भारत में संपदा से जुड़े नियामक तो स्वायत्त एवं अधिकारसंपन्न हैं, किंतु स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐसा नहीं है। इससे उत्पन्न विसंगतियों के दुष्परिणाम एवं उन्हें दूर करने के उपाय बता रहे हैं केपी कृष्णन बाजार विफलताओं में सुधार के लिए राज्य के हस्तक्षेप को नियमन का नाम दिया गया है। हालांकि वित्त क्षेत्र में हम इसे प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं, लेकिन नियमन की यह अवधारणा केवल वित्त क्षेत्र तक ही सीमित नहीं। जब भी मुक्त बाजार से प्रतिफल अपर्याप्त और परिणाम कमजोर हो, तब राज्य का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।नियमन अमूमन ऐसी सशक्त संस्थाओं के सृजन से संबंधित होता है, जो स्वायत्त एवं सशक्त-अधिकारसंपन्न हों। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) स्वायत्त ढंग से बैंकिंग एवं भुगतान प्रणाली के नियमन के साथ ही मौद्रिक नीति को संचालित करता है। अपनी भूमिका में वह स्वयं को राजनीतिक आग्रहों से दूर रखता है, जिनके वित्त मंत्रालय से प्रभावित होने के आसार हों। वहीं अपने पूर्ववर्ती पूंजीगत मामलों के नियंत्रक (कंट्रोलर ऑफ कैपिटल इशूज यानी सीसीआई) के मुकाबले भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) प्रतिभूति बाजार का नियमन नार्थ ब्लॉक के बजाय मुंबई के बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स से होता है। अन्य भारतीय 'संपदा' नियामकों के मामले में भी ऐसा ही है। परिणामस्वरूप, आज वित्त क्षेत्र का नियमन उससे बेहतर स्थिति में है, जब इस क्षेत्र का नियमन प्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा होता था। ये सुखद परिणाम एकाएक प्राप्त नहीं हुए हैं। घरेलू घटनाक्रम और वैश्विक स्तर पर बेहतरीन प्रक्रियाओं के अनुरूप समय के साथ ढालने के लिहाज से विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों और संसदीय निगरानी के अमल में आने से यह सब संभव हुआ है। कहने का आशय यह नहीं है कि वित्तीय क्षेत्र में नियामकीय सुधार पूर्णता प्राप्त कर चुके हैं। उपभोक्ता संरक्षण के मोर्चे पर निरंतर कायम समस्याओं और फिनटेक जैसे तकनीकी विकास से ये नियमन समय-समय पर संशोधन की मांग करते हैं।इस संबंध में अंतिम व्यापक रपट वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (फाइनैंशियल सेक्टर लेजिस्लेटिव रिफॉर्म्स कमीशन यानी एफएसएलआरसी) की थी, जिसमें नियामकीय स्वायत्तता और जवाबदेही को मजबूत बनाने के लिए समग्र सिफारिशें की गई थीं। वित्तीय क्षेत्र की भांति स्वास्थ्य क्षेत्र भी संभावित बाजार विफलताओं से भरा है। हालांकि यह अत्यंत ही जटिल क्षेत्र है, संभवतः वित्त से भी अधिक और वैसे भी स्वास्थ्य नीति को लोक नीतियों के सबसे मुश्किल क्षेत्रों में से एक माना जाता है। स्वास्थ्य क्षेत्र के भीतर सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में अमूमन दो प्रकार की बाजार विफलताओं को रेखांकित किया जाता है-एक बाहरी पहलुओं और सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान। दूसरी ओर हेल्थकेयर यानी स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य तौर पर सूचना विषमता एवं बाजार शक्तियों द्वारा रूपांकित किया जाता है। वित्त के विपरीत स्वास्थ्य की जटिलताओं को देखते हुए उसमें किसी प्राधिकरण द्वारा नियमन ही आवश्यक नहीं कि सही जवाब हो। इस लेख में स्वास्थ्य क्षेत्र में वर्तमान नियमनों पर दृष्टि डालते हुए उनमें सुधार के उपायों की बात है। भारतीय संविधान ने स्वास्थ्य का मसला संघ एवं राज्य दोनों को सौंपा है। केवल संघीय स्तर पर ही गौर करें तो भारत में खाद्य सुरक्षा के मानकों के निर्माण एवं उनके प्रवर्तन के लिए एक वैधानिक नियामकीय प्राधिकरण, दवाओं एवं औषधियों की सुरक्षा के लिए एक गैर-वैधानिक प्राधिकरण और एक संस्था उनमें से कुछ की कीमतों के नियमन के लिए मौजूद है। स्वास्थ्य सेवाओं के अति कौशल-आधारित स्वरूप को देखते हुए वेलनेस सेक्टर यानी आरोग्य क्षेत्र के नियमन में स्वास्थ्य क्षेत्र पेशेवरों का नियमन आवश्यक रूप से शामिल है। इसीलिए हमारे पास मेडिकल, डेंटल, नर्सिंग और फार्मासिस्ट पेशों में प्रत्येक के नियमन के लिए एक प्राधिकारी संस्था है। हाल में ही एक नियामक का गठन किया गया