एक सवाल से शुरुआत करते हैं। भारत के कुछ निजी बैंकों में सबसे अधिक तनावग्रस्त अधिकारियों में कौन शामिल हो सकते हैं? मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ)? नहीं। ट्रेजरी प्रमुख? नहीं। हालांकि ब्याज दरों में वृद्धि जैसी स्थिति में मुनाफा कमाना और मौजूदा बाजार कीमत पर परिसंपत्तियों या देनदारी के उचित मूल्य की गणना (मार्क-टू-मार्केट) में नुकसान से बचना एक कठिन काम है। क्या फंसे हुए ऋणों की वसूली के प्रभारी अधिकारी? वे भी नहीं। ऋण के प्रमुख अधिकारी? हालांकि बैंक कर्ज की मांग बढ़ रही है लेकिन यह सुनिश्चित करना आसान नहीं है कि कर्ज न फंसे। लेकिन यह जवाब भी गलत है। निश्चित तौर पर फिर देनदारी मामलों से जुड़े प्रमुख? बैंकों की ऋण वृद्धि, जमा से अधिक है। जमा दर बढ़ रही है। ऋण मांग को पूरा करने के लिए अधिक जमा राशियों का संग्रह और पैसे की लागत कम रखने में संतुलन बनाना एक मुश्किल काम है। लेकिन यह जवाब भी सही नहीं है। सही जवाब है सबसे मुश्किल काम मानव संसाधन (एचआर) प्रमुख का है। आखिर ऐसा क्यों? भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2010 और 2021 के बीच बैंकों में लिपिक कर्मचारियों और अधीनस्थ कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी आई है जबकि अधिकारियों की संख्या में तेज वृद्धि देखी गई है। वर्ष 2005 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों में सभी कर्मचारियों के बीच क्लर्क और अधीनस्थ कर्मचारियों की हिस्सेदारी संयुक्त रूप से कम से कम 63 प्रतिशत थी। वर्ष 2021 तक यह आंकड़ा आधे से अधिक 30 प्रतिशत तक हो गया है। पिछले एक दशक में इन कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा कम हुआ है। वर्ष 2010 तक कुल बैंक कर्मचारियों में क्लर्क और अधीनस्थ कर्मचारियों की कम से कम 55 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। आप तकनीक को दोषी ठहरा सकते हैं। डिजिटलीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ने के साथ ही क्लर्क वर्ग की अधिकांश नौकरियां खत्म होने के कगार पर हैं। आमतौर पर इस वर्ग के लोग कई कामों में अधिकारियों की सहायता करते हैं और इसके अलावा बैंक के रोकड़िए और कैशियर के रूप में भी काम पर लगे हुए हैं। कुछ पेंशनभोगियों को छोड़कर, कई ग्राहक इन दिनों बैंक की शाखाओं में नहीं जाते हैं। वरिष्ठ नागरिक आमतौर पर पैसे निकालने या पैसे जमा करने के लिए बैंक नहीं जाते हैं (क्योंकि उनमें से कई तकनीकी जानकारियों से भी लैस हैं) लेकिन वे दूसरों से मिलने के लिए बैंक शाखाओं में आते हैं जिसे एक तरह की सामाजिक गतिविधि कही जा सकती है। बैंक ऑफ बड़ौदा के पूर्व चेयरमैन ए के खंडेलवाल की अध्यक्षता में सरकारी बैंकों के मानव संसाधन मुद्दों पर हुई समीक्षा की 2010 की एक रिपोर्ट में बैंकों को कोर बैंकिंग सॉल्यूशन (सीबीएस) के दौर में क्लर्क वर्ग की नौकरियों की जरूरतों पर विचार करने की सलाह दी गई थी। सीबीएस एक सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) से जुड़ा बुनियादी ढांचा है जो सभी बैंक शाखाओं को एक नेटवर्क में जोड़ता है। नतीजतन ग्राहक अब अपनी बैंक शाखा में ही काम नहीं निपटाते हैं यानी अब वे सिर्फ अपनी शाखा से नहीं जुड़े हुए हैं बल्कि वे देश भर में किसी भी शाखा से जुड़ सकते हैं। हाल की मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि वित्त मंत्रालय ने बैंक के प्रमुखों से रोजगार की स्थिति का जायजा लेने को कहा है। दरअसल,एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक मंत्रालय ने बैंकों से मासिक भर्ती योजना बनाने मांग की है। पिछले एक दशक में बैंक शाखाओं की संख्या में एक-चौथाई से अधिक की वृद्धि हुई है लेकिन कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है। वर्ष 2015 में, मंत्रालय ने सरकारी बैंकों से कई वरिष्ठ अधिकारियों की सेवानिवृत्ति का दौर आने के मद्देनजर निचले स्तर के कर्मचारियों को योग्यता के आधार पर पदोन्नत करने पर विचार करने के लिए कहा था। मंत्रालय ने बैंकों से सक्षम क्लर्कों को स्केल 1 और स्केल 2 अधिकारियों के रूप में पदोन्नत करने के लिए कहा था। यह सरकारी बैंकों की कहानी है। निजी बैंकों के एचआर प्रमुख एक अलग तरह