सूरज की किरणों से लिखा जाएगा सुनहरा भविष्य | भारतीय सौर ऊर्जा विभाग ने साल 2020 तक सौर बिजली क्षमता को बढ़ाकर 20 हजार मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। पर यह लक्ष्य हकीकत के कितने करीब है। बता रहे हैं | | नितिन देसाई / August 20, 2009 | | | | |
सरकार ने सौर ऊर्जा विभाग के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना का खुलासा करते हुए कहा है कि 2020 तक सौर बिजली क्षमता को बढ़ाकर 20,000 मेगावॉट करने का लक्ष्य तय किया गया है।
इस योजना का उद्देश्य 2020 तक सौर ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ाना है, जो काफी सस्ती है। लेकिन यह लक्ष्य कितना वास्तविक है? इस समय सौर फोटोवोल्टिक्स से तैयार होने वाली बिजली की औसत कीमत करीब 15 रुपये प्रति किलो वॉट घंटा (केडब्ल्यूएच) है जबकि कोयला आधारित बिजली की लागत करीब 4 रुपये प्रति केडब्ल्यूएच बैठती है।
कीमत का यह अंतर दो वजहों से कम होता जाएगा। पहली, सौर बिजली की कीमत में कमी होगा। एक अनुमान के मुताबिक सौर पैनल से तैयार बिजली की कीमत 2020 तक 150 रुपये प्रति वॉट से घटकर 30 रुपये प्रति वॉट हो जाएगी।
अंतर के कम होने की दूसरी वजह यह है कि जैव ईंधन की कमी के कारण इसकी कीमत बढ़ती जाएगी। बाद के वर्षों में ऊर्जा सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं इतनी बढ़ जाएंगी कि इस कार्यक्रम को सही ठहराने की पर्याप्त वजहें होंगी।
अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए जूझ रहे दुनिया के दो प्रमुख देश, चीन और भारत काफी तेजी से विकास कर रहे हैं। इन देशों में शहरीकरण काफी तेजी से हो रहा है। इस कारण वैश्विक स्तर पर कोयला, तेल और गैस की मांग काफी बढ़ गई है।
भारत का उदाहरण लीजिए। एकीकृत ऊर्जा नीति के मुताबिक वर्ष 2030 तक आयातित तेल पर भारत की निर्भरता 90 प्रतिशत बढ़ जाएगी। अगर कोयले का प्रभुत्व बना रहा तो कोयले की मांग 2030 तक बढ़कर एक अरब टन से अधिक हो जाएगी। इसमें से 45 प्रतिशत कोयले का आयात किया जाएगा।
ऊपरी सतह से कोयले का खनन हो जाने के बाद अधिक मुश्किल हालात और अधिक गहराई में कोयले का खनन करना होगा। इसके साथ ही पर्यावरणीय और सुरक्षा मानकों के सख्त हो जाने के कारण कोयले की घरेलू आपूर्ति भी काफी महंगी हो जाएगी। ज्यादातर कोयला भंडार संरक्षित वन क्षेत्रों में हैं और उनका खनन आसान नहीं होगा।
भारत के मुकाबले चीन में ये आंकड़े कहीं अधिक बड़े होंगे। प्रतिदिन 1.5 करोड़ बैरल अतिरिक्त तेल और 80 करोड़ टन आयातित कोयले की मांग होगी। इस कारण कीमतों में तेजी से इजाफा होने की पूरी संभावना है।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं के दबावों के कारण अगर ऑस्ट्रेलिया से कोयले की आपूर्ति बाधित होती है या खाड़ी देशों में अनिश्चितता बढ़ती है तो कोयला, तेल और गैस कीमतों में भारी इजाफा होगा। निष्कर्ष यह है कि जैव ईंधन आधारित बिजली की कीमत 2020 तक बढ़कर 4 रुपये प्रति केडब्ल्यूएच से अधिक हो जाएगी।
हमारे सामने एक ऐसी ऊर्जा आपूर्ति प्रणाली तैयार करने की चुनौती है जो जैव ईंधन से जुड़ी कीमत और आपूर्ति संबंधी चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम हो। इस संकट के कारण न सिर्फ भारत या चीन में बल्कि दुनिया भर में गैर-जैविक ईंधन के लिए एक बहुत बड़ा बाजार तैयार होगा।
कुछ अर्थों में हालात वैसे ही हैं जैसे 1973 के अंत से तेल कीमतों में आई बढ़ोतरी के बाद जापान के कार निर्यात में भारी वृद्धि हुई थी। जापानी विनिर्माताओं ने छोटी कारों के लिए कम ईंधन की खपत वाली प्रौद्योगिकी पर ऐसे समय में निवेश किया जबकि तेल की कीमत 2 डॉलर प्रति बैरल से कम थी।
जापानी उद्यमियों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे उनकी आयात पर निर्भरता अधिक थी और ऐसे में जापान में छोटी कार तैयार करना मुनाफे का सौदा था। जब तेल संकट आया तो उनके पास एक ऐसा उत्पाद था, जिसकी मांग पूरी दुनिया में थी।
