भारत का अंधियारा बनाम वित्तीय क्षेत्र का उजाला | व्यक्तिगत स्तर पर हम युवाओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं कि वे धनी व शक्तिशाली लोगों के बारे में खबरों से प्रभावित न हों। क्या हैं इसके फायदे, विस्तार से बता रहे हैं | | जैमिनी भगवती / December 19, 2009 | | | | |
वर्ष 2009 अब खत्म होने ही वाला है। इसके साथ ही पश्चिमी दुनिया में वित्तीय क्षेत्र के लिए बोनस का सत्र शुरू हो रहा है।
पिछले कई महीनों के दौरान बोनस और क्षतिपूर्ति की सीमा तय करने के मसले पर काफी चर्चा हुई है, ताकि भविष्य में वित्तीय क्षेत्र में आने वाली किसी मंदी के प्रभाव को सीमित किया जा सके।
सबसे पहले ब्रिटेन ने 9 दिसंबर को 25,000 पाउंड से अधिक के बैंक बोनस पर एकमुश्त 50 प्रतिशत टैक्स की घोषणा की। संभव है कि फ्रांस भी ऐसा ही करे और अमेरिका में हुए एक जनमत संग्रह में 75 प्रतिशत प्रतिभागियों ने बोनस के खिलाफ अपना गुस्सा जताया। यूनानी सरकार ने निजी क्षेत्र के बैंकरों के लिए 90 प्रतिशत की दर से टैक्स बोनस का प्रस्ताव रखा है।
1990 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही पश्चिमी देशों में वित्तीय क्षेत्र को मिलने वाली क्षतिपूर्ति में लगातार जोरदार बढ़ोतरी होती गई है और अब यह क्षतिपूर्ति वास्तविक क्षेत्रों के मुकाबले काफी अधिक हो गई है। खबरों के मुताबिक डॉयचे बैंक के अध्यक्ष जोसेफ एकरमैन ने हाल में कहा था कि उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि स्विटजरलैंड में रहने वाले अपने डॉक्टर भाई के मुकाबले वह कितना अधिक धन कमाते हैं।
करदाताओं के धन से राहत पैकेज हासिल करने और साथ ही बड़ी मात्रा में बेरोजगारी बने रहने के कारण अनुमान है कि बोनस को लेकर एक बड़े मसले पर नाराजगी देखने को मिलेगी। लोग चाहते हैं कि सरकार क्षतिपूर्ति को दीर्घावधि के प्रदर्शन से जोड़ने के लिए कदम उठाए।
इस संदर्भ में अगर भारत की बात करें तो हमारे वित्तीय क्षेत्र में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की वेतन संरचना में बढ़ती विषमता को लेकर बहुत थोड़ी आलोचना होती है। निजी बैंकों, बीमा कंपनियों और एनबीएससी, शेयर बाजार और अमानत घर में काम कर रहे शीर्ष कार्यपालकों का कुल वेतन अब करीब 5-10 करोड़ प्रति वर्ष है।
अगर निजी क्षेत्र से तुलना की जाए तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और बीमा कंपनियों (जैसे एसबीआई और एलआईसी) में क्षतिपूर्ति का स्तर काफी कम है। अब सहमति यह बनती हुई दिखाई दे रही है कि निजी क्षेत्र को वेतन और भत्तों के बारे में फैसला करने की छूट मिलनी चाहिए। भारतीय वित्तीय फर्मों में निजी और अंतरराष्ट्रीय स्वामित्व बढ़ने के साथ ही सरकार और नियामक को अत्यधिक क्षतिपूर्ति से उपजने वाले क्रमिक जोखिमों पर भी फोकस करना होगा।
कुछ विकसित देशों में वित्तीय क्षेत्र की अत्यधिक क्षतिपूर्ति की एक वजह इस क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में युवा प्रतिभाओं को तरजीह देना है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के स्वामित्व वाले वित्तीय क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली क्षतिपूर्ति वास्तविक क्षेत्र के अधिक समरूप है। दूसरी ओर भारतीय वित्तीय बाजार और खासतौर से पूंजी बाजार के विकास के साथ ही कुछ लोग अधिक मुनाफे कमाते हुए दिख रहे हैं।
इसके अलावा दूरसंचार और खनन जैसे वास्तविक क्षेत्रों में एक बार लाइसेंस मिलने के इन क्षेत्रों में कई फायदे हैं। कुल मिलाकर हो सकता है कि हम विकास के 'रॉबर बैरन' चरण में हैं, जहां संबंधित उद्योगों पर बैंकों का दबदबा है। ठीक ऐसा ही अनुभव विकसित देशों ने 1950 में किया था। इसके फलस्वरूप मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से में फटाफट धनी बनने की आकांक्षा और इस कारण हताशा बढ़ रही है।
