जल आपूर्ति के अर्थशास्त्र को समझना है जरूरी | पानी और गंदगी निस्तारण के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना होगा, जहां शहरी भारत में गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों को सब्सिडी दी जाती है। बता रही हैं | | सुनीता नारायण / November 09, 2009 | | | | |
भारत अपने शहरों में पेयजल की आपूर्ति कैसे करेगा?
कई लोग दलील देंगे कि असली समस्या पानी की कमी नहीं है बल्कि इसका मुख्य कारण यह है कि शहरों में ढांचागत सुविधाओं का विकास करने के लिए पर्याप्त निवेश की कमी है और अगर बुनियादी ढांचा तैयार कर भी लिया जाए तो उसके परिचालन के लिए प्रबंधकीय क्षमताओं की कमी है।
ऐसे में वैचारिक रूप से नीतिगत सुधारों को बढ़ावा मिलता है ताकि निजी निवेश को आमंत्रित किया जा सके और सार्वजनिक जल सुविधाओं को परिचालन के लिए निजी कंपनियों को सौंपा जा सके। इसके परिणाम स्वरूप जल-प्रबंधन के क्षेत्र में सार्वजनिक निजी भागीदारी मूलमंत्र बन गया है।
समस्या यह है कि लगाना बहुत कुछ पड़ता है, जबकि पता काफी कम चलता है। भारत (और इसी तरह के दूसरे देशों) में पानी और सीवेज के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में कोई जानकारी नहीं हासिल है।
ऐसे में यह महज एक अनुमान है कि अगर पानी की कीमत का सही ढंग से निर्धारण किया जाए, जिसे पानी की पूरी लागत के नाम से जाना जाता है, तो इससे जल क्षेत्र में निजी क्षेत्र द्वारा निवेश को बढ़ावा मिलेगा और विकसित देशों के बड़े हिस्सों में जिस जल संकट का सामना किया जा रहा है, उसका समाधान मुहैया कराया जा सकता है।
भारत में नगरीय जल सुधार 24 घंटे जल आपूर्ति के लिए विश्व बैंक द्वारा समर्थित योजना का पर्याय बनकर रह गया है। इस योजना का मकसद पानी के पाइप में सीवेज पाइप से लीकेज को कम करना है ताकि गंदे और प्रदूषित पानी से फैलने वाली बीमारियों और महामारी को रोका जा सके।
24 घंटे पानी वितरण योजना के तहत सरकार शहरी जल वितरण के एक हिस्से का काम निजी ठेकेदार को सौंप सकती है। इसके पीछे की मुख्य सोच यह है कि ठेकेदार जल वितरण के दौरान होने वाले घाटे को कम कर सकेगा। मौजूदा अनुमानों के मुताबिक यह हमारी शहरी जल आपूर्ति का 40 से 50 प्रतिशत तक है।
यह तर्क पूरी तरह से सही है लेकिन ऐसे में इस बात को भुला दिया जाता है कि प्रणाली की लागत वहनीय होनी चाहिए ताकि यह टिकाऊ साबित हो सके। भारत में, कुछ नगर पालिकाओं में ही पानी और सीवेज खातों का रखरखाव किया जाता है। हमारे हाल के शोध, जिसके तहत शहर-स्तरीय आंकड़ों को जुटाया गया, से ऐसे पैटर्नों का पता चलता है, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
शोध के तहत 72 शहरों का सर्वेक्षण किया गया और लगभग सभी शहर अपने खातों को संतुलित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और असफल हो रहे हैं। एक खर्च जो उन्हें खत्म करने पर तुला है, वह है बिजली का खर्च। काफी दूरी से पानी को पंप के जरिए शहर तक लाना और उसके बाद प्रत्येक घर में पानी पहुंचाना। इतना ही नहीं गंदे पानी को घर ने वापस सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र तक पहुंचाना।
