भविष्य में मूल्य से जुड़े जोखिम हमारे सामने आ सकते हैं और मौद्रिक हालात सख्त बने रह सकते हैं। बता रहे हैं नीलकंठ मिश्र यह प्राय: एशिया से वस्तुओं को अमेरिका भेजे जाने का सबसे व्यस्त मौसम है। यही वह समय है जब कंटेनरशिप माल लेकर आवाजाही करते हैं और इस बीच खुदरा कारोबारी भी कारोबार की तैयारी में लग जाते हैं। हालांकि माल ढुलाई के किराये में गिरावट आ रही है और शांघाई-लॉस एंजलिस जैसे मार्ग पर यह 52 सप्ताह के उच्चतम स्तर से आधा रह गया है। चूंकि नौवहन क्षमता में समुचित विस्तार नहीं हुआ है तो इसका अर्थ यही है कि मालवहन की मांग कमजोर रही है।चीन से अमेरिका जाने वाले प्रमुख मार्गों पर लीड टाइम छह माह में 83 दिन से घटकर 63 दिन रह गया है। माना जा रहा है कि अगले कुछ महीनों में यह 40 से 45 दिन हो जाएगा। लीड टाइम से तात्पर्य उस अवधि से है जो किसी कच्चे माल की जरूरत महसूस होने से उसके मिलने तक व्यय होता है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के दबाव कम होना एक सकारात्मक बात है लेकिन कुछ तिमाहियों तक यह एशियाई निर्यातकों की ऑर्डर की कमजोरी की वजह बन सकता है। कितनी इन्वेंटरी बनाकर रखनी है यह आकलन करने के लिए सबसे अहम कारक होता है कि किसी कंपनी में एक खास समय में औसतन कितने ग्राहक आ रहे हैं। उदाहरण के लिए अगर ट्रक या पोत सप्ताह में एक बार आता है तो एक सप्ताह की बिक्री के लिए पर्याप्त भंडार होना चाहिए। अगर यह समय दोगुना हो जाता है तो आपूर्ति श्रृंखला में इन्वेंटरी दोगुनी हो जाएगी। एक बार लीड टाइम के सामान्य हो जाने पर यह अनावश्यक हो जाएगा। यह याद रखें कि चीन और यूरोप की कमजोरी के चलते वैश्विक वस्तुओं की मांग पहले ही कमजोर है। यूरोप का व्यापार संतुलन जून तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद का 5 फीसदी था जो कोविड के पहले के औसत से कमतर था। कमजोर यूरो या उच्च ब्याज दरों के कारण वस्तु आयात के भी आगे चलकर कमजोर रहने की आशंका है। पाठकों को याद होगा कि चीन की खुदरा बिक्री अब अमेरिका की दोतिहाई है और कोविड के कारण लगे लॉकडाउन द्वारा बिक्री को बाधित करने और उपभोक्ता रुझान कमजोर करने के पहले भी वृद्धि में धीमापन आ रहा था। विश्लेषक वृद्धि के पूर्वानुमानों में कमी कर रहे हैं। उदाहरण के लिए निजी कंप्यूटरों की सालाना बिक्री पर उद्योग जगत की सहमति 30 करोड़ के आंकड़े पर है और इसमें गिरावट आ रही है। कोविड के पहले यह स्तर 26 करोड़ था जो सुधरकर 34 करोड़ तक गया था। इसी प्रकार विश्व स्तर पर सालाना स्मार्ट फोन की ढलाई अब 2022 के शुरुआती स्तर से एक चौथाई कम हो गई है। ऐसे में अनुमान है कि आगे और गिरावट आ सकती है जो कीमतों में कमी के रूप में नजर आएगी। फैक्टरियों का अनुमान से कम उपयोग कंपनियों को मजबूर कर रहा है कि वे कीमतों में कमी के साथ बाजार हिस्सेदारी बरकरार रखें। तांबा और एल्युमीनियम जैसी धातुएं जिनका एक्सचेंज पर कारोबार होता है और जिनका वायदा बाजार है, उनकी कीमतों में पहले ही काफी कमी आई है। डिस्प्ले पैनल और मेमरी चिप जैसे उच्च तकनीक वाले जिंस क्षेत्र में भी कीमतों में कमी आई है। अगले चरण में वह क्षेत्र हो सकता है जहां कीमतों में ठहरकर कमी आती है। उदाहरण के लिए कुछ खबरों के मुताबिक कुछ सेमीकंडक्टर फाउंड्रीज 10 से 20 प्रतिशत मूल्य रियायत दे रही हैं। कुछ माह पहले तक इस