जापानी कारों के निर्यात में तेजी से बढ़ोतरी हुई और कारों का निर्यात 1973 और 1977 के बीच बढ़कर दोगुना हो गया। कारों का निर्यात 1986 में अपने चरम पर था। सौर प्रौद्योगिकी के साथ भी हालात कुछ ऐसे ही हैं।
चीन और भारत की मांग से अगर जैव ईंधन की कीमत बढ़ती रही और आपूर्ति पक्ष पर संकट बना रहा तो इससे सभी प्रभावित होंगे और ऐसे में जो कोई वैकल्पिक ऊर्जा प्रौद्योगिकी से लैस होगा, उसे प्रतिस्पर्धी बढ़त मिल जाएगी। हमारे सामने इनोवेशन के लिए एक प्रभावी माहौल तैयार करने और सौर तथा अन्य गैर-जैविक ईंधन के विकल्पों में निवेश करने की चुनौती है।
यह निवेश अगले एक दशक या उसके आगे तब तक करना होगा जबकि कीमतों का संकट पैदा होगा। भारतीय उद्योग इन चुनौतियों के लिए तैयार है। पहले और अभी के हमारे प्रयासों में एक बड़ा अंतर यह है कि सौर प्रौद्योगिकी में अब निजी क्षेत्र की रुचि भी बढ़ गई है। यह सही है कि इनमें से ज्यादा कोशिश सीमित मूल्यवर्धन के साथ आयातित प्रौद्योगिकी पर आधारित है।
लेकिन सौर प्रौद्योगिकी के लिए तैयार किया जा रहा बिजनेस मॉडल कुछ तो महत्त्व रखता ही है। इनोवेशन को बढ़ावा देने वाले माहौल के तीन घटक हैं- प्रौद्योगिकी, उद्यमशीलता और वित्त। शुरुआत में इन तीनों को आधिकारिक समर्थन की जरूरत है।
ऊर्जा इनोवेशन के लिए माहौल तैयार करने के लिए जरूरी है कि शोध के क्षेत्र में सरकारी निवेश किया जाए, क्योंकि इसका फायदा काफी देर से मिलेगा। जिन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, वे हैं- सोलर पैनल और फिल्म की कीमत को कम करना, व्यावहारिक सौर ताप बिजली का विकास, लोड फैक्टर में सुधार के लिए ऊर्जा भंडारण की लागत को कम करना, सौर ऊर्जा का सीधे तौर पर इस्तेमाल को बढ़ावा देना, इन आपूर्ति स्रोतों का ग्रिड के साथ एकीकरण।
लेकिन इस बड़े अवसर के लिए खुद को तैयार करने के लिए हमें प्रौद्योगिकी के विकास के अलावा भी काफी कुछ करना होगा। हमें ऐसी वाणिज्यिक परियोजनाओं पर काम करना होगा ताकि 2020 तक हम 20,000 मेगावॉट बिजली की आपूर्ति मुनाफे के साथ कर सकें। इसके लिए कुछ नीतिगत उपायों की जरूरत होगी।
हमें इन उपायों की जरूरत इसलिए है क्योंकि सौर तथा पवन बिजली जैसे अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के सामने सिर्फ प्रति यूनिट लागत को कम करने की चुनौती ही नहीं है, बल्कि स्थापित ऊर्जा आपूर्ति प्रणाली के साथ इनका एकीकरण भी करना होगा। एकीकरण का काम अधिक चुनौतीपूर्ण है।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से स्मार्ट ग्रिड तैयार कर ऐसा किया जा सकता है, ताकि बिजली की मांग का प्रबंधन किया जा सके। विकेंद्रित बिजली उत्पादन के वितरण को सरल बनाना होगा और पावर ग्रिड को केंद्र नियंत्रित नेवटर्क की बजाय एक सहयोगी नेटवर्क बनाना होगा। इससे तस्वीर पूरी तरह से बदल सकती है।
हो सकता है कि ग्रिड के एकाधिकार वाली भूमिका घटाई जाए जैसा कि मोबाइल दूरसंचार ने लैंडलाइन के एकाधिकार के मामले में किया था। हमें खासतौर से पावर ग्रिड के प्रबंधन के संबंध में नियामक सुधारों की जरूरत है। इस लेख में अभी तक 'जलवायु परिवर्तन' वाक्यांश का इस्तेमाल नहीं किया गया है।
सौर ऊर्जा और दूसरे गैर-जैविक ऊर्जा स्रोतों के बारे में आमतौर पर लागत और आपूर्ति क्षमता के लिहाज से ही विचार किया जाता है लेकिन मौसम को लेकर बढ़ते डर के बीच ऊर्जा के ये वैकल्पिक स्रोत तय कार्बन कोटा में काम चलाने के लिए देशों और कंपनियों की मदद कर सकते हैं। ऐसा करके कार्बन कर को बचाया जा सकता है। सौर ऊर्जा को अपनाने की जरूरत है और जो लोग इस बात को मानेंगे उनका भविष्य सुनहरा है।
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