पूरी दुनिया इस समय महंगाई से परेशान है, जिससे निपटने के लिए सख्त मौद्रिक नीति से इतर उपयोगी विकल्प अपनाने का सुझाव दे रहे हैं टीटी राम मोहन जब अमेरिका को छींक आती है तो शेष विश्व केवल जुकाम ही नहीं, बल्कि निमोनिया की चपेट में आ जाता है। व्यापार एवं विकास पर अंकटाड की नवीनतम रिपोर्ट का यही बेरुखा संदेश है। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व आक्रामक रूप से ब्याज दरें बढ़ा रहा है। जवाब में अन्य देशों को भी अपनी मुद्राओं को महफूज रखने के लिए यही नीति अपनानी पड़ रही है। अंकटाड की रिपोर्ट में एक अध्ययन का उल्लेख है, जो दर्शाता है कि अमेरिका में ब्याज दरों में हुई एक प्रतिशत की बढ़ोतरी का परिणाम तीन वर्ष बाद विकसित देशों के जीडीपी में 0.5 प्रतिशत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में 0.8 प्रतिशत की गिरावट के रूप में दिखता है। इस लिहाज से यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका में जो ब्याज दरें 3 प्रतिशत बढ़ी हैं तो इससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में 2.4 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। अमेरिका में ब्याज दर बढ़ोतरी दुनिया में वृद्धि को पटरी से उतारने से कहीं अधिक नुकसान पहुंचा रही है। इससे विकासशील देशों में वृहद आर्थिक स्थायित्व के समक्ष खतरा उत्पन्न हो गया है, क्योंकि ये अर्थव्यवस्थाएं भारी विदेशी कर्ज के बोझ तले दबी हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निर्यात में बाहरी कर्ज का अनुपात औसतन 127 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया है, जो 2013 की उथल-पुथल वाले दौर से भी 18 प्रतिशत अधिक है। यह वह दौर था जब बॉन्ड खरीद को लेकर केंद्रीय बैंकों में अदावत जारी थी। यह औसत निम्न-आय एवं निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए अहम है। इससे पहले 1980 के दशक में महंगाई पर काबू पाने के लिए फेडरल रिजर्व की मौद्रिक सख्ती बड़ी मशहूर हुई थी, लेकिन तब उभरते एवं विकासशील देशों में कुल कर्ज (सार्वजनिक एवं निजी) का स्तर आज की तुलना में कम था। तब अमेरिकी ब्याज दरों में बढ़ोतरी तीसरी दुनिया के कर्ज संकट का बटन दबाने के लिए पर्याप्त थी। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘इस प्रकार फेड द्वारा की जा रही मौद्रिक सख्ती में ईएमडीई (उभरते बाजार एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं) के लिए वित्तीय संकटों का नया सिलसिला शुरू करने के भरपूर जोखिम हैं।’ अंकटाड की रिपोर्ट का सबसे बेहतरीन हिस्सा वही है, जहां यह अमेरिका या दुनिया में कहीं भी ऊंची मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए आक्रामक मौद्रिक सख्ती की धारणा को चुनौती मिली है। फेडरल रिजर्व ने यही रुख अख्तियार किया हुआ है और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि महंगाई मांग-आधारित न होकर आपूर्तिगत झटकों-गतिरोध का परिणाम है। फेड को इसकी भी कोई परवाह नहीं कि दुनिया के अन्य हिस्सों के साथ क्या होता है। तर्क कुछ इस प्रकार हैं। यदि उच्च मुद्रास्फीति कायम रहती है तो यह घरेलू, व्यवहार एवं अपेक्षाओं को प्रभावित करती है। यदि कामगारों को लगे कि महंगाई टिकी रहेगी तो वे ज्यादा मेहनताने की मांग करते हैं। कंपनियां इसकी बढ़ी हुई लागत ग्राहकों पर लाद देती हैं। इसका नतीजा मजदूरी और कीमतों के चक्रीय प्रवाह में दिखता है। इसलिए अपेक्षाओं से निपटने के लिए केंद्रीय बैंकों को यही फबता है। इसका सबसे बेहतरीन तरीका यही है कि छोटे-छोटे टुकड़ों में करने के बजाय दरें आक्रामक रूप से बढ़ाई जाएं। यदि छोटे स्तर पर बढ़ोतरी की जाए तो इससे ऊंची मुद्रास्फीति का दौर लंबा खिंचेगा, जिसका नतीजा अर्थव्यवस्था के लिए ऊंची लागतों के रूप में भुगतना होगा। इसे 1970 के दशक की अवस्फीति के बाद 1980 के दशक के आरंभ में पॉल वॉल्कर सख्ती का सबसे बड़ा सबक कहा जाता है। अंकटाड की रिपोर्ट में कहा गया है कि आज हम जिस मुद्रास्फीति को झेल रहे हैं, वह 1970 के दशक वाली महंगाई से खासी अलग है। इसीलिए, आक्रामक मौद्रिक सख्ती इसका माकूल जवाब नहीं। पहला तो यही कि वास्तविक अर्थों में जिंस मूल्यों में हालिया बढ़ोतरी 1970 के दशक की तुलना में कम है और