एक साल तक चलने वाला यह कोई सामान्य आयोजन नहीं होगा। यह आगामी आम चुनाव के लिए मोदी के अभियान की बेहतरीन बुनियाद रखेगा बीते दिनों इंडोनेशिया के बाली में जी-20 समूह का भव्य आयोजन हुआ। एजेंडे के बजाय यह उससे इतर झलकियों के कारण ज्यादा सुर्खियों में रहा। जैसे कि ट्रूडो और शी के बीच कहासुनी का मसला। इसी दौरान इंडोनेशिया के जोको विडोडो ने भारत के नरेंद्र मोदी को जी-20 के नेतृत्व की मशाल सौंपी। इसके साथ ही भारत के लिए वैदेशिक मामलों में साल भर के लिए ऐसा मंच सज गया, जैसा पहले कभी नहीं सजा। माहौल बनाने में महारत रखने वाले नेता के नेतृत्व में भारत दुनिया के उस हिस्से की मेजबानी करने जा रहा है, जिसकी वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 80 प्रतिशत हिस्सेदारी और विश्व व्यापार में 75 प्रतिशत भागीदारी है। एलके आडवाणी ने एक बार मोदी को शानदार इवेंट मैनेजर बताते हुए शाबाशी दी थी, जिसकी कीमत वह तभी से चुका रहे हैं। हर साल उनका जन्मदिन उस आयोजन का पड़ाव बन जाता है, जब मोदी उनके पास पहुंचते हैं और कैमरा उनकी वैसी तस्वीर उतार लेता है, जैसी वह चाहते हैं। बहरहाल, एक साल तक चलने वाला यह कोई सामान्य आयोजन नहीं होगा। यह आगामी आम चुनाव के लिए मोदी के अभियान की बेहतरीन बुनियाद रखेगा। इस दौरान दुनिया के दिग्गज नेताओं का भारत में जमावड़ा होगा और वे उसके नेता की तारीफों के पुल बांधते हुए दिखेंगे। इस सिलसिले में सैकड़ों बैठकें होंगी, जिनकी परिणति शिखर सम्मेलन के रूप में होगी। बैठकें देश के कई शहरों में आयोजित की जाएंगी। गलहबियां होंगी, हंसी-ठहाके लगेंगे और 'विश्वगुरु' की चकाचौंध भरी पैकेजिंग होगी। यह चुनावी अभियान में बड़े करीने से गुंथा हुआ है। फिर भी, घरेलू राजनीतिक पहलुओं को किनारे रखकर ही हम इसकी महत्ता समझ पाएंगे कि अंतरराष्ट्रीय मामलों के लिहाज से यह भारत के लिए कितना बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण अवसर है। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया करीब 25 वर्षों तक एकध्रुवीय बनी रही। फिर उभरते चीन ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। कतिपय कारणों से अमेरिकी शक्ति में ह्रास की धारणा भी बनी। पहले बराक ओबामा के ‘लीडिंग फ्रॉम बिहाइंड’ और फिर ट्रंप के भूमंडलीकरण से कदम पीछे खींचना और अंत में बाइडन के दौर में मानमर्दन के साथ अफगानिस्तान से बाहर निकलना इसी धारणा को बल देता। यदि वैश्विक परिदृश्य 2022 की शुरुआत जैसा ही कायम रहता तो जी-20 में उतना जोशोखरोश नहीं दिखता, जितना आज देखने को मिला। चलिए, कुछ नाटकीय परिवर्तनों पर दृष्टि डालते हैं। अमेरिकी शक्ति में निरंतर गिरावट तो दूर उसने अपनी वापसी की है। उसकी शक्ति फिर से बढ़ रही है। महंगाई और अन्य चुनौतियों से जूझने के बावजूद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत शेष विकसित विश्व की अर्थव्यवस्था से कहीं बेहतर और उसकी स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। अक्सर लड़खड़ाने वाले उसके नेता ने मध्यावधि