एक विचारधारा ऐसी भी है कि भारत व्यापार के खिलाफ है। यह धारणा इसलिए बनी कि भारत लगातार चीन की आरसेप और अब अमेरिका की आईपीईएफ जैसी क्षेत्रीय व्यापारिक व्यवस्थाओं में शामिल होने का अनिच्छुक बना रहा या इससे इनकार करता रहा। भारत विश्व व्यापार संगठन का भी एक अनिच्छुक समर्थक रहा है। कुल मिलाकर उसने हमेशा द्विपक्षीय समझौतों को तरजीह दी है। कई अर्थशास्त्री और राजनयिक सोचते हैं कि व्यापार को लेकर यह रुख सही नहीं है। वहीं ऐसा सोचने वाले भी हैं कि यह सही रवैया है।इस 35 वर्ष पुरानी बहस में एक बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें अच्छे और बुरे का आकलन करने के कोई विशिष्ट मानक नहीं हैं। दूसरी समस्या यह रही है कि सरकार हमेशा बौद्धिक संबद्धता की शर्तें तय करती है, भले ही उसके पास ऐसा करने की पूरी तैयारी न हो। इसका परिणाम उन लोगों के बीच ध्रुवीकरण के रूप में सामने आता है जो या तो आजीविका के संदर्भ में दलील देते हैं (सरकार) तथा वे जो आर्थिक क्षमता और तकनीक हस्तांतरण के संदर्भ में दलील देते हैं। इससे एक स्वाभाविक समस्या उत्पन्न होती है- दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही हैं। ऐसे में अंतत: बात केवल संतुलन की रह जाती है। लेकिन प्रश्न यह है कि आप संतुलन कैसे कायम करेंगे जब आप पहले उपरोक्त मानक पर सहमत नहीं हुए?विजेताओं और पराजित होने वालों के बारे में भी स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। सरकार नहीं चाहती कि कोई पराजित हो या पीछे रहे। यह बात राजनीतिक रूप से वांछित हो सकती है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर यह असंभव है। दूसरा पक्ष कहता है कि बाजार को तय करने दीजिए, भले ही पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो। इससे लगने वाले झटके और उसके परिणामस्वरूप आने वाले सुदृढ़ीकरण से पूरे देश को लाभ ही होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा कोई बिंदु नहीं हैं जहां आगामी चुनावों की बाट जोह रही अर्थव्यवस्था और अगले दशक के बारे में विचार कर रही अर्थव्यवस्था का मेल हो।पहली बात जो स्वीकार करनी होगी वह यह कि हमारी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी नहीं है। विश्व अर्थव्यवस्था के समक्ष हमारी वही स्थिति है जो भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष अन्य छोटे देशों की है यानी महत्त्वहीन। हम कारोबारी समूहों के साथ तभी समझदारीपूर्वक संपर्क कर सकेंगे जब हम स्वीकार कर लें कि वास्तव में हम एक छोटी सी अर्थव्यवस्था हैं। एक कमी यह है कि हमारे पास मोलतोल की कोई क्षमता नहीं है और अमेरिका तथा चीन जैसी किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था के नेतृत्व वाली व्यवस्था में हम हमेशा नुकसान में रहेंगे। हमें उनके शासन में रहना होगा। ऐसे में बाहर रहना समझदारी भरा फैसला माना जा सकता है।जब हम किसी खेमे में नहीं होते तो हमारा आकार काफी बड़ा प्रतीत होता है लेकिन जैसे ही हम किसी खेमे या कारोबारी समूह में आते हैं तो न केवल आर्थिक रूप से हमारा आकार छोटा हो जाता है बल्कि समूह के भीतर समर्थकों की तादाद की दृष्टि से भी हमारा आकार छोटा दिखता है।उस लिहाज से देखा जाए तो आजीविका की दलील को राजनेता दरकिनार कर सकते हैं क्योंकि वे तात्कालिक राजनीतिक समस्याओं को अधिक तरजीह देते हैं, बजाय कि मध्यम अवधि के आर्थिक नतीजों के।संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने दोहा दौर की वार्ता में कृषि को लेकर आजीविका की दलील दी। हकीकत में इस बात का कोई आधार नहीं था लेकिन कोई राजनीतिक दल किसान विरोधी होने का ठप्पा लगवाना नहीं चाहेगी। यह एक ऐसी हकीकत है जो अमेरिका पर लागू नहीं होती है। वहां किसान आबादी का केवल 1.5 फीसदी हैं और चीन की बात करें तो वह निजी स्तर पर व्यक्तियों की बहुत अधिक परवाह नहीं करता।तीन दशकों तक इन व्यापारिक नीतियों संबंधी बहसों पर नजर रखने के बाद मैं यह प्रस्ताव रखना चाहूंगा कि हमें विशिष्ट संतुलन पर अधिक ध्यान देना चाहिए और सामान्य मान्यताओं पर कम।पहली बात, विश्व व्यापार संगठन में चीन के साथ दुनिया का जो अनुभव रहा है उससे पता चलता है कि आपको केवल अपनी नीतियों में ही बदलाव नहीं करना होता है बल्कि आपको हमेशा इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा चीन क्या करता है।दूसरी बात, हमेशा ऐसी निर्यात और विनिमय दर नीतियां अपनाएं जिनके बारे में अनुमान लगाया जा सकता हो। एक बेहतरीन अर्थशास्त्री रहे दिवंगत राहुल खुल्लर भी अक्सर इसी बात का उल्लेख किया करते थे। बतौर वाणिज्य सचिव उन्होंने अनुमान न लगा पाने की अनिश्चितता को बहुत करीब से देखा था।तीसरी बात, उन अर्थशास्त्रियों और राजनयिकों की बात नहीं सुनें जो पूरी प्रक्रिया में शामिल न हों और जिनका उसमें कुछ दांव पर न लगा हो। इसके बजाय केवल व्यापार नीति से जुड़े वकीलों और किसानों तथा कारोबारी लोगों की बात सुनें। यदि इन लोगों की सहमति मिले तभी किसी व्यापार ब्लॉक का हिस्सा बनें, उसमें शामिल हों। अगर वे इससे इनकार करें तो दूरी बनाए रखें।