क्षेत्र में आपूर्ति काफी तंग रही है। क्या कीमतों में यह गिरावट मौद्रिक नीति की दिशा को आक्रामक सख्ती से बदल सकता है और उसमें कुछ सहजता आ सकती है? कम से कम कुछ तिमाहियों तक ऐसा होता नहीं दिखता। अमेरिका में खपत में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से अधिक और वहां मांग जो अभी भी कोविड से पहले के स्तर से नीचे चल रही है, उसमें कुछ समय तक इजाफा होता रहेगा। बीते कुछ महीनों में अमेरिका में मुद्रास्फीति में सेवा की हिस्सेदारी बढ़ी है क्योंकि इस अवधि में मेहनताना स्थिर रहा है। यह बहस की जा सकती है कि मेहनताने में वृद्धि के सामान्य होने के लिए बेरोजगारी का क्या स्तर होना चाहिए और क्या उसके लिए अमेरिका में मंदी जैसी स्थिति की जरूरत होगी लेकिन कम से कम आगामी एक साल तक मौद्रिक नीति के स्तर पर सहजता आती नहीं दिखती। इस बीच गैर अमेरिकी केंद्रीय बैंकों को मौद्रिक नीति सख्त बनाकर रखनी होगी और केवल विनिमय दर को स्थिर रखने से काम नहीं चलेगा। अमेरिकी डॉलर की तुलना में इस वर्ष अधिकांश मुद्राओं का अवमूल्यन हुआ है। ऐसे में कुछ और तिमाहियों तक अमेरिकी नीतियों का प्रभाव एशिया तथा उभरते बाजारों की राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों पर नकारात्मक ही रहेगा। राजकोषीय सख्ती वस्तुओं की मांग पर असर डालती है मौद्रिक हालात के सख्त होने से स्थानीय मांग को नीतिगत गति नहीं मिल पाती। यह मामला रूस-यूक्रेन विवाद के चलते ऊर्जा बाजार में और चीन के अचल संपत्ति बाजार में अस्थिरता के कारण उत्पन्न विसंगतियों से इतर है। अधिकांश आर्थिक रुझानों में स्वयं सुधार का प्रवृत्ति होती है। उदाहरण के लिए घटती कीमतों के कारण वस्तुओं की मांग बढ़ सकती है। सख्त मौद्रिक हालात मुद्रास्फीति को कम कर सकते हैं। कमजोर मुद्रा एक तरह की मौद्रिक सहजता है और मजबूत अमेरिकी डॉलर एक तरह की मौद्रिक सख्ती। यानी अगर डॉलर मजबूत होता रहा तो शायद ब्याज दरों में उतना इजाफा नहीं करना पड़े जितना पहले सोचा गया था। शेयर बाजार, खासकर भारत के बाजार कमजोरी की इस अवधि के बीच कुछ तिमाहियां बिताना चाहते हैं। इस बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था में दुर्घटनाओं के जोखिम बरकरार हैं। वहां मुश्किलें तभी सामने आती हैं जब वृद्धि कमजोर हो। 2019 से 2021 के बीच कई मझोले आकार की अर्थव्यवस्थाओं में वस्तु निर्यात की दर जीडीपी के 6 से 15 फीसदी के बीच रही। मौजूदा भूराजनीतिक संदर्भों को देखें तो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और आर्थिक समूहों के बीच नीतिगत समन्वयन तभी पनप सकता है जब कोई संकट की स्थिति हो। संकट की स्थिति नीति निर्माताओं को यह अवसर देती है कि वे ऐसे निर्णय लें जो राजनीतिक हकीकतों के कारण अन्यथा नहीं लिए जाते। भारतीय नीति निर्माताओं के लिए इसका अर्थ है कमजोर पूंजीगत आवक का लंबा दौर और बढ़ा हुआ भुगतान संतुलन घाटा। भारत में निवेश चक्र जिसने पिछली कुछ तिमाहियों में तेजी देखी थी वह भी जोखिम में है। वैश्विक स्तर पर अतिरिक्त क्षमता के प्रमाण भारत में भी नई क्षमता की जरूरत पर जोर बढ़ा सकते हैं। ऐसा केवल निर्यात की कमजोर संभावना की बदौलत नहीं होगा बल्कि आयात को बढ़ते खतरे की बदौलत भी ऐसा होगा। इकलौती राहत ईंधन की कमजोर कीमत से मिल सकती है लेकिन आपूर्ति में कमी उसे भी प्रभावित कर सकती है।