चुनावों में हैरतअंगेज प्रदर्शन किया है। और तालिबान के हाथों कबीलाई अलगाववाद की लड़ाई हारने के बाद एक वास्तविक लड़ाई जीती है। वहीं, यूक्रेन मामले में शत्रु रूस एक कालातीत महाशक्ति है और नई आकांक्षी महाशक्ति चीन का सबसे मूल्यवान सहयोगी भी। महत्त्वपूर्ण यह है कि बिना किसी सैन्य तैनाती के ही अमेरिका की जीत हो रही है। संभव है कि यही वास्तव में उसकी जीत की वजह हो। जरा अमेरिका या किसी अन्य महाबली देश के अपनी सरजमीं से बाहर लड़े गए युद्ध का इतिहास उठाकर देख लीजिए। जब उसने किसी और की लड़ाई के लिए अपनी सेनाएं भेजी हैं, तब उसे हार का मुंह देखना पड़ा। वियतनाम, इराक से लेकर अफगानिस्तान में दूसरा दांव इसके उदाहरण हैं। भारत अपने बगल में स्थित श्रीलंका की सैन्य अनियमितताओं से हार गया। अमेरिका अफगानिस्तान में पहली दफा इसीलिए जीता, क्योंकि स्थानीय लोगों ने लड़ाई लड़ी और यूक्रेन में भी वैसी ही स्थिति है। जीत का सेहरा तभी आपके सिर बंध सकता है, जब उन लोगों में अपने देश के लिए लड़ाई की इच्छाशक्ति हो, जिनका आप समर्थन कर रहे हों। यही कारण है कि भारत ने बांग्लादेश को 13 दिनों में ही मुक्ति दिला दी। वहीं पश्चिमी शक्तियों द्वारा दिए गए हथियारों के दम पर जेलेंस्की के यूक्रेनियों ने बाइडन और अमेरिका के माथे से काबुल का कलंक मिटा दिया। रूस सैन्य, कूटनीतिक और राजनीतिक सभी मोर्चों पर मात खा रहा है। हालांकि, भारत में पुतिन को मिले व्यापक समर्थन पर मैं सोचने पर विवश हूं। इसके पीछे सोवियत से जुड़ाव वाली पुरानी यादों और रूस को पूर्ववर्ती सोवियत संघ का नया अवतार मानने की स्वयंभू धारणा और इस लड़ाई में वही सही, जैसे पहलुओं की भूमिका है। मगर नौ महीने की लड़ाई के बाद आप अपने से पिद्दी भर आकार वाले शत्रु के साथ पूरे 800 किलोमीटर के मोर्चे से पीछे हट रहे हैं तो समझिए कि यह मुश्किल का पड़ाव है। आप परास्त हो रहे हैं। रूस की जो चाहे आंतरिक राजनीति हो, लेकिन इससे रूस और पुतिन बहुत कमजोर होकर निकलेंगे। यह भारत के लिए बहुत अच्छा होगा, क्योंकि रूस चीन का सहयोगी बनने के साथ ही पाकिस्तान के साथ भी पींगे बढ़ा रहा है, वहीं भारत भी अपने रणनीतिक विकल्पों को विस्तार देने में लगा है। हथियारों के मोर्चे पर संस्थागत बदलाव की शुरुआत करीब पांच साल पहले हो गई और जो अब अपरिवर्तनीय है। हालांकि, पुरानी हथियार प्रणाली की विरासत काफी व्यापक है तो परिवर्तन की रफ्तार कुछ धीमी है। भारत में हम लोग उन दूरस्थ युद्धों में भी, जिनके परिणाम को प्रभावित करने की हमारी कोई क्षमता नहीं, में भी दार्शनिक, नैतिक और बड़े मजेदार रूप में पराजित पक्ष की ओर झुकाव रखते हैं। प्रथम अफगान जिहाद में हम चाहते थे कि सोवियत जीते, लेकिन वे हार गए। दूसरी लड़ाई में हम अमेरिकियों के लिए उत्साहित थे और वे भी हार गए। अब मुखर सार्वजनिक जनमत, मीडिया, विदेश नीति से जुड़ी टिप्पणियों एवं सामरिक बिरादरी में यह विश्वास है कि रूसी अपराजेय हैं। निःसंदेह, उन्होंने अभी तक सबसे मारक और बेहतरीन हथियार इस्तेमाल नहीं किए हैं। यकीनन, वे जीत