न्यायिक तौर पर यह प्रमाणित हो चुका है कि वित्तीय कानून में परिभाषाएं कृत्रिम हो सकती हैं। पर कोई कृत्रिम चीज परिभाषित कैसे की जा सकती है?
पर क्या यह इतनी कृत्रिम हो सकती है कि कहा जा सके कि इसका परिभाषा से कोई बंधन या जुड़ाव नहीं है? तो इसका जवाब न में होगा। देश की सर्वोच्च अदालत ने व्यावसायिक कर अधिकारी बनाम राजस्थान टैक्सकेम(मुकदमा संख्या-2007,209 ईएलटी 165 एससी) मामले में विनिर्माण की अवधारणा पर विचार करते हुए ऐसी व्यवस्था दी है।
उसने कहा है कि ईंधन को कच्चे माल की परिभाषा में सिर्फ इसलिए नहीं शामिल किया जा सकता कि यह कच्चे सामानों की समग्र सूची में आता है। बल्कि इससे पॉलिएस्टर के धागे बनते हैं,इसलिए इसे कच्चे सामानों की सूची के तहत रखा जाता है।
ईंधन को परोक्ष कच्चा माल साबित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने काफी लंबी बहस चलायी है। उसने यह नहीं माना कि इसे इसलिए कच्चा माल कहा गया जाता है कि यह पहले से ही कच्चे माल की सूची में शामिल है। उसके इस फैसले से यह प्रमाणित होता है कि किसी सामान की कृत्रिम परिभाषा उस सामान की बुनियादी परिभाषा से बहुत ज्यादा अलग नहीं हो सकती। जहां तक इनके बीच संबंध की बात है यह इसलिए न्यायसंगत भी है।
ऊपर उल्लिखित मामले के संदर्भ में मैंने सोचा कि इस आलेख में बजट 2008-09 में सेवा की संकल्पना के मद्देनजर मनीचेंजर के क्रियाकलाप की सभी कृत्रिम परिभाषाओं पर विचार किया जाए।
बजट में निम्न चीजें की गई हैं: करयोग्य विशिष्ट सेवा के कार्यक्षेत्र में संशोधन किया गया है ताकि बैंकिंग और दूसरी वित्तीय सेवाओं के तहत किसी अधिकृत डीलर या मनीचेंजर मनीचेंजिंग सहित विदेशी मुद्रा की बिक्री और खरीदारी कर सके।
अब ऊपर के संशोधन की वैधानिकता को लेकर दो सवाल मेरे जेहन में उठ रहे हैं। पहला कि क्या मनी चेंजिंग सहित विदेशी मुद्रा की खरीद या बिक्री का काम एक सेवा(सर्विस)है या नहीं। इस क्रियाकलाप की गहरी व्याख्या करने पर पाया कि यह विदेशी मुद्रा से किया जाने वाला एक प्रकार की खरीद और बिक्री ही है।
मनीचेंजर एक मध्यस्थ है जो कमीशन या दलाली लेकर विदेशी मुद्रा की खरीद या बिक्री करता है। उसका माल पर अपना अधिकार होता है। पहले वह बैंक से इसकी खरीद करता है और फिर कुछ निश्चित फायदा लेकर इसे अपने ग्राहकों को बेचता है। या दूसरों को मुनाफा देकर इसकी खरीद करता है।
इस तरह यह किसी चीज को रखने और फिर इसे बेचने और खरीदने का क्रियाकलाप है। यह कोई सेवा नहीं है जिसे मनीचेंजर उपलब्ध कराता है बल्कि यह एक व्यावसायिक गतिविधि है। कारोबार और सेवा के बीच के इस फर्क को स्पष्टता से समझना बहुत ही जरूरी है।
उदाहरण के लिए, यदि आप पेंटर हैं और अपने पोट्रेट की पेटिंग करने में मशरूफ हैं। दिन की समाप्ति तक आप उस पेटिंग को पूरा कर लेते हैं। इसके लिए आपने अपने कौशल और मेहनत का निवेश किया है जिसका फल यह पेंटिग है। यह काम जो है वह एक सेवा(सर्विस) है। पर यदि कोई उस पेंटर के स्टूडियो जाकर उस पेंटिंग की खरीद करता है तो उसे लेन-देन कहा जाएगा।
बिक्री के मामले में, कोई सामान खरीदार को बेचने से पहले बिक्रेता की ही संपत्ति होती है। लेकिन सेवा के मामले में सुविधा और सेवा मुहैया कराना ही माल है। यदि मनी चेंजर के कारोबारी क्रियाकलाप को सेवा के रूप में परिभाषित किया जाए तो वैट और सेवा कर समान चीज ही होंगे। यह चीज एक हास्यास्पद स्थिति को पैदा करेगी।
दूसरी बात यह है कि चाहे कोई चीज कानूनी विधान के जरिए सेवा क्यों न करार दे दिया जाए वह इससे सेवा(सर्विस)नहीं हो जाती। सर्वोच्च न्यायालय के दिए गए प्रावधान जिसे ऊपर उल्लिखित किया जा चुका है, से एक चीज तो स्पष्ट हो जाती है कि वह चीज जिसे परिभाषित किया जा रहा है और जो परिभाषा है, उसमें समानताएं होती हैं।
यानि इनमें एक संबंध होता है। इस तरह जाहिर होता है कि कारोबार और सेवा दोनों बहुत ही अलग चीज हैं। इसलिए, कोई वजह नहीं कि कारोबार को सेवा की तरह समझा जाए। लब्बोलुबाब यह कि यह संशोधन सैद्धान्तिक तौर पर तो गलत है पर वैधानिक तौर पर मान्य है।