बीते 30 वर्षों से अधिक समय में कठिन परिदृश्य होने के बावजूद भारतीय शेयर बाजारों से जबरदस्त प्रतिफल प्राप्त हुआ है। इस विषय में जानकारी प्रदान कर रहे हैं आकाश प्रकाश हाल ही में मुझे एक दिलचस्प रिपोर्ट पढ़ने को मिली। पूंजी बाजार की कंपनी बोफा सिक्योरिटीज द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में उभरते बाजारों और एशियाई देशों (जापान के अलावा) के प्रदर्शन की आलोचना की गई है। इस रिपोर्ट में शेयर बाजारों के 30 वर्षों के प्रदर्शन का विश्लेषण किया गया और इसके चौंकाने वाले नतीजे मिले। चीन को एमएससीआई शेयर सूचकांक में दिसंबर 1992 में जोड़ा गया। तब से अब तक देखा जाए तो जापान के अलावा शेष एशियाई देशों ने लाभांश के अलावा डॉलर के संदर्भ में सालाना 3.7 प्रतिशत का प्रतिफल दिया है। इसके विपरीत अमेरिका ने 7.8 फीसदी का प्रतिफल दिया। यूरोप में यह 4.1 फीसदी है। उभरते बाजारों के परिसंपत्ति वर्ग ने 3.9 फीसदी का प्रतिफल दिया। स्पष्ट है कि अमेरिका इस मामले में इकलौता सफल देश है और वैश्विक वित्तीय संकट तथा आवास संकट आदि के बावजूद अमेरिका में शेयर प्रतिफल ने सबके लिए मानक स्थापित किया। अगर एशियाई देशों के प्रतिफल पर और बारीकी से नजर डाली जाए तो चीन का प्रदर्शन सबसे खराब रहा। उसने 30 वर्षों की अवधि में 1.4 फीसदी का ऋणात्मक प्रतिफल दिया जबकि भारत 7.3 प्रतिशत के डॉलर प्रतिफल के साथ बेहतरीन स्थिति में रहा। इसके बाद सबसे बेहतर एशियाई बाजार कोरिया और ताइवान रहे जिन्होंने इस अवधि में डॉलर में क्रमश: 4.5 प्रतिशत और 4.4 प्रतिशत का प्रतिफल दिया। इस प्रकार 30 वर्ष की अवधि में भारत का दूसरा करीबी एशियाई देश करीब 300 आधार अंक पीछे रहा। चीन का 1.4 फीसदी ऋणात्मक प्रतिफल का प्रदर्शन अजीब है क्योंकि वहां अच्छी वृद्धि और समृद्धि नजर आती है। यह एक हद तक इस बात का उदाहरण भी है कि बीते कुछ महीनों में चीन में शेयर बाजार का प्रदर्शन बहुत कमजोर रहा। यद्यपि चीन ने निजी इक्विटी और उद्यम पूंजी के क्षेत्र में भी निवेशकों को काफी प्रतिफल दिया है और वह सूचीबद्ध इक्विटी बेंचमार्क में दर्ज नहीं है। इस कमजोर प्रतिफल से क्या अंदाजा लगाया जाए? याद रहे कि यह आंकड़ा 30 वर्ष की अवधि के लिए है। यही वह अवधि है जब जापान ने आर्थिक तथा हर मोर्चे पर बेहतरीन प्रदर्शन किया। जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, इस अवधि में एशिया ने आर्थिक वृद्धि के मामले में अमेरिका को भी काफी पीछे छोड़ दिया। अमेरिका ने 1992 के बाद से 4.5 फीसदी का नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद हासिल किया जबकि जापान के अलावा शेष एशिया ने 9.5 फीसदी वृद्धि हासिल की। इसकी बदौलत एशियाई कंपनियों ने 15 फीसदी की राजस्व वृद्धि हासिल की जो अमेरिकी कंपनियों के 6.5 फीसदी से काफी अधिक थी। राजस्व के मोर्चे पर शानदार प्रदर्शन की बदौलत एशियाई शेयरों का शुद्ध मुनाफा 12.6 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ा जबकि अमेरिकी शेयरों में यह 10 फीसदी ही बढ़ा। बहरहाल, प्रति शेयर आय के मामले में समस्या स्पष्ट है। 12.6 फीसदी की मुनाफा वृद्धि के बावजूद एशियाई शेयरों की प्रति शेयर आय वृद्धि केवल 4.4 फीसदी रही जबकि अमेरिकी कंपनियों में यह 8.2 फीसदी रही (स्रोत: बोफा सिक्युरिटीज)। कुलमिलाकर इससे यही पता चलता है कि अंत में जीडीपी वृद्धि या राजस्व/मुनाफा वृद्धि नहीं बल्कि ईपीएस वृद्धि मायने रखती है जो बाजार को संचालित करती है। इस मानक पर एशिया अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रहा। उभरते बाजारों की भी कुल मिलाकर यही कहानी है। शेयरों की तादाद में बढ़ोतरी का असर शेयरों पर मिलने वाले प्रतिफल में भी नजर आता है। एशियाई देशों के शेयरों में यह 11 फीसदी रहा जबकि अमेरिका में 15 फीसदी। भारत में शेयरों की तादाद कम बढ़ने के कारण वह अमेरिका की बराबरी करने में कामयाब रहा। अन्य एशियाई देश ऐसा नहीं कर पाए। 