जाएंगे। मगर सच्चाई यही है कि अंत में हम एक बार फिर पराजित के साथ खड़े दिखेंगे। हमारे लिए तात्कालिक जोखिम तो यही होगा कि हम नासमझ दिखेंगे, जबकि चीनी इसे अलग तरह से देखते हैं। पुतिन की भारी भूल ने चीन की बढ़ती ताकत को तगड़ा झटका दिया है। एक सहयोगी और सस्ते ऊर्जा स्रोतों के स्थायी आपूर्तिकर्ता के रूप में उसे रूस की जरूरत है। कमजोर एवं परास्त रूस चीन के गुब्बारे की हवा निकालेगा। इससे बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव को करारा झटका लगेगा। बार-बार की परमाणु धमकियां भी शर्मिंदा करने वाली हैं। समग्रता में देखें तो उत्तर कोरिया, पाकिस्तान और रूस जैसे चीन के करीबी सामरिक साझेदार ही दुनिया के उन देशों में शुमार हैं, जो परमाणु धमकियों की शेखी बघारते हैं। हर जगह इस पर भारी नाराजगी है। पांच साल पहले तक यही व्यावहारिक समझ बन रही थी कि तेजी से उभरता चीन 2030 तक कमजोर पड़ते अमेरिका की जगह ले लेगा। यह समझ समय की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। आज चीन आर्थिक वृद्धि के लिए संघर्ष कर रहा है। उसकी कामकाजी आबादी घट रही है। वृद्धि रुक गई है। कर्ज का बोझ गंभीर स्तर पर है। बिग टेक-फिनटेक क्षेत्र गहरे संकट में है। यह परिदृश्य इस तथ्य से और बदरंग हो गया है कि शी चिनफिंग अपनी सबसे बड़ी सफलता गाथा की प्रतीक टेक-फाइनैंस कंपनियों के एकीकरण में जुट गए हैं। इसके पीछे उनके मशहूर संस्थापकों से ईर्ष्याभाव भले ही न हो, लेकिन अपनी ताकत बढ़ाने की मंशा जरूर है। उनके राज में सरकारी कंपनियों पर जोर देने की अवधारणा की वापसी हुई है। ये प्रतिगामी कदम हैं। कुछ समय पहले तक तमाम विशेषज्ञ कह रहे थे कि चीन का जीडीपी इस दशक के अंत तक अमेरिका को पार कर जाएगा। अब वे या तो छिप रहे हैं या बहाने खोज रहे हैं, क्योंकि नए आकलन दर्शाते हैं कि 2060 से पहले ऐसा नहीं होने जा रहा। और शायद कभी भी नहीं। इसने शेष विश्व को चीन से हटकर अपनी आपूर्ति श्रृंखला के विविधीकरण पर बाध्य किया है। बाली में चीनी विदेश मंत्रालय के खेमे से यही सामने आया कि इस मामले में बाइडन को हताशा भरी चेतावनी देना शी की योजनाओं में शामिल था। बहरहाल शी के दंभ ने चीन की विकास-गाथा को नुकसान ही पहुंचाया है। यह भले ही उतना न हो, जितना पुतिन ने रूस को बरबाद किया। फिर भी यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि चीन कमजोर हो रहा है। हालांकि, वह मजबूत भी नहीं हो रहा, जो वैश्विक शक्ति के संतुलन को बदलने के लिए पर्याप्त है। यदि ये परिवर्तन भारत की जी-20 अध्यक्षता वाले वर्ष में प्रभावी होते हैं तो इससे नरेंद्र मोदी के लिए रणनीतिक खेल की गुंजाइश काफी बढ़ जाएगी। उन्होंने अभी तक इसे बहुत चतुराई से संभाला है। अमेरिका और रूस के साथ उन्होंने भारत के आर्थिक एवं सामरिक हितों को बखूबी साधते हुए चीन से भी पार पाया है। इस एक वर्षीय अवसर को भारत के हित में भुनाने के लिए आप उन पर भरोसा कर सकते हैं और खासतौर से अपने चुनावी वर्ष में तो एकदम। आप एक नेता से इस पर शिकायत नहीं कर सकते।
