अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन जेरोम पॉवेल शुक्रवार को जैकसन होल इकनॉमिक पॉलिसी सिंपोजियम में केवल नौ मिनट तक बोले लेकिन इस दौरान उन्होंने बहुत साफ ढंग से अपना संदेश दे दिया। वित्तीय बाजारों में गिरावट आई और एसऐंडपी 500 सूचकांक 3.3 फीसदी गिरा। जिंस कीमतों में गिरावट के कारण कम मुद्रास्फीति के शुरुआती संकेतों के साथ बाजार ने यह यकीन करना शुरू कर दिया है कि फेड उस हद तक नीतिगत सख्ती नहीं बरतेगा जितनी कि पहले उम्मीद की जा रही थी। पॉवेल के हालिया वक्तव्यों में से एक की इसी तरह व्याख्या की गई। परंतु इस बार उन्होंने ज्यादा स्पष्ट तरीके से बात की और कहा कि मूल्य स्थिरता बहाल करने में समय लगेगा और फेड अपने उपायों का इस्तेमाल करके ‘दबावपूर्वक मांग और आपूर्ति को सही संतुलन में लाएगा।’ यकीनन अल्पावधि में अर्थव्यवस्था को इसकी कीमत चुकानी होगी। फेड के रुख में यह नयी स्पष्टता वैश्विक वित्तीय बाजारों में समायोजन की मांग करती है। अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर जून के 9.1 प्रतिशत से घटकर जुलाई में 8.5 फीसदी हो गई तथा फेड के 2 फीसदी के लक्ष्य से काफी ऊंची बनी हुई है। ऐसे में वित्तीय बाजारों के लिए अहम सवाल यह है कि फेड ब्याज दरों में कब तक और किस हद तक इजाफा करेगा। उसने बीती दो बैठकों में हर बार नीतिगत दरों में 75 आधार अंकों का इजाफा किया। संभव है कि सितंबर में अगली बैठक में भी ऐसा ही देखने को मिले तथा उसके बाद दरों में इजाफे की गति कम की जाए। निरंतर वृद्धि से वैश्विक वित्तीय हालात तंग होंगे तथा भारत जैसे उभरते बाजार वाले देशों में पूंजी की आवक पर असर होगा। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि विकसित देशों के अन्य बड़े केंद्रीय बैंकों द्वारा भी सख्ती बरते जाने का अनुमान है। यूरोपीय केंद्रीय बैंक द्वारा सितंबर में नीतिगत दरों में 50 आधार अंकों का इजाफा करने का अनुमान है। अर्थव्यवस्था की स्थिति के अलावा यूरोपीय केंद्रीय बैंक को इस क्षेत्र में सॉवरिन ऋण पर संभावित असर पर भी नजर रखनी होगी। हेज फंड्स के बारे में जानकारी है कि वे इटली के ऋण के खिलाफ दांव लगा रहे हैं। इस बीच बैंक ऑफ इंगलैंड के सामने भी कई बड़ी चुनौतियां आ सकती हैं। एक अनुमान के मुताबिक यूनाइटेड किंगडम में मुद्रास्फीति की दर अगले वर्ष के आरंभ में 18 फीसदी तक पहुंच सकती है। विकसित देशों में मौद्रिक नीति संबंधी कदमों के कारण निकट से मध्यम अवधि के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था को वृद्धि के जोखिम बढ़ सकते हैं। कमजोर वैश्विक अर्थव्यवस्था और तंग वित्तीय हालात भारत जैसे उभरते बाजार वाले देश को कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं। कमजोर वैश्विक मांग के कारण निर्यात प्रभावित होगा, जोखिम से बचाव के कारण पूंजी की आवक पर दबाव बना रहेगा। इसका असर जिंस कीमतों को लेकर भारत की बाहरी स्थिति पर भी पड़ सकता है। खासतौर पर तब जबकि कच्चे तेल की कीमतों के ऊंचा बने रहने का। गत सप्ताह ऐसी खबर आई थीं कि भारतीय सॉवरिन बॉन्ड को वैश्विक सूचकांक में शामिल करने पर विचार किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप करीब 30 अरब डॉलर की संभावित स्थिर आवक देखने को मिल सकती है। यह आवक मुद्रा को काफी अधिक स्थिरता प्रदान करेगी और सरकार के लिए उधारी की लागत कम होगी। ऐसे में नीति निर्माताओं को इससे अत्यधिक सावधानी से निपटना होगा। इस दौरान मजबूत मुद्रा के लिए व्यवस्थागत पूर्वग्रह की इजाजत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि उससे दीर्घावधि का असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। कुल मिलाकर वैश्विक हालात, खासतौर पर भू-राजनीतिक कारणों से उत्पन्न हालात निकट भविष्य में अनुकूल नहीं होंगे तथा ये भारत के आर्थिक निष्कर्षों को भी प्रभावित करेंगे। नीतिगत आकलन तथा बाजार अनुमानों को हकीकत के अनुरूप ही समायोजित किया जाना चाहिए।
