यह एक अप्रामाणिक-अपुष्ट वाकया है, लेकिन भारत जैसे देश में शासन-संचालन यानी गवर्नेंस के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को रेखांकित करने वाला है। यह कहानी नब्बे के दशक के आखिरी पड़ाव की है, जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। भारतीय कारोबारी दिग्गजों के समूह ने वाजपेयी से गुहार लगाई कि वे जिन क्षेत्रों में कारोबार कर रहे हैं, उनमें वह विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान करें। उन्होंने नीतिगत परिवर्तन के पक्ष में जबरदस्त पैरवी की और मान बैठे कि उन्होंने प्रधानमंत्री को आश्वस्त कर लिया है। वहीं वाजपेयी ने भी यह मान लिया होगा कि उनका मान जाना ही पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि विदेशी निवेश की अनुमति का मामला स्वयं उनकी पार्टी के भीतर कुछ तत्त्वों के गले नहीं उतरेगा, लिहाजा उसके लिए व्यापक स्वीकार्यता की दरकार होगी। उन कारोबारी दिग्गजों को वाजपेयी की यह सारगर्भित सलाह मिली कि माहौल बनाइए। उन कारोबारी दिग्गजों ने अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में माहौल बनाया और कुछ ही महीनों के बाद वाजपेयी सरकार ने भी विदेशी निवेश नीति में अपेक्षित परिवर्तन के रूप में प्रतिक्रिया दी। वह शायद एक अलग ही दौर था और वह सरकार भी राजनीतिक दलों के गठबंधन से चल रही थी। आज तो यह कल्पना करना ही मुश्किल है कि सरकारी नेता बदलाव के वास्ते अनुकूल माहौल बनाने के लिए नीतिगत सुधारों की पैरवी करने वालों की मदद लेंगे। बहरहाल, आज के दौर में भी नीतिगत बदलाव के लिए आवश्यक माहौल बनाने के महत्त्व को शायद ही कमतर करके आंका जा सके।वास्तव में, विशेषज्ञ समितियों या मंत्री समूहों की सिफारिशों की तुलना में माहौल बनाने की आवश्यकता कुछ वर्षों से और महत्त्वपूर्ण हो गई है। वाजपेयी ने अहम नीतिगत मुद्दों को सुलझाने के लिए मंत्री समूहों के गठन की व्यवस्था आरंभ की। वे समूह सरकार के भीतर माहौल बनाने में सहायक हुए, लेकिन उनका प्रभाव अपेक्षाकृत सीमित था। इसके बावजूद वह चलन काफी लोकप्रिय हुआ और वाजपेयी की अनुवर्ती मनमोहन सिंह सरकार ने तो उसे खासा पसंद भी किया। वर्ष 2014 में मनमोहन सिंह सरकार का दस वर्षीय कार्यकाल पूरा होने तक उसमें कुल 21 मंत्री समूह के साथ ही नौ अधिकार प्राप्त मंत्री समूह भी थे, जो विभिन्न नीतिगत मुद्दों के परीक्षण के लिए गठित किए गए थे। नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 में अपना कार्यकाल एक अलहदा बिंदु पर शुरू किया। मई में सरकार गठन के बाद उसके शुरुआती फैसलों में से एक यही रहा कि सभी अधिकार प्राप्त मंत्री समूह और मंत्री समूह समाप्त कर दिए गए। लेकिन कुछ साल बाद इस पर पुनर्विचार हुआ। मोदी सरकार ने भी इन मंत्री समूहों की महत्ता को महसूस किया। अभी तक करीब दर्जन भर मंत्री समूह गठित हुए हैं। इस बीच एक बड़ा सवाल यही है कि किसी बड़े नीतिगत परिवर्तन को आकार देने से पहले क्या देश में आवश्यक माहौल बनाने का प्रयास किया गया? ऐसा लगता तो नहीं। उल्लेखनीय है कि विशेषज्ञ समिति या मंत्री समूह का गठन माहौल बनाने जैसा नहीं। यहां तक कि वाजपेयी ने भी इस बात को समझा। उन्होंने अपने वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को हरी झंडी दिखाई कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी घटाकर 33 प्रतिशत करने की घोषणा करें। यह घोषणा बैंकिंग क्षेत्र सुधारों पर गठित नरसिम्हन समिति की सिफारिशों पर आधारित थी। चूंकि ऐसी घोषणा के पक्ष में कोई माहौल नहीं था तो वह प्रस्ताव बड़ी खामोशी से दफन हो गया। इसके विपरीत मोदी सरकार के आठ वर्षों के कार्यकाल में निजीकरण का एकमात्र सफल उदाहरण पहले से माहौल बनाने के प्रयासों का परिणाम ही रहा। यहां एयर इंडिया की बात हो रही है। उसके निजीकरण के लिए माहौल बनाने की कोशिशें 2017 से ही आरंभ हो गई थीं। फिर टाटा को एयर इंडिया बिक्री की प्रक्रिया पूरी करने में चार साल लग गए। असल में माहौल