कम वृद्धि वाले राज्यों को राष्ट्रीय मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनाना जरूरी है लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इसकी राह मुश्किल बनाती है। बता रहे हैं नितिन देसाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को दिए अपने भाषण में स्वतंत्रता की सौवीं वर्षगांठ की रूपरेखा खींची थी। उस वक्त उन्होंने कहा था आने वाले वर्षों में हमारी नीति जिन पांच बातों पर केंद्रित रहेगी उनमें भारत की एकता और अखंडता शामिल है। बहरहाल, राज्यों के वृद्धि और विकास संबंधी प्रदर्शन में व्याप्त असमानता इस जरूरी लक्ष्य के आड़े आएगी। क्या इस असमानता को दूर किया जा सकता है? आय में बढ़ोतरी के आंकड़े राज्यों में दोहरा विभाजन दर्शाते हैं। उत्तर, पूर्व और मध्य भारत के राज्यों में विकास की दर कम है 1 (एनईईसी समूह)। दूसरी तरफ दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पश्चिम के भारत के राज्यों में विकास की दर ऊंची है 2 (एसडब्ल्यूएनडब्ल्यू समूह)। कम वृद्धि और उच्च वृद्धि वाले राज्यों में खाई बढ़ रही है। इसे 1990-91 और 2019-20 में राज्यों में प्रति व्यक्ति उत्पादन के बढ़ते अनुपात से दर्शाया गया है। उत्पादन वाले राज्यों में प्रति व्यक्ति उत्पाद: 1.6 से 2.6 तक। विनिर्माण वाले राज्यों में प्रति व्यक्ति उत्पाद : 2.3 से 3.4 तक। सेवाओं वाले राज्यों में प्रति व्यक्ति उत्पाद : 1.9 से 2.9 तक। यह स्पष्ट है कि दो समूहों में आर्थिक उदारीकरण की अवधि में अंतर की खाई बढ़ गई। हालांकि ये अंतर पहले से ही थे।इस असमानता की जड़ें औपनिवेशिक भारत में अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के तरीके में निहित हैं। ज्यादा वृद्धि वाले राज्य औपनिवेशिक काल में मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसी और कुछ बड़ी रियासतों जैसे हैदराबाद, मैसूर और त्रावणकोर में थे। दक्षिण की प्रेसिडेंसी मद्रास और पश्चिम की प्रेसिडेंसी बंबई में ब्रिटिश कंपनियों का दबदबा नहीं था।इसलिए इन दो प्रेसिडेंसी में घरेलू उद्यमिता का महत्त्वपूर्ण ढंग से विकास हुआ और इन पर राष्ट्रीयता की भावना का भी प्रभाव पड़ा था। यही बात बड़ी रियासतों पर भी लागू हुई। इन बड़ी रियासतों के शासन के महत्त्वपूर्ण सहयोग से विकास को बढ़ावा देने वाली गतिविधियां खेती, शिक्षा और उद्योग के क्षेत्र में भी हुईं। इसलिए ये इलाके आजादी के बाद तेजी से तरक्की और विकास का दौर का लाभ लेने की बेहतर स्थिति में थे। इस ढर्रे पर उच्च वृद्ध वाला एक क्षेत्र पश्चिमोत्तर खरा नहीं उतरता। पूर्वोत्तर में आजादी के बाद सिंचाई और खेती के क्षेत्र में मुख्यतौर पर शुरुआती निवेश हुआ था।पुरानी बंगाल प्रेसिडेंसी का इलाका भी कम बढ़ोतरी वाला क्षेत्र था। इसका दायरा उत्तर पश्चिम तक फैला हुआ था। बाद में यह इलाका संयुक्त प्रांत और कई अन्य क्षेत्रों में बंट गया था। कम आर्थिक विकास वाले क्षेत्र ज्यादातर छोटी रियासतों में थे। ऐसी रियासतों के पास विकास को बढ़ावा देने के लिए कम वित्तीय संसाधन थे और शासन से भी कम मदद मिली। हालांकि छोटी रियासतों में एक अपवाद ग्वालियर था। बंगाल (अविभाजित) और उसके आसपास के क्षेत्रों में शुरुआती दौर में खासतौर पर खनन और सामग्री निर्माण के क्षेत्र में विकास हुआ था। चाय और नील के बागानों की स्थापना कर कृषि का वाणिज्यीकरण किया गया। हालांकि पूर्वी क्षेत्र की एक खास विशेषता यह थी कि ब्रिटिश कंपनियों का उद्योग के अलावा कृषि बागान और कारोबार में दबदबा था। भारत की आजादी के बाद औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को छोड़ गए थे और क्षेत्र में उद्यमिता के क्षेत्र में खालीपन आ गया था।आजादी के बाद योजना का दौर शुरू हुआ। इस दौर में पूर्वी और मध्य क्षेत्रों में उत्पादन और खनन के क्षेत्र में अच्छा खासा प्रत्यक्ष सार्वजनिक निवेश हुआ। लेकिन इस भारी भरकम निवेश से इस निजी उद्यमिता के लिए ज्यादा अवसर सृजित नहीं हो पाए। हालांकि 'मशीन से मशीन' बनाने की रणनीति में 1960 के दशक के मध्य में कई रुकावटें आईं। पश्चिम बंगाल में उग्रवादी वामपंथ के प्रसार के कारण विकास की इस रणनीति में और ठहराव आया। हालांकि इस दौर में निजी क्षेत्र को सीमित भूमिकाएं दिए जाने के बावजूद दक्षिण और पश्चिम के राज्यों ने खासी तरक्की की। ये क्षेत्र इंजीनियरिंग, रसायन और उपभोक्ता उद्योगों पर ध्यान केंद्रित कर सकते थे जिसमें मामूली निवेश की जरूरत थी और इससे नई उद्यमशीलता का विकास हो सकता था। पेट्रोलियम और