भारत द्वारा इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) के व्यापारिक स्तंभ से बाहर रहने का निर्णय निराश करने वाला है और वह दीर्घकालिक आर्थिक संभावनाओं पर विपरीत प्रभाव डालेगा। हालांकि भारत इस फ्रेमवर्क के तीन अन्य स्तंभों-आपूर्ति श्रृंखला, कर एवं भ्रष्टाचार विरोध तथा स्वच्छ ऊर्जा में शामिल है लेकिन व्यापार को लेकर उसका रुख उसकी समग्र स्थिति को कमजोर करेगा। सरकार की दलील है कि व्यापार के संदर्भ में श्रम, पर्यावरण और सरकारी खरीद जैसे क्षेत्रों में की जाने वाली प्रतिबद्धताओं की रूपरेखा अभी उभर ही रही है। यह स्पष्ट नहीं है कि कौन से सदस्य देश लाभान्वित होंगे और क्या कुछ शर्तें विकासशील देशों के विरुद्ध भेदभाव करने वाली होंगी। सरकार ने कहा है कि वह व्यापार वाले पहलू को लेकर चर्चा में शामिल रहेगी और अंतिम रूपरेखा तय होने की प्रतीक्षा करेगी। अगर भारत भी उन शर्तों के निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा होता तो अधिक बेहतर होता। अमेरिकी नेतृत्व वाले आईपीईएफ की घोषणा मई में की गई थी और इसमें 13 सदस्य हैं। हालांकि यह सदस्य देशों के बीच व्यापार समझौता नहीं है और यह एक तरह का मंच है जो अलग-अलग क्षेत्रों में मानकों पर आधारित है लेकिन इसने भारत को यह अवसर मुहैया कराया था कि वह क्षेत्र के देशों तथा अमेरिका के साथ साझेदारियां विकसित कर सके। यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत बडे व्यापारिक समझौतों का हिस्सा नहीं है। फ्रेमवर्क के व्यापारिक पहलू पर भारत का रुख उसकी स्थिति को कई तरह से कमजोर करता है। उदाहरण के लिए व्यापारिक पहलू से दूर रहने से इस बात की काफी संभावना है कि भारत आईपीईएफ के आपूर्ति श्रृंखला वाले पहलू से भी बाहर रह जाएगा क्योंकि दोनों आपस में संबंधित और एक दूसरे पर निर्भर हैं। इतना ही नहीं इससे यह संकेत भी जाएगा कि भारत अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत की सदस्यता वाले क्वाड सामरिक समूह का सदस्य केवल संकीर्ण भूराजनीतिक सुरक्षा की दृष्टि से बना है और वह इस क्षेत्र में व्यापक आर्थिक साझेदारी के लिए तैयार नहीं है। स्पष्ट है कि अगर भारत इस क्षेत्र में चीन के दबदबे के विकल्प के रूप में बनाए गए फोरम का सक्रिय सदस्य नहीं रहता है तो वह व्यापारिक तथा अन्य पहलुओं पर और अधिक अलग-थलग पड़ता जाएगा। व्यापार की बात करें तो शायद भारत का ध्यान द्विपक्षीय समझौतों पर केंद्रित है। यह रुख सही नहीं है। भारत बड़े समझौतों में जिन मानकों और शर्तों को लेकर असहज है वे तो विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भी उभरेंगे। ऐसी शर्तों को दरकिनार करने से केवल हल्के समझौते होंगे जो शायद दूर तक न चलें। भारत की व्यापार नीति की बुनियादी रूप से समीक्षा करने की जरूरत है। इसी आधार पर जरूरी सुधारों को तेज गति से अंजाम देने की आवश्यकता है। व्यापार के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन के लिए यह आवश्यक है कि हम वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनें। ऐसा तभी हो सकता है जब भारत भी बड़े व्यापारिक समूहों में शामिल हो तथा ऐसे समझौतों की शर्तों का पालन करने की इच्छा रखता हो। चूंकि भारत ऐसा करने का इच्छुक नहीं नजर आता है और हाल के वर्षों में उसने घरेलू कारोबारों को बचाने के लिए दरें बढ़ाई हैं इसलिए वैश्विक मूल्य श्रृंखला में उसकी हिस्सेदारी कम हुई है। आईपीईएफ पर भारत का रुख और कुछ वर्ष पहले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से बाहर होने का उसका निर्णय जैसी बातें द्विपक्षीय व्यापार वार्ताओं में उसकी स्थिति को भी प्रभावित करेंगी। वह ऐसी वार्ताओं में मजबूती के साथ अपनी बात नहीं रख सकेगा। ऐसे में बेहतर होगा कि भारत आईपीईएफ में अपने रुख की समीक्षा करे क्योंकि इसके भूराजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं।
