यह ऐसा युग साबित हो सकता है जहां भू-राजनीतिक मुद्दे सीमा-पार के एकीकरण के लिए आवश्यक साबित हो सकते हैं। विस्तार से बता रहे हैं अजय शाह पहला वैश्वीकरण 1914 में समाप्त हुआ। दूसरा वैश्वीकरण सन 1980 के दशक के आरंभ में शुरू हुआ और बीते 40 वर्षों की समृद्धि की बुनियाद वही है। संभव है कि आज हम तीसरे वैश्वीकरण के उभार के साथ बदलाव के मोड़ पर हों। इस बार सीमापार एकीकरण को लेकर अधिक सतर्कता है जहां भूराजनीतिक सुसंगतता एक अतिरिक्त विशेषता है जो घरेलू पूर्वग्रह को आकार देती है। यह घटनाक्रम भारतीय कंपनियों के लिए भी मायने रखता है। पुराने दिनों में विभिन्न देश वस्तुओं के आवागमन, सेवा, श्रम और पूंजी आदि जैसी स्वायत्तताओं में हस्तक्षेप नहीं करते थे। शासक चाहे अशोक हो या अकबर, वे अधिकांश स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करते थे। तकनीकी बदलावों से भी सीमापार के आवागमन में भारी सुधार आया। भारत के लिए दो अहम घटनाक्रम थे स्वेज नहर (1869) जिसके जरिये बंबई से लंदन तक की समुद्री दूरी कम हुई और दूसरा बंबई -लंदन टेलीग्राफ सेवा (1870)। सन 1914 में जब पहला वैश्वीकरण समाप्त हुआ तब पहली बार पासपोर्ट की वजह से लोगों का आवागमन थम गया। तभी पहली बार नाजियों ने पूंजी की गतिशीलता पर भी रोक लगा दी क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि यहूदी उनकी संपत्ति को बाहर ले जाएं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैश्वीकरण धीरे-धीरे वापस पटरी पर आया और सन 1980 के आरंभ तक सीमापार गतिविधियों तथा कुछ उपायों ने 1913 के मूल्यों में इजाफा किया। सन 1980 के बाद की अवधि को दूसरा वैश्वीकरण कहा जाता है। यूरोपीय संघ वैश्वीकरण की प्रयोगशाला रहा है। वहां के देश ऊपर वर्णित चार स्वतंत्रताओं में बाधा नहीं बनते। इस सफर के साथ एक बड़ी बहस सीमापार के आर्थिक एकीकरण की भूमिका तथा शांति और स्वतंत्रता के प्रश्नों की भी थी। इस मामले में दो खेमे हैं। एक खेमे का मानना है कि भूराजनीतिक समस्याओं को पहले हल करना चाहिए और उसके बाद सीमापार एकीकरण की दिशा में बढ़ा जा सकता है। द वेल्थ ऑफ नेशंस में एडम स्मिथ लिखते हैं, ‘बर्बर देशों के साथ व्यापार के लिए किलों की आवश्यकता होती है जबकि अन्य देशों के साथ व्यापार के लिए राजदूतों की जरूरत होती है।’ दूसरा खेमा पारस्परिक निर्भरता के सभ्य प्रभाव में यकीन रखता है। ज्यादा एकीकरण से युद्ध की ओर झुकाव कम होगा। जब किसी अधिनायकवादी देश में लोग बाहरी दुनिया से संपर्क करते हैं तो उन्हें बेहतर जीवन के बारे में पता चलता है और वह मुल्क अधिक आजादी की मांग करता है। हमारे देश में कारोबारियों का अनुभव यही है कि विकसित देशों में कंपनियां मूल्यों या भूराजनीतिक सुसंगतता की परवाह नहीं करती हैं, वे केवल कम कीमत की परवाह करती हैं। एक हद तक इससे यह भी पता चलता है कि बाद वाले खेमे को किस हद तक बढ़त हासिल है। उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अमेरिका में यह रुझान रहा है कि उसे चीन का उद्धारक होना चाहिए। यही बात सन 1972 के समझौतों का आधार बनी और अमेरिका ने चीन को विश्व व्यापार संगठन में लाने में सहायता की। ऐसा महसूस किया गया कि एक बार चीन के लोग जब देखेंगे कि मानवीय संभावनाएं मनुष्य को क्या दिला सकती हैं तो चीन की सरकार अधिक नरम पड़ेगी। शी चिनफिंग के कार्यकाल ने इसे गलत