13.7 फीसदी की सूचकांक आय और 8.2 प्रतिशत की प्रति शेयर आय के बीच का अंतर भारत के लिए शेष एशिया से कम था। यही कारण है कि प्रति शेयर प्रतिफल भी हमारे यहां 15-16 फीसदी के साथ काफी अधिक रहा। भारत में पूंजी तक पहुंच कभी आसान नहीं रही। शुरुआती वर्षों के दौरान इस कमी से जो अनुशासन आया वह आज भी नजर आता है। भारतीय निवेशक पूंजी किफायत को लेकर भी काफी सचेत हैं। उन कंपनियों को तवज्जो दी जाती है जो पूंजी पर उच्च प्रतिफल मुहैया कराती हैं। बीते 30 वर्षों में भारत बेहतरीन प्रदर्शन करने वाला उभरता बाजार रहा है। अमेरिका, स्वीडन और स्विट्जरलैंड के बाद भारत बीते 30 वर्षों में इक्विटी बाजार का चौथा सबसे बेहतर प्रदर्शन वाला देश रहा है। उभरते बाजारों में इसके बाद बेहतर प्रदर्शन करने वाला देश ब्राजील है। उसने तीन दशकों में डॉलर के संदर्भ में 6.2 फीसदी का प्रतिफल दिया है। हालांकि बीते 10 वर्ष और पांच वर्ष में उसका प्रदर्शन खराब रहा और उसने क्रमश: 5.7 फीसदी और 5.6 फीसदी का ऋणात्मक प्रतिफल दिया। भारत को उसकी निरंतरता अलग बनाती है। भारत तीन दशकों में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाला उभरता देश तो है ही 20, 10 और पांच वर्ष के प्रतिफल के मामले में भी यह शीर्ष दो देशों में शामिल है। यह उन दो अहम उभरते देशों में भी शामिल है जिनके प्रतिफल सकारात्मक हैं और डॉलर के संदर्भ में 6.5 फीसदी है। अधिकांश निवेशकों को भारत महंगा लगता है इसलिए वे नया निवेश करने में हिचकिचा रहे हैं। इस समय भी भारत अन्य उभरते बाजारों की तुलना में रिकॉर्ड मूल्यांकन पर काम कर रहा है। परंतु एक या दो वर्ष में अन्य उभरते बाजार वापसी करेंगे और तब भारत संभवत: प्रदर्शन में पिछड़ेगा। बहरहाल, दीर्घकालिक आंकड़े यही संकेत देते हैं कि वह निरंतर बेहतर प्रदर्शन करता रहेगा। यह वह अवधि है जब भारत चौतरफा प्रदर्शन नहीं कर रहा है। 2010 से 2020 के बीच हमने आय वृद्धि का एक दशक गंवाया। बीते पांच वर्षों में आर्थिक प्रदर्शन कमजोर रहा। इसी बीच आईएलऐंडएफएस का संकट भी आया। अब जब हम अगले दशक पर नजर डालते हैं तो अधिकांश निवेशक भारत के लिए एक दशक से अधिक की बेहतर अवधि देखते हैं। वे उद्यमिता और संपत्ति निर्माण का एक स्वर्णिम युग भी देखते हैं जहां स्टार्टअप को लेकर बना हुआ माहौल नई कंपनियों की सूचीबद्धता और व्यापक बाजार को गति देगा। जीडीपी के मामले में आज भारत वहां है जहां चीन 2007 में था। अधिकांश लोगों को लगता है कि कारोबारी प्रदर्शन और आयवृद्धि की एक मजबूत अवधि हमारे समक्ष है। जब तक पूंजी को लेकर अनुशासन बरता जाएगा, तब तक सब ठीक रहेगा। आय मजबूत रहेगी और वह प्रति शेयर आय में नजर आएगी। हम मजबूत प्रतिफल हासिल करने में कामयाब रहेंगे। परंतु एक विचार यह भी हो सकता है कि बीते 30 वर्षों के शानदार प्रदर्शन के बाद शायद लोग भारतीय बाजारों से बचें क्योंकि यहां मूल्यांकन काफी अधिक है। वहीं यह भी संभव है कि कठिन समय में बेहतर प्रदर्शन के कारण भारत को ढांचागत आवंटन का केंद्र मान लिया जाए। इन आंकड़ों पर नजर डालते हुए मेरी समझ तो यही कहती है कि अधिक से अधिक आवंटक भारत में ढांचागत आवंटन की सोच रहे हैं, बजाय कि भारत में बिकवाली करने के। (लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)