बनाने में समय लगता है और उसके नतीजे कुछ वर्षों बाद महसूस होते हैं, लेकिन उसमें प्रतिकूल प्रभावों या पलटाव की आशंका समाप्त हो जाती है। विगत वर्षों से मोदी सरकार कुछ सरकारी बैंकों का निजीकरण करने की योजना पर काम रही है। लेकिन इन बैंकों की बिक्री को आगे बढ़ाने के लिए कानून में आवश्यक संशोधन के लिए संसद में विधेयक प्रस्तुत करने की सरकारी अपेक्षाएं परवान नहीं चढ़ पाई हैं। सरकारी बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया को पूरा करने से पहले कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनके उत्तर दिए जाने आवश्यक हैं। लेकिन बैंकों के निजीकरण की दिशा में सभी अंशभागियों तक पहुंच पाने और आवश्यक माहौल बनाने का कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा। भारतीय रिजर्व बैंक भी उन मौजूदा प्रावधानों में ढील देने का इच्छुक नहीं दिखता, जो किसी कारोबारी समूह को बैंक का स्वामित्व हासिल करने में बाधक बनते हैं। अगर बिक्री के लिए उपलब्ध इन सरकारी बैंकों में बहुलांश हिस्सेदारी हासिल करने के लिए कोई कारोबारी समूह बोली लगाए तो आखिर उसमें क्या हर्ज है? सरकारी बैंकों में मजबूत ट्रेड यूनियंस (कर्मचारी संघों) की मौजूदगी है। स्वाभाविक रूप से वे निजीकरण के विरुद्ध हैं। ऐसे में बिना किसी अवरोध के निजीकरण करने के लिए इन यूनियनों को आश्वस्त करने के क्या प्रयास किए गए? विशेषज्ञ समिति या मंत्री समूह द्वारा सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश से बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलने वाली। निजीकरण के विरोध की काट करने के लिए माहौल तो बनाना ही होगा। अगर आवश्यक हो तो इसमें कामगारों के साथ सौदेबाजी भी की जा सकती है। कृषि सुधार कानूनों को लागू करने में असफलता से कुछ सबक लिए जाने चाहिए। विशेषज्ञ समितियों और विशेषज्ञों ने उन कानूनों की पैरवी की थी। लेकिन उन विधेयकों को संसद से पारित कराने से पहले आवश्यक माहौल बनाने के लिए पर्याप्त काम नहीं किया गया था। अब एक बार फिर से किसान आंदोलन की नई सुगबुगाहट के संकेत मिलने लगे हैं। सरकार ने एक समिति बना दी है, लेकिन यह कदम पर्याप्त नहीं होगा। आंदोलनकारी किसानों के दृष्टिकोण को समझने और समझाने के लिए उन तक पहुंच बनाने के प्रयास इस दिशा में अधिक प्रभावी सिद्ध होने चाहिए। सरकार की मंशा अब बिजली कानून में सुधार की है और इससे संबंधित विधेयक समीक्षा के लिए संसदीय समिति को भेजा गया है। इस कानून के कई प्रावधानों का राज्यों ने विरोध किया है। यहां भी यही आवश्यक है कि राज्यों को रजामंद करने के लिए माहौल बनाया जाए ताकि वे उन आवश्यक परिवर्तनों पर सहमत हो सकें, जिनसे बिजली वितरण क्षेत्र मजबूत बने। इसी प्रकार कुछ राज्य नई श्रम संहिता पर हस्ताक्षर करने को लेकर भी अनिच्छुक हैं। राज्यों के साथ परामर्श हमेशा मददगार होगा, विशेषकर इसलिए कि कृषि एवं बिजली कानूनों की तरह नई श्रम संहिता की सफलता भी मुख्य रूप से राज्यों की साझेदारी एवं सक्रियता पर ही निर्भर होगी। जीएसटी पर हुए अनुभव से मिले सबक भुलाए नहीं जाने चाहिए। बिजली सुधार और बैंकों के निजीकरण से जुड़े विधेयकों के सुगमता से पारित होने के लिए माहौल बनाने की महत्ता अब कहीं अधिक बढ़ गई है। देश का बदलता राजनीतिक घटनाक्रम और आगामी आम चुनाव का समय और नजदीक आते जाना इसका प्रमुख कारण है। गत सप्ताह ही वाजपेयी की चौथी पुण्यतिथि थी। इस अवसर पर भाजपा के शीर्ष नेताओं से लेकर सरकार के स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किए गए। सरकार के शीर्ष नेतृत्व ने 16 अगस्त को उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए। ऐसे में अगर वे पूर्व प्रधानमंत्री के सबसे अहम गवर्नेंस मंत्र को ही अनदेखा करें तो यह घोर विडंबना ही होगी। वही, माहौल बनाने का मंत्र। हमें समझना होगा कि आर्थिक सुधारों के लिए माहौल बनाने की आवश्यकता अतीत में कभी इतनी अधिक अहम नहीं रही, जितनी महत्त्वपूर्ण वह अब हो गई है।
