सिरे से ध्यान इस तथ्य को देखते हुए भी दिया जा रहा है क्योंकि भारत की करीब 40 प्रतिशत आबादी शहरी केंद्रों में रहती है और लोकसभा के कुल 542 सदस्यों में से 74 सदस्य पूरी तरह से शहरी निर्वाचन क्षेत्रों से चुनकर आते हैं। एक मुखर शहरी मध्य वर्ग बेहतर शहरों की मांग करता है।
निवेश तथा उच्च शिक्षा सहित आजीविका के अवसरों के लिए भारतीय शहरों की प्रतिस्पर्धा एशिया के शहरी केंद्रों के साथ लगातार बढ़ती जा रही है। शहरी ढांचागत सुविधाओं की बात करें तो एशिया के तेजी से बढ़ते शहर भारतीय शहरों को पीछे छोड़ रहे हैं। करीब पांच दशक पहले मुंबई जैसे शहर सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग और शांघाई जैसे शहरों का मुकाबला करते थे तथा क्वालालंपुर, जकार्ता और यहां तक कि सोल से काफी आगे थे।
आज एशिया की प्रमुख राजधानियों और कारोबारी केंद्रों के साथ भारत के किसी भी शहर की तुलना किसी भी मानक पर नहीं की जा सकती है। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की 2005 में मुंबई यात्रा को लेकर एक कहानी है। उन्हें बताया गया कि मुंबई भारत का शांघाई है। इसके बाद अपने झरोखे से बाहर देखते हुए परेशान वेन ने अपने एक साथी से कहा कि क्या ये ही मुंबई है और उन्होंने आश्चर्य से कहा कि 'वे इसे भारत का शांघाई क्यों कहते हैं?'
माफी चाहूंगा, लेकिन हमारे बेहतरीन शहर भारत की राजनीतिक, आर्थिक और राजकोषीय प्राथमिकताओं पर कई तरह की टीका-टिप्पणी करते हैं। हालांकि, हाल के वर्षों के दौरान इस सोच को बल मिला है कि हमें बदलाव लाना होगा। शहर महत्त्वपूर्ण हैं और शहरी विकास का रोजगार सृजन तथा आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
यद्यपि भारत के ज्यादातर राजनीतिक दल आज भी शहरों के विकास को राजनीतिक नफा-नुकसान के चश्मे से देखते हैं। कोलकाता और मुंबई का पराभव इस बात का गवाह है कि उन राज्यों में सरकारों किस तरह से अपनी प्राथमिकताएं सही ढंग से तय नहीं कर पाईं। इसकी तुलना में नई दिल्ली का विकास हुआ है क्योंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है और उसके प्रशासन का एक बड़ा हिस्सा राज्य स्तरीय दबावों और प्राथमिकताओं से अलग है।
इसके बीच हम सभी को बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों के उदय की निश्चित रूप से तारीफ करनी चाहिए, हालांकि अगर दक्षिण एशियाई शहरों से तुलना की जाए तो उनका विकास भी सीमित दिखाई देता है। ऐसे में यह तथ्य चौंकाने वाला है कि जब तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के मसले पर चर्चा हो रही तो किसी भी राजनीतिक दल ने हैदराबाद के भविष्य से जुड़ा सवाल नहीं उठाया।
बुरी स्थिति यह है कि जब आखिरकार इस मसले को उठाया गया तो अलगाव के कुछ समर्थकों ने इसकी निंदा करते हुए कहा कि प्रॉपर्टी में किए गए निवेश को लेकर निहित स्वार्थों के कारण ऐसा किया जा रहा है। ऐसे में सवाल यह है कि जिन्होंने शहर में निवेश किया है, वे शहर को लेकर चिंतित नहीं होंगे तो कौन होंगे? क्या पर्यटक!
हमारी अर्थव्यवस्था में मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों के महत्त्व को देखते हुए भारतीय राज्यों के पुनर्गठन के लिए तैयार होने वाली किसी भी नीति में महानगरों के भविष्य से जुड़े पहलू को जरूर शामिल करना चाहिए।
भारत में सेवा क्षेत्र का तेजी से विकास और अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र के महत्त्व को देखते हुए शहरी विकास की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। भारत को शहरीकरण के लिए दोहरा नजरिया अपनाना होगा- 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के लिए अलग नीति और प्रमुख महानगरों के लिए अलग नीति। प्रमुख महानगरों का विकास सिर्फ राज्य सरकारों के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है।
इन बड़े शहरों में भौतिक ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा कर पाना राज्य सरकारों की पहुंच से बाहर है। इसके साथ ही सामाजिक बुनियादी ढांचे का निर्माण और उसका रखरखाव भी सिर्फ राज्य या स्थानीय सरकारों द्वारा नहीं किया जा सकता है। अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से बड़े शहरों का विकास सिर्फ स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराने और ऐसी ही कुछ अन्य नीतियों से नहीं होने वाला है।
पारिभाषिक रूप से कम से कम स्कूली शिक्षा के स्तर पर भारत के प्रमुख शहरों को बहुभाषी होना होगा (स्थानीय भाषा, अंग्रेजी और हिंदी)। मुंबई ऐसा शहर है, चेन्नई नहीं है। इन शहरों में गरीब और मध्य वर्ग के लिए वाजिब आवास की व्यवस्था होनी चाहिए। वहां आधुनिक समाज होना चाहिए और सांस्कृतिक गतिविधियां भी, जिसकी वैश्विक पेशेवर उम्मीद करता है।
सार यह है कि भारत के प्रमुख महानगर भले ही राज्य विशेष की राजधानी बने रहें, लेकिन उन्हें संघ शासित क्षेत्र जरूर बनाना चाहिए। दिल्ली भारत की राजधानी है और दिल्ली राज्य की राजधानी भी है, इसके साथ ही वह एक संघ शासित राज्य भी है और उसके दरवाजे देश-दुनिया के सभी नागरिकों के लिए खुले हैं।
इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए चंडीगढ़ की तरह ही मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु और हैदराबाद को संघ शासित राज्य बनाना चाहिए। ऐसे में ये शहर मौजूदा राज्य या नए राज्य या राज्यों की प्रशासनिक और राजनीतिक राजधानी बने रह सकते हैं।
ऐसे में राज्यों के पुनर्गठन के मसले से प्रमुख महानगरीय केंद्रों के भविष्य का सवाल अलग हो जाएगा। यह वह आमूल-चूल बदलाव है, जिसकी शहरी विकास के लिए जरूरत है। ताकि भारत के शहर विकास कर सकें और अपने एशियाई समकक्षों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। इस तरह एक दिन मुंबई बढ़कर शांघाई बन जाएगा और हैदराबाद, सिंगापुर को चुनौती देता हुआ दिखाई देगा।
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