धान की कटाई का मौसम लगभग आ ही गया है और लगता नहीं कि उत्तर भारत के चावल उगाने वाले राज्यों में से किसी के पास भी किसानों को फसल-अवशेष यानी पराली जलाने से रोकने का कोई उपाय है। हर वर्ष अक्टूबर-नवंबर में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र इसी पराली को जलाए जाने के कारण वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या से जूझता है। फसलों के अवशेष जलाने से बड़े पैमाने पर धुआं और जहरीली गैस निकलती हैं जिससे आंखों में जलन, सांस लेने में तकलीफ समेत कई गंभीर बीमारियां पैदा होती हैं। दिल्ली और पंजाब सरकारों ने पेशकश की थी कि वे धान के खेतों में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित सूक्ष्मजीव आधारित अपघटक का छिड़काव करेंगी लेकिन किसानों ने इसे अव्यावहारिक बताते हुए ठुकरा दिया। दरअसल इस प्रक्रिया में फसल अवशेष को अपघटित होने में 20 से 25 दिन का वक्त लगता है और किसान अगली फसल की बोआई के लिए इतनी लंबी प्रतीक्षा नहीं कर सकते। फसल अवशेष प्रबंधन मशीनरी का इस्तेमाल एक व्यावहारिक हल प्रतीत होता है लेकिन इसमें अतिरिक्त व्यय होने के कारण बिना आर्थिक सहायता के किसान इसे उचित नहीं पाते। अधिकांश राज्यों में उन्हें आर्थिक सहायता नहीं मिलती।अब कई तरह की मशीन भी आती हैं जो कम समय में धानी खूंटियों का प्रबंधन करके अगली फसल की बोआई समय पर होना सुनिश्चित करती हैं। किसानों द्वारा अपने खेत में पराली जलाने की मुख्य वजह भी यही है कि वे समय पर खेत तैयार चाहते हैं। हैप्पी सीडर और सुपर सीडर जैसे उपकरण अब बिना पुरानी फसल के अवशेष को खेतों से निकाले ही नई फसल की बोआई कर देते हैं। कुछ बड़ी मशीनें ऐसी भी हैं जो धान की कटाई करती हैं, उसके डंठल को टुकड़ों में तोड़ती हैं और उसे जमीन पर बिखेर देती हैं अथवा उसे एकबारगी बंडल में बांध देती हैं। परंतु ये मशीनें बहुत महंगी पड़ती हैं और आम किसान इन्हें नहीं खरीद सकते। राज्य सरकार सहकारी समितियों तथा अन्य सेवा प्रदाताओं द्वारा इन मशीनों की खरीद पर सब्सिडी देती है लेकिन अज्ञात वजहों से वह किसानों को इनके इस्तेमाल के शुल्क में कोई वित्तीय मदद नहीं देती है।हरियाणा इकलौता राज्य है जो किसानों को इस उद्देश्य से 2,500 रुपये प्रति एकड़ की राशि का भुगतान करता है लेकिन यह राशि भी वास्तविक लागत की तुलना में बहुत कम है। उनके लिए खेतों को नई बोआई के लिए तैयार करने का सबसे सरल और सस्ता तरीका है फसल अवशेषों को आग के हवाले कर देना। ऐसे में यह स्पष्ट है कि फसल अवशेषों को जलाना एक आर्थिक मसला है जिसके लिए आर्थिक हल की आवश्यकता है। गेहूं के डंठल जहां पशुओं के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल होते हैं और बाजार में अच्छी कीमत पर बिकते हैं, वहीं धान के अवशेष पशुओं के खाने में इस्तेमाल नहीं होते है क्योंकि इनमें एक सख्त रेतीला पदार्थ होता है। यही वजह है कि इनकी कीमत भी अधिक नहीं होती। जब तक चावल के डंठल को आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं बनाया जाएगा तब तक किसानों को इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जा सकेगा कि वे इसे पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित ढंग से निपटाने में पैसे खर्च करें।अच्छी बात यह है कि फसल अवशेषों के संभावित लाभकारी उपयोगों की कोई कमी नहीं है। इनकी मदद से विभिन्न प्रकार के कागज तथा बोर्ड बनाए जा सकते हैं, ताप बिजली घरों में इनसे बने उत्पाद कोयले की जगह ले सकते हैं या फिर इन्हें पेट्रोल के साथ मिलाकर जैव ईंधन में तब्दील किया जा सकता है। हरियाणा पहले ही पानीपत में जी2 एथनॉल संयंत्र लगा चुका है जो इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन की रिफाइनरी के करीब है। इसकी मदद से धान तथा अन्य कृषि अवशेषों से अल्कोहल तैयार किया जाता है। ऐसे में फसल अवशेष जलाने की समस्या का एक टिकाऊ हल यह भी है कि ऐसे आर्थिक उपायों की मदद से इस बायोमास के इस्तेमाल को बढ़ावा देकर इसे किसानों के लिए आय का जरिया बना दिया जाए। ऐसे में पानीपत के आसपास के इलाकों की तरह खेतों से फसल अवशेष जुटाकर उन्हें अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचाने की आपूर्ति श्रृंखला भी तैयार हो जाएगी।