है, जो नैदानिक एवं उपचार सहयोग प्रदान करने वाले फिजियोथेरेपिस्ट जैसे करीब 50 से अधिक संबंधित स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों के नियमन के लिए है। इसके अतिरिक्त स्पीच थेरेपिस्ट, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट से लेकर दिव्यांगों को शिक्षित करने वाले विशिष्ट शिक्षकों जैसे पुनर्वास पेशेवरों के लिए एक अलग नियामक है। इस प्रकार आरोग्य क्षेत्र के लिए नौ राष्ट्रीय नियामक हो जाते हैं। अधिकांश प्रेक्षक प्रथमदृष्टया सहमत होंगे कि नियामकों की इतनी बड़ी मौजूदगी के बावजूद हमारे वित्त क्षेत्र का नियमन हमारे आरोग्य क्षेत्र से कहीं बेहतर है। बच्चों से जुड़ी एक दोयम दर्जे की दवा के निर्यात के हाल में सामने आए मामले और दो वर्षों में महामारी के अनुभव ने हमें भारतीय आरोग्य क्षेत्र के नियमन की महत्ता और उसकी लचर स्थिति की ओर ध्यान दिलाया है। आखिर ऐसा क्यों है? नियमन कठिन है और यह राज्य के हस्तक्षेप का भारी-भरकम स्वरूप है। भारत में वित्तीय क्षेत्र नियमन के वर्षों का अनुभव यही सीख देता है कि पारंपरिक सरकारी विभाग इस काम के लिए उपयुक्त नहीं। सबसे बेहतर नियमन सुनियोजित-सुविचारित ढंग से गठित की गई वैधानिक प्राधिकारी संस्थाओं द्वारा ही संभव है, जो न केवल स्वायत्त एवं अधिकारसंपन्न, बल्कि परिणामों को लेकर जवाबदेह भी हों। नियामकों की स्वायत्तता और सशक्तीकरण के लिए बुनियादी रूप से दो डिजाइन पहलू जरूरी हैं। पहला यही कि अपने क्षेत्र विशेष (डोमेन) के लिए प्रवर्तनीय नियमन जारी करने की शक्ति और दूसरा बिना किसी भय या पक्षपात के नियमनों को लागू करने के लिए वित्तीय एवं मानव संसाधनों तक पहुंच। आरोग्य क्षेत्र में अभी भी स्वास्थ्य मंत्रालय ही मुख्य नियामक बना हुआ है, बिल्कुल वैसे जैसे 1990 के दशक की शुरुआत में वित्तीय क्षेत्र की स्थिति थी। उदाहरणस्वरूप, चाहे दवाओं पर कानून की बात हो या नैदानिक प्रतिष्ठानों पर कानून की, दोनों ही मामलों में वैधानिक एजेंसी के बजाय पूरी शक्ति स्वास्थ्य मंत्रालय के पास है। वहीं वित्तीय क्षेत्र के नियामक समान रूप से कानून के उद्देश्य के लिए नियमन को लेकर विधिसम्मत अधिकारसंपन्न हैं। सेबी के गठन के समय यह व्यवस्था थी कि उसके नियमन निर्देशन के लिए वित्त मंत्रालय की स्वीकृति आवश्यक होगी। सेबी अधिनियम में प्रथम संशोधन में ही इसी प्रावधान को हटाया गया। इसके विपरीत स्वास्थ्य क्षेत्र में सक्रिय नौ में से आठ नियामकों को अपने नियमन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सरकारी मंजूरी की दरकार होती है। इसमें राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ही अपवाद है, जिसे 2019 में भारतीय चिकित्सा परिषद के स्थान पर गठित किया गया था। प्रभावी नियमन का दूसरा पहलू, जिसमें नियामकीय दायित्वों के निर्वहन के लिए मानव एवं वित्तीय संसाधनों की बात आती है, वह स्वास्थ्य नियामकों के ढांचे में करीब-करीब नदारद है। सभी वित्तीय क्षेत्र नियामकों के संचालक मंडलों के पास अपनी आवश्यकतानुसार मानव संसाधनों की भर्ती के साथ-साथ उनके लिए नियम एवं शर्तें निर्धारित करने का भी अधिकार है। स्वास्थ्य क्षेत्र के किसी भी नियामक के पास ये शक्तियां नहीं और ऐसे निर्णयों में उन्हें सरकारी स्वीकृति की जरूरत होती है। आरोग्य क्षेत्र के नियामकीय ढांचे में परिवर्तन आवश्यक है और इन परिवर्तनों को एफएसएलआरसी की नियामकीय संचालन एवं जवाबदेही से जुड़ी सिफारिशों के अनुरूप ही आकार दिया जाए। पर्याप्त वित्तीय संसाधनों तक पहुंच के मामले में भी यही बात लागू होती है। इस क्षेत्र में हमने एनएमसी के गठन और सहबद्ध स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों के लिए नियामक के साथ बड़ी महत्त्वपूर्ण शुरुआत की। वहीं दवाओं और फार्मास्युटिकल्स (मेडिकल उपकरणों सहित) के लिए एक नए कानून पर काम हो रहा है। हालांकि पुराने तो छोड़िए, नए मसौदा कानून में भी दवा नियामक को सशक्त बनाने का उल्लेख नहीं। वास्तव में आरोग्य क्षेत्र का नियमन विद्वानों, नीति निर्माताओं और संसद के अधिक ध्यानाकर्षण का अधिकारी है। (लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में अवैतनिक प्राध्यापक, कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य और पूर्व लोक सेवक हैं )
