मखाने की खेती से किसान काट रहे मलाई | राजीव कुमार / October 04, 2009 | | | | |
दरभंगा जिले में मनीगाछी पंचायत के मखाना किसान नुनु झा अब चार एकड़ में फैले तालाब के मालिक हैं। तीन-चार साल पहले तक वे किराए पर तालाब लेकर मखाने की खेती करते थे।
मधुबनी के पखनौर प्रखंड के किसान रामस्वरूप मुखिया ने तो तीन साल पहले खेती का काम छोड़ दिया था। अब वे साल में 3-4 टन मखाना उगाते हैं और अमीर किसानों में शुमार हो चुके हैं। यह सब बिहार के आठ जिलों में उगाए जाने वाले मखाने की महिमा है।
नकदी फसल होने के नाते किसानों को इसका तत्काल भुगतान मिलता है और हर साल इसकी खेती से जुड़ने वाले किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। देश ही नहीं, विदेश में भी मखाने की मुस्कान फैलती जा रही है। इस ईद के मौके पर पाकिस्तान में 100 टन मखाने का निर्यात किया गया।
मखाने की बढ़ती पैठ का अंदाजा इसी बात से लगता है कि छह साल पहले लगभग 1000 किसान इसकी खेती करते थे। अब इनकी संख्या बढ़कर करीब 8400 हो गयी है। बीते छह सालों में उत्पादन 4-5 हजार टन से बढ़कर 25-30 हजार टन हो चला है। उत्पादकता 250 किलोग्राम प्रति एकड़ से बढ़कर 400 किलोग्राम प्रति एकड़ हो चुकी है।
तो किसानों को मिलने वाली कीमत 40 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 120 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर पर पहुंच चुकी है। मखाने की खरीदारी के लिए बिहार में कुल 40 केंद्र खुल चुके हैं। किसानों का भुगतान पूर्ण रूप से बैंक के माध्यम से हो रहा है ताकि आने वाले समय में उन्हें कर्ज लेने में आसानी हो। हर तरफ से बढ़ोतरी की पुष्टि।
अब तो मखाने की ब्रांडिंग तक शुरू हो चुकी है और बिहार में मखाने की खेती को 'व्हाइट बॉल रिवोल्यूशन' का नाम दिया गया है। शक्ति सुधा मखाना के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सत्यजीत सिंह कहते हैं, 'वर्ष 2012 तक हमारा उत्पादन लक्ष्य 1 लाख 20 हजार टन का है। फिलहाल हम मांग के मुताबिक मखाने की आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। बिहार में तो कुल उत्पादन का 5 फीसदी मखाना भी नहीं रहता। मखाना तो बिहार के बाहर से पैसा लाने का काम कर रहा है।'
मखाने की मांग दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र में सबसे अधिक है। इसके अलावा खाड़ी के देशों के साथ पाकिस्तान एवं बांग्लादेश भी मखाने का निर्यात किया जा रहा है। कारोबारियों के मुताबिक मखाने की खुदरा कीमत कम होने पर इसकी मांग 250 फीसदी से अधिक हो सकती है। अभी दिल्ली में 300 रुपये प्रति किलोग्राम तो मुंबई में 400 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से मखाने की बिक्री होती है।
भाव अधिक होने से मखाना अभी आम लोगों के उपभोग से नहीं जुड़ पाया है। सिंह दावा करते हैं, 'हमने पहली बार बिहार में मखाने की ग्रेडिंग की और इसके प्रसंस्करण के लिए मशीन लगाई। और हम 50 ग्राम से लेकर 5 किलोग्राम तक मखाने की पैकिंग करते हैं।'
मखाना कारोबारियों के मुताबिक अब सरकार भी इसकी खेती को लेकर काफी सजग है। पहले सरकार किसानों को पानी वाली जमीन मात्र 11 महीनों के लीज पर देती थी, लेकिन अब मखाने की खेती के लिए सरकार सात साल के लिए पानी वाली जमीन को लीज पर दे रही है।
मखाने की खेती की सबसे बड़ी खासियत इसकी लागत का कम होना है। इसकी खेती के लिए सिर्फ दो फुट पानी की जरूरत होती है। किसी भी प्रकार की खाद का इस्तेमाल इसकी खेती में नहीं की जाती। सिंह बताते हैं कि अब तक साल में सिर्फ एक बार मखाने की खेती होती है, लेकिन दरभंगा एवं मधुबनी इलाके में साल में दो बार इसकी फसल उगाने के लिए जर्मनी के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर रिसर्च का काम चल रहा है।
कुल उत्पादन का 40 फीसदी मखाना इन दो जिलों में होता है। मखाने की खेती दिसंबर से लेकर जुलाई के दौरान की जाती है। बिहार में सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, सुपौल, समस्तीपुर एवं फार्बिशगंज में भी मखाने की खेती बड़े पैमाने पर शुरू हो चुकी है। विश्व भर में मखाने का 90 फीसदी उत्पादन बिहार में होता है। जापान, चीन एवं बांग्लादेश में काफी नगण्य मात्रा में मखाने की खेती की जाती है।
लेकिन मखाने के कारोबारियों के सामने मार्केटिंग की समस्या अब भी मुंह बाए खड़ी है। किसान एवं कारोबारी बताते हैं कि मखाने की मांग अभी देश भर में नहीं हो रही। यह पौष्टिक है, पूर्ण रूप से जैविक है और इसके बहुइस्तेमाल है। फिर भी अभी आम लोग इसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं।
कारोबारी मानते हैं कि इसकी कीमत अधिक होने के कारण इसकी मांग उम्मीद के अनुरूप नहीं बढ़ रही है। मखाना खाने का प्रचलन भी अधिक नहीं है। दक्षिण भारत तो बिल्कुल अछूता है। हालांकि बिहार के किसान एवं कारोबारी इस प्रयास में लगे हैं कि इसके उत्पादन को बढ़ाकर इसकी कीमत कम की जाए ताकि मखाने की पहुंच आम घर तक बन सके।
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