उदाहरण के लिए भुवनेश्वर में महानदी से पानी लाया जाता है, जो शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर है, और कुल लागत का 56 प्रतिशत हिस्सा बिजली पर ही खर्च हो जाता है। पुणे ने जल वितरण नेटवर्क तैयार करने के लिए काफी निवेश किया है और इस समय वह अपने लोगों तक प्रतिदिन 80 करोड़ लीटर पानी पहुंचाने के लिए हर साल करीब 25 करोड़ रुपये खर्च करता है।
यह बात तो साफ है कि जब भी कोई शहर पानी के नए स्रोत की खोज में निकलता है तो इस बात पर शायद ही विचार किया जाता है कि इसकी लागत क्या होगी। योजना को एक ढांचागत परियोजना के रूप में बेचा जाता है। लागत का भुगतान पूंजीगत व्यय के रूप में किया जाता है। लेकिन इस बात पर विचार नहीं किया जाता हे कि परियोजना और पाइपलाइन या नहर की लंबाई शहर की वित्तीय स्थिति को किस तरह प्रभावित करेगी।
वास्तव में अगर शहर हर महीने पानी चढ़ाने के लिए बिजली पर भारी खर्च करता रहा तो आखिरकर इसका असर किस रूप में दिखाई देगा। इस बात पर भी विचार नहीं किया जाता है कि बिजली पर अधिक से अधिक खर्च करने वाला शहर पाइपलाइन की मरम्मत और रखरखाव का खर्च किस तरह उठाएगा।
और अगर वह इस खर्च को उठाने में सक्षम नहीं हो सका तो क्या वह सभी तक पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकेगा? दूसरे शब्दों में क्या वह सभी को सब्सिडी दे सकेगा? यह तो समस्या का केवल आधा पक्ष ही है। बाकी आधा हिस्सा पानी का नहीं बल्कि पानी से तैयार हुई गंदगी के निस्तारण की है। एजेंसी को गंदे पानी को वापस ले जाने की लागत भी उठानी होगी।
पानी की आपूर्ति बढ़ने के साथ ही गंदे पानी का निकास भी बढ़ेगा। ऐसे में इसका शोधन करने की लागत भी बढ़ेगी। लेकिन कहानी अभी भी पूरी नहीं हुई है। अगर एजेंसी सीवेज निस्तारण प्रणाली का खर्च उठाने में सक्षम नहीं हो पाती है तो यह कचरा और अधिक पानी को प्रदूषित करेगा- फिर चाहें यह निचले हिस्सों का जल भंडार हो या फिर शहर का अपना ही भूजल।
प्रदूषण की लागत से जल अर्थव्यवस्था और भी मुश्किल हो गई है। उदाहरण के लिए अगरा, दिल्ली और मथुरा के निचले हिस्से में स्थित है। अब उसे पानी के एक और स्रोत की जरुरत है- उसे कब तक साफ रखा जा सकेगा, यह भी एक सवाल है। सच्चाई यह है कि कोई भी नगर पालिका अर्थशास्त्र के उस मंत्र की मदद लिए बगैर ऐसा नहीं कर सकती है जो कहता है कि पूरी लागत वसूलने के लिए कीमतों को बढ़ा दीजिए।
वास्तव में, वे आपूर्ति पर खर्च करते हैं और जैसे लागत बढ़ती है, उन्हें या तो सब्सिडी बढ़ानी पड़ती है या फिर आपूर्ति को घटा दिया जाता है। औसतन भारतीय शहरों में प्रति किलो लीटर 2 से 3 रुपये तक का शुल्क लिया जाता हैं, जबकि लागत 8 से 10 रुपये प्रति किलो लीटर तक बैठती है। और अगर वितरण हानि को इसमें जोड़ लिया जाए तो लागत बढ़कर 10 से 14 रुपये प्रति लीटर तक हो जाती है।
अगर इसमें निस्तारण की लागत को भी जोड़ लिया जाए तो बिल बढ़कर मोटेतौर पर जल आपूर्ति का पांच गुना हो जाता है। ऐसे में एक परिवार जो 2 या 3 रुपये प्रति किलो लीटर का भुगतान करता है, उसे 40 से 50 रुपये प्रति किलो लीटर तक का भुगतान करना पड़ेगा। ऐसा कैसे संभव होगा? जवाब यह है कि आपको पानी और गंदगी के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना होगा, जहां शहरी भारत में गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों को सब्सिडी दी जाती है।
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