सीईओ के वेतन और धनी लोगों पर शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव से पड़ने वाले असर के बारे में लगातार आने वाली खबरों से इस तरह की सोच और लोगों की मन:स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। सत्यम की असफलता इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि लोगों में किसी भी सीमा तक जाकर धनी बनने की चाहत बढ़ रही है।
यह घटना कॉर्पोरेट प्रशासन में व्यवस्थागत खामियों और सत्यम के प्रायोजकों तथा वित्तीय लेखा पेशेवरों के बीच सांठगांठ को उजागर करती है, जिसमें अकादमिक और नियामक अधिकारी भी शामिल हैं। राहत की बात यह है कि सरकार ने तेजी से कार्रवाई करते हुए सत्यम को एक बार फिर पटरी पर लाने में कामयाबी हासिल की।
यह संभव है कि भारत में प्रतिभा का कुछ हद तक गलत आबंटन हुआ हो। ऐसा नहीं है कि विकास को बढ़ावा देने के लिए अत्यधिक क्षतिपूर्ति असंगत है। हालांकि, क्या तेजी से धनी बनने की चाहत भारतीय हित में है? अगर मौजूदा कारक उत्कृष्टता हासिल करने के लिए प्रेरित करते हैं तो हर व्यक्ति अधिक से अधिक धनी बनाना चाहेगा।
ऐसे में हमें अपने आप से यह सवाल करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है कि हम अभी तक एक भी यात्री विमान, उत्कृष्ट चिकित्सा उपकरण या अपने शहरों में भूमिगत मेट्रो रेल का नेटवर्क तैयार नहीं कर सके हैं। साफ है कि हमें बड़ी संख्या में अत्यधिक प्रशिक्षित विशेषज्ञों की जरूरत है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के लिए हमें तकनीकी क्षेत्रों में रोजगार को अधिक आकर्षक बनाना होगा।
क्या भारतीय मध्य वर्ग विकासपरक उद्देश्यों को लेकर संतुष्ट है। उदाहरण के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति? मुझे एक भारतीय डॉक्टर के बारे में याद है, जिसने दिल्ली के बाहरी इलाकों में गरीब मरीजों के इलाज के लिए काफी काम किया। भारत में हमारी 25 प्रतिशत आबादी कुपोषणजनित बीमारियों का शिकार है।
एक अलग घटना के तहत कुछ सप्ताह पहले बीबीसी के एक वृत्तचित्र में भारत में पोलियो की स्थिति के बारे में बताया गया। भारत पोलिया प्रभावित चार देशों में शामिल है। अन्य देश अफगानिस्तान, नाइजीरिया और पाकिस्तान हैं। इस दौरान कैमरा द्वारा कैद किए गए दृश्य में शहरी मलिन बस्तियों को दिखाया जा रहा है। एक वयस्क महिला चूल्हे पर खाना पका रही है और कुपोषित बच्चे उसके करीब बैठे हैं।
सितंबर 2009 को समाप्त तिमाही के दौरान 7.9 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने और वित्त वर्ष 2010-2011 के दौरान 8 प्रतिशत की विकास दर दर्ज करने के अनुमानों के बीच इस तरह की रिपोर्ट हमें परेशान करती है।
संक्षेप में कहें तो हमें यह पता करना होगा कि वास्तविक क्षेत्र और तकनीकी तथा इंजीनियरिंग क्षेत्र में उत्कृष्टता के विकास की ओर हमारे मध्य वर्ग के युवाओं और आम लोगों का ध्यान कैसे खींचा जाए। कम से कम हमें मिलकर काम करना होगा ताकि नीति-निर्माता वर्ग 'वास्तविक' मुद्दों पर तेजी से प्रगति के लिए काम करे।
सड़क, सार्वजनिक स्वास्थ्य, बिजली और साक्षरता जैसे क्षेत्रों में काम करना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर हम युवाओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं कि वे धनी और शक्तिशाली लोगों के बारे में खबरों से प्रभावित न हों। नव वर्ष के लिए हमारा संकल्प यह हो सकता है कि ऐसे भारतीयों के लिए काम किया जाए जिनकी अगले दशक में भी वित्तीय बाजार तक थोड़ी ही पहुंच कायम हो सकेगी।
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