रसायन में सार्वजनिक निवेश में बदलाव होने से इन राज्यों को फायदा हुआ। भारत के विकास की प्रक्रिया में आर्थिक उदारीकरण के बाद आमूलचूल बदलाव आया। आर्थिक उदारीकरण के दौर में उत्पादन और आधारभूत संरचना में सार्वजनिक की जगह निजी निवेश होने लगा। इस दौर में निर्यातोन्मुखी उच्च तकनीक आधारित सेवाएं शुरू हुईं और आईटी क्षेत्र में तेजी से स्टार्टअप आईं। भारत की अर्थव्यवस्था का तेजी से वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण हुआ और ज्यादा निपुणता वाले कौशल पर निर्भरता बढ़ी। अर्थव्यवस्था में हुए इस बदलाव से उच्च वृद्धि वाले राज्य कहीं अधिक बेहतर ढंग से लाभान्वित हुए। इन उच्च वृद्धि राज्यों में मजबूत निजी क्षेत्र, ज्यादा उच्च शिक्षा की परंपरा, समुद्र के तट के करीब होना और विश्व से बेहतर संवाद की परंपरा थी जिससे इन राज्यों का खासतौर पर फायदा हुआ। इस मामले में एक महत्त्वपूर्ण जरूरत बढ़ती कामकाजी उम्र की आबादी का बेहतर ढंग से इस्तेमाल करना है लेकिन हमने अभी तक इस दिशा में बेहतरीन ढंग से काम नहीं किया है। भारत के जनसांख्यिकीय अनुमान के मुताबिक 2030 से 2050 के बीच देश बढ़ती कामकाजी उम्र में उत्तर व मध्य (एनजी) के पांच राज्यों - राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश की हिस्सेदारी 91.6 फीसदी होगी। बढ़ती कामकाजी उम्र एक नुकसान की जगह फायदे की स्थिति में बदल सकती है। बढ़ती कामकाजी उम्र का इस्तेमाल कम वृद्धि और ज्यादा वृद्धि वाले राज्यों के बीच की खाई को पाटने के लिए किया जा सकता है। यह आर्थिक रूप से अनिवार्य भी है। हालांकि पूर्व के क्षेत्र की कम वृद्धि वाले राज्यों की स्थिति अलग है। वे जनसांख्यिकीय संक्रमण के रास्ते पर हैं और एक संचित जनसांख्यिकीय ऋण के जोखिम का सामना नहीं करेंगे।समन्वित विकास की नीतियां को उत्तर व मध्य के पांच राज्यों राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश पर केंद्रित करना अनिवार्य हो गया है। इस क्षेत्र में विफलता होने पर भारतीय अर्थव्यवस्था के एकीकरण के लिए गंभीर चुनौती खड़ी होगी। बढ़ती कामकाजी उम्र का फायदा नहीं उठाने की स्थिति में पूरे देश के विकास की गति कम हो सकती है। इस मामले में पश्चिम बंगाल विशेष स्थान रखता है क्योंकि इस राज्य में उच्च विकास वाले राज्यों के ज्यादातर कारक विद्यमान हैं। पश्चिम बंगाल न केवल उच्च विकास के राज्यों की बराबरी कर सकता है बल्कि यह पड़ोसी राज्यों के विकास का रास्ता भी प्रशस्त कर सकता है। उत्तर के राज्यों का आसानी से वैश्विक अर्थव्यवस्था से एकीकरण नहीं किया जा सकता है। इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि इन राज्यों को उच्च वृद्धि वाले राज्यों से जोड़ दिया जाए ताकि वे राष्ट्रीय मूल्य श्रृंखला में विनिर्माण के लिए प्रोत्साहित हों। हमने वाहन उद्योग के मामले में राष्ट्रीय मूल्य श्रृंखला को विकसित होते हुए देखा है जिसमें वाहनों के ज्यादातर कल पुर्जों की आपूर्ति उच्च वृद्धि वाले राज्यों से होती है।उत्तर के राज्यों को राष्ट्रीय विनिर्माण श्रृंखला का हिस्सा बनाने के लिए निवेश की जरूरत होगी, इसके लिए गंभीरता से प्रयास किए जाने की जरूरत है। उत्तर के राज्यों में विनिर्माण बढ़ाने के लिए आधारभूत ढांचे व लॉजिटिक्स, कौशल विकास में निवेश करना होगा। स्थानीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को संगठित रूप से मदद मुहैया करानी होगी। केंद्र सरकार की मदद के बिना उत्तर के राज्य इस कार्य को अंजाम नहीं दे पाएंगे। इसका कारण यह है कि उच्च वृद्धि दर वाले राज्यों की तुलना में उत्तर भारत के राज्यों का प्रति व्यक्ति राजस्व सिर्फ आधा है।क्या वर्तमान राजनीति की स्थिति में यह हो सकता है? अभी उत्तर व मध्य के पांच राज्यों राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश में से तीन में केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकार है और दो राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ वाले दल की सरकार है। वास्तविक जोखिम यह है कि अभी राजनीति दलों के बीच कटु राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है। यह प्रतिद्वंद्विता एकीकृत और समन्वित अर्थव्यवस्था के रास्ते में आड़े आएगी। (1 उप्र, बिहार, झारखंड, राजस्थान, जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल, असम, उत्तर पूर्व के छोटे राज्य, ओडिशा, मप्र और छत्तीसगढ़।) (2. तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और कुछ छोटे राज्य।)