जीडीपी की ऊर्जा-गहनता भी घटी है तो महंगाई से निपटने के लिए उतने सख्त हाथों की आवश्यकता नहीं। दूसरा, वैश्विक मुद्रास्फीति पिछले मामलों की तुलना में कम क्षेत्रों से प्रभावित हो रही है। आज कोर मुद्रास्फीति (खाद्य और ऊर्जा कीमतों को छोड़कर) हेडलाइन मुद्रास्फीति से काफी कम है, जबकि 1979-80 में दोनों लगभग एकसमान थीं। तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू कि अनुमानित (नॉमिनल) मजदूरी उपभोक्ता मूल्यों में बढ़ोतरी की गति के साथ नहीं बढ़ती तो वास्तविक मजदूरी हर जगह घट जाती है। रिपोर्ट इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि कर्मचारी संघों की अहमियत घट गई है और कामगारों के पास अब सौदेबाजी की शक्ति नहीं है। इससे मजदूरी-कीमतों के चक्र के अस्तित्व को लेकर गंभीर संदेह उत्पन्न होते हैं। चौथा, ऋण प्रदाता (जी हां, यहां तक कि 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट के बावजूद) के रूप में शैडो बैंकों का महत्त्व बढ़ा है। यह मौद्रिक नीति संचरण को बहुत जटिल बनाता है। केंद्रीय बैंक की व्यापक स्वायत्तता और मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करने से आवश्यक नहीं कि यह मौद्रिक नीति को अधिक सक्षम एवं प्रभावी बनाए। मजदूरी-कीमत चक्र को लेकर अंकटाड के संशय को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपने हालिया विश्व आर्थिक परिदृश्य (अक्टूबर 2022) में भी साझा किया है। अंकटाड की ही भांति आईएमएफ ने भी दर्ज किया है कि आज वास्तविक मजदूरी घटने पर है। इसमें विगत 50 वर्षों की ऐसी 22 स्थितियों पर दृष्टि डाली है, जब कीमत मुद्रास्फीति तो बढ़ रही थी, लेकिन वास्तविक मजदूरी घट रही थी और बेरोजगारी दर या तो स्थिर थी या फिर गिरावट का रुख कर रही थी। इन सभी मामलों में कोई मजदूरी-कीमत चक्र नहीं था। इसके बजाय कुछ तिमाहियों बाद ही महंगाई घट गई। अंकटाड के उलट आईएमएफ अपने निष्कर्षों का असर अपनी धारणा पर नहीं पड़ने देता। वह अभी भी मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों में सख्ती को लेकर आग्रही है। आपकी जिज्ञासा हो सकती है कि मौद्रिक सख्ती के अतिरिक्त हमारे पास और क्या विकल्प है? अंकटाड ने बड़े क्रांतिकारी विकल्प सुझाए हैं। उसने सब्सिडी, मूल्य नियंत्रण और जिंस बाजार में भारी सट्टेबाजी की निगरानी के लिए हस्तक्षेप का मिश्रित नुस्खा सुझाया है। वह चाहता है कि राजकोषीय और मौद्रिक नीति रोजगार सृजन और विकास परियोजनाओं को सहारा देने के लिए तैयार की जाएं। साथ ही उसकी इच्छा वांछित क्षेत्रों को लक्ष्य केंद्रित करने वाली योजनाओं (उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन-पीएलआई जैसी) की भी है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएं। यह कर कटौती के बजाय संपदा और अप्रत्याशित (विंडफॉल) लाभ पर कर चाहता है। और अंत में यह एक नया एवं परिमार्जित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचा चाहता है। नया स्वरूप बेहतर भुगतान संतुलन और तरलता सहायता उपलब्ध कराएगा, सभी के लिए स्वैप सुविधा होगी, एक सार्वजनिक क्रेडिट रेटिंग इकाई और सॉवरिन ऋण संकटों के प्रबंध के लिए नियमों का प्रावधान होगा। बहरहाल, इसकी उम्मीद नहीं है कि आक्रामक मौद्रिक सख्ती से इतर अंकटाड के विकल्पों पर पश्चिमी जगत के सत्ता गलियारों में कोई ध्यान दिया जाएगा। हालांकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंक कम से कम मौद्रिक सख्ती को लेकर विश्व बैंक की चेतावनी पर तो ध्यान दे ही सकते हैं। यह अध्ययन ऐसी सख्ती से उस मंदी के खतरे को लेकर आगाह करता है, जो महंगाई को काबू करने से भी बड़ा हो सकता है। यदि केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति चाल में कुछ ताल मिलाएं तो वे वृद्धि की बलि चढ़ाए बिना भी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की उम्मीद कर सकते हैं। अफसोस की बात है कि आज वैसा समन्वय नहीं दिख रहा, जैसा वैश्विक वित्तीय संकट या महामारी के दौरान दिखा था। चूंकि भारत दिसंबर में जी-20 की अध्यक्षता का दारोमदार अपने कंधों पर लेने वाला है तो उसे मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक नीतिगत कदमों के मामले में व्यापक वैश्विक समन्वय की पहल करनी चाहिए।