की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस वक्त कर्मचारियों के कारोबार की दर संभवतः इन बैंकों में सबसे अधिक है। हाल तक ग्राहकों से सीधे तौर पर संवाद करने वाले कर्मचारियों के कारोबार की दर अधिक थी जिनमें रिलेशनशिप मैनेजर शामिल है। लेकिन तकनीक, अनुपालन, जोखिम प्रबंधन जैसे विशेष तरह के कामों से जुड़े विभिन्न विभाग के कर्मचारियों ने बैंक से किनारा करना शुरू कर दिया है। आखिर वे कहां जा रहे हैं? इसका जवाब है कहीं भी और हर जगह। आईटी कंपनियां, वित्तीय तकनीक कंपनी (फिनटेक), टेकफिन, एफएमसीजी कंपनियों में और यहां तक कि डिलिवरी सेवा प्रदाता भी इसमें शामिल हैं। बेशक इनमें से कई से दूसरे बैंक भी संपर्क करते हैं। ऋण खातों की तरह, बैंक भी सक्षम कर्मचारियों के लिए प्रतिस्पर्द्धी बैंकों के कर्मचारियों को अपने साथ जोड़ने की फिराक में होते हैं। इनमें से कुछ अपना स्टार्टअप बनाने के लिए बैंक छोड़ रहे हैं। एक निजी बैंक के सीईओ का कहना है कि उनका बैंक उन कर्मचारियों को बनाए रखने के लिए साल के बीच में भी वेतन बढ़ाने की योजना बना सकता है। उनका कहना था कि इतने बड़े पैमाने पर लोगों के नौकरी छोड़ने की दर नहीं देखी थी और अब लोग सामूहिक रूप से नौकरी छोड़कर जा रहे हैं। एक बड़े बैंक के सीईओ का कहना है कि ऐसा नहीं है कि ऐसी चीजें पहले कभी नहीं हुईं है। ऐसा काफी समय से हो रहा है। अक्सर कोई कर्मचारी अपने बॉस को छोड़ देता है, न कि संगठन को। ऐसे में उन्हें कंपनी से जोड़े रखने के तरीके के लिए एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाना और उन्हें वांछित महसूस कराना जरूरी है। लेकिन तीसरे बैंक के प्रमुख इस पर अपनी अलग राय रखते हैं और यह दरअसल नए भारत का प्रतीक है। लोग अब रोटी, कपड़ा और मकान के लिए काम नहीं कर रहे हैं। वर्ष 2000 के बाद जन्मी पीढ़ी काफी साहसी और आत्मविश्वास से भरी हुई है। यह पीढ़ी महत्त्वाकांक्षी है और इसमें बेचैनी है। वे अपने उद्यम को शुरू करने के साथ-साथ विभिन्न अवसरों की तलाश करना चाहते हैं। वे कुछ वर्षों तक काम करते हैं, पैसे बचाते हैं और फिर नए रास्ते की तलाश करते हैं। उन्हें नौकरी में बनाए रखने का तरीका अधिक पैसे की पेशकश करना नहीं है। वे चुनौतियों की तलाश में हैं और नियमित काम से उनका उत्साह नहीं बढ़ता है। वे एक उद्यमी के रूप में अपनी नौकरी करते हैं। उन्हें एक संगठन से जोड़े रखने का सबसे अच्छा तरीका उन्हें लगातार कठिन कार्य से जोड़ा जाए। तकनीक न केवल सरकारी बैंकों में क्लर्क कैडर की नौकरियां खत्म कर रही है बल्कि यह एक ऐसा नया माहौल बना रही है जिससे बैंक की नौकरी का आकर्षण खत्म हो रहा है। ज्यादा हैसियत वाले निवेशकों के समर्थन से कई वित्तीय प्रौद्योगिकी कंपनियां अधिक वेतन, काम के लचीले समय के साथ ही निश्चित रूप से चुनौतियां दे रही हैं। प्रतिभाशाली युवाओं के लिए बैंक अब सबसे अच्छा दांव नहीं हैं। एक वक्त ऐसा था जब नौकरी के कई इच्छुक लोग सिविल सेवा के बजाय एक बड़े सरकारी बैंक में एक परिवीक्षाधीन अधिकारी (पीओ) की भूमिका को प्राथमिकता देते थे, लेकिन अब यह एक अलग बाजार है। प्रतिष्ठित संस्थानों की कैंपस भर्तियों में अब छात्रों की प्राथमिकता सूची में बैंक की नौकरियां नहीं हैं। सितंबर 2008 में प्रतिष्ठित अमेरिकी निवेश बैंक लीमन ब्रदर्स होल्डिंग्स के पतन के बाद बैंक का तरीका बदल गया है जिससे वैश्विक वित्तीय संकट पैदा हो गया था। वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने पर छंटनी हुई है। भारत में, कुछ विदेशी बैंकों ने अपनी शाखाएं बंद कर दी हैं या कुछ कारोबार बंद कर दिए हैं। जटिल डेरिवेटिव पर अब बैंकर जोर नहीं देते हैं। वैश्विक आर्थिक संकट के बाद, शानदार वेतन, भत्ते वाली बैंक की नौकरी की चमक खो गई है। इसके बावजूद मांग से ज्यादा कर्मचारियों की आपूर्ति होने से बैंक के एचआर प्रमुख का काम काफी आसान रहा। यह एक दशक से अधिक समय की एक सहज यात्रा रही। लेकिन डिजिटलीकरण ने इसे बदल दिया है। यह बदलाव केवल किसी प्रणाली और प्रक्रियाओं तक ही सीमित नहीं हो सकता है, इसका प्रसार कार्य संस्कृति में भी करने की जरूरत है। जब तक बैंक खुद को नहीं बदलते, एचआर विभाग के लिए इस तरह की मुश्किलें जारी रहेंगी और किसी प्रतिभाशाली कर्मचारी को आकर्षित करना मुश्किल हो जाएगा।