साबित किया। उन्होंने 2013 में सत्ता संभाली और बीते नौ वर्ष में चीन में सत्ता का केंद्रीकरण ही बढ़ा है। जर्मनी में पूर्वी मोर्चे पर वेहरमाश यानी रक्षा शक्ति को लेकर अपराध बोध की भावना रही। सन 1960 के आरंभ से ही जर्मनी ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ व्यापार एकीकरण का प्रयास किया ताकि वह उसे सभ्य बना सके। कहा गया कि व्यापार सामाजिक और राजनीतिक बदलाव ला सकता है। जर्मन नीति निर्माताओं ने रूसी गैस पाइपलाइन पर अतिरिक्त निर्भरता के कारण अहम ऊर्जा सुरक्षा गंवा दी। 2008 में जॉर्जिया और 2014 तथा 2022 में यूक्रेन में व्लादीमिर पुतिन के व्यवहार को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये प्रयास गलत साबित हुए। जैसा कि इतिहासकार टिमथी स्नाइडर कहते हैं, ‘तीस वर्षों तक जर्मनी ने यूक्रेन के लोगों को फासीवाद पर भाषण दिया। जब वास्तव में फासीवाद आया तो जर्मनी ने उसे धन मुहैया कराया और यूक्रेन के लोग उससे लड़ते हुए मारे गए।’ इन घटनाओं से वैश्विक स्तर पर नजरिया बदला। हालांकि अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन 2022 में तीसरे वैश्वीकरण की शुरुआत देखने को मिल सकती है जहां भूराजनीतिक मसले सीमापार एकीकरण पर भारी पड़ेंगे और वैश्वीकरण केवल लोकतांत्रिक देशों तक सीमित रह जाएगा। जर्मनी द्वारा रूस से तेल एवं गैस खरीदने में कमी आई है। अमेरिका ने अपनी कुछ कंपनियों के चीन में फैक्टरी लगाने पर रोक लगाई है और अमेरिका में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर नए प्रतिबंध लगाए हैं। ऐसे कई रणनीतिक कदम एक ऐसी नीति से उत्पन्न हुए हैं जिनका जिक्र अमेरिकी वित्त मंत्री जैनेट येलन ने 13 अप्रैल को किया था। बौद्धिक और नीतिगत समुदाय में आम सहमति एडम स्मिथ के बयान के पक्ष में स्थानांतरित हो गई है। कारोबारी दुनिया में नजरिया भी बदला है। सन 1989 के बाद से वित्तीय जगत के लोग और कंपनियों में भूराजनीतिक दिक्कतों को लेकर एक बुनियादी आशावाद रहा है। यह महसूस किया गया कि कारोबारी विचार ही सर्वोच्च थे और सभी गरीब देश तेजी से यह सीख जाएंगे कि दमन से आजादी कैसे हासिल की जाए। परंतु निवेशकों और बड़ी कंपनियों को चीन और रूस में जो भारी नुकसान हुआ है उसने इस विश्वास को हिला कर रख दिया। वैश्विक कंपनियों के बोर्ड रूम उन देशों की राजनीतिक व्यवस्था के बारे में और अधिक प्रश्न कर रहे हैं जहां कारोबार किए गए। निवेश प्रक्रिया में आजादी की चिंताओं के सर उठाने पर पर्यावरण, सामाजिक और संचालन संबंधी निवेश ने इस प्रक्रिया में सहायता प्रदान की है। इन तमाम घटनाओं के भारतीय कंपनियों के लिए अहम निहितार्थ हैं। वैश्विक कंपनियां अधिनायकवादी देशों में कम कारोबार करना चाहती हैं। ऐसे में वे भारत में कारोबार बढ़ाने की संभावनाएं तलाश करेंगी। विकसित देशों के विधिक व्यक्ति तथा उत्पादन मंचों को कारोबारी निरंतरता तथा बढ़ी हुई पहुंच हासिल होगी। आजादी और भूराजनीतिक सुसंगतता के प्रश्न पर भारत का आचरण भी वैश्वीकरण में भारत की स्वीकार्यता को लेकर मायने रखेगा। गत 16 सितंबर को जब भारतीय प्रधानमंत्री पुतिन से मिले तो फाइनैंशियल टाइम्स (मोदी ने यूक्रेन युद्ध पर पुतिन को झिड़का) और द न्यूयॉर्क टाइम्स (भारत के नेता ने पुतिन से कहा कि यह युद्ध का युग नहीं है) ने जो सुर्खियां छापीं वे भारतीय कंपनियों के लिए सकारात्मक थीं।
