संयुक्त राज्य अमेरिका के संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) ने पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के फ्लोरिडा स्थित आवास पर छापा मारा। यह अमेरिका की राजनीति में अभूतपूर्व घटना है। अमेरिका के किसी राष्ट्रपति के पद छोड़ने के बाद अपने कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के खिलाफ पहली बार कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने कार्रवाई की है। (एक मामला रिचर्ड एम निक्सन का हो सकता था। इसमें निक्सन के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने जेरल्ड आर फोर्ड ने उन्हें क्षमा कर दिया था। द वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक इस छापे के पीछे यह अनुमान था कि ट्रंप के पास परमाणु रणनीति से संबंधित कुछ दस्तावेज थे। तर्क यह दिया गया कि जब ट्रंप ने राष्ट्रपति पद छोड़ा था तब उन्हें ये दस्तावेज सुपुर्द कर देने चाहिए थे। हो सकता है कि ये दस्तावेज अमेरिका के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम से संबंधित नहीं हों। यह भी संभव है कि इसमें ईरान के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम या सऊदी अरब जैसे देशों के बारे में जानकारी हो जिनके ट्रंप का खासा जुड़ाव था।इसकी संभावना नहीं के बराबर है कि छापे की निगरानी करने वाले एफबीआई और अमेरिका के न्याय विभाग ने राजनीतिक प्रतिशोध की भावना के तहत यह कार्रवाई की हो। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति और रिपब्लिकन पार्टी में उनके समर्थक बदले की भावना का आरोप लगा रहे हैं। इस तरह मामले का आगे बढ़ना खतरे की अलामत है - चाहे यह सच निकले या झूठ। भारतीय संदर्भ में दो बिंदुओं पर खासतौर से ध्यान दिए जाने की जरूरत है। पहला छापे की कार्रवाई का कारण क्या है और लोकतंत्र में अभियोजन की कार्रवाई स्वतंत्र रूप से हो। दूसरा गणराज्य में जवाबदेही और स्थायित्व के बीच संतुलन हो। अमेरिका में अन्य देशों की तुलना में स्वतंत्र जांच एजेंसियां हैं। जैसे एफबीआई और यहां तक कि अटॉर्नी जनरल। अमेरिका का राष्ट्रपति अटॉर्नी जनरल की नियुक्ति करता है। अटॉर्नी जनरल ही अमेरिका के न्याय विभाग का प्रमुख होता है। ऐसी स्वतंत्र एजेंसियों से भारत में कुछ लोगों को ईर्ष्या हो सकती है। भारत में एजेंसियां कभी भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं रही हैं। भारत में एजेसियां अब राजनीतिक शक्ति का पूरी तरह से हिस्सा बन गई हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को छोड़ा था, उस समय लोग यह कयास लगा रहे थे कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) या प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को उनके या उनकी पार्टी के खिलाफ कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। अन्य विपक्षी दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस से लेकर शिवसेना ऐसी जांच एजेंसियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल का तरीका सीख चुकी हैं। उन्होंने जवाबी कार्रवाई के तहत राज्य पुलिस और संबंधित कानून व्यवस्था से संबंधित निकायों का विपक्ष के खिलाफ इस्तेमाल किया है। तुलना की जाए तो अमेरिका के न्याय विभाग ने वॉटरगेट कांड की जांच रोकने के निक्सन के प्रयास को नकार दिया था। इसी तरह ट्रंप द्वारा नियुक्त अटॉर्नी जनरल बिल बार ने उस स्तर पर मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था जिस स्तर पर भारत के राजनीतिज्ञ हस्तक्षेप (या ट्रंप) की आमतौर पर उम्मीद रखते। फिर भी यह कुछ साझा मानदंडों पर आधारित नाजुक व अस्थिर संतुलन है जिसे आसानी से कम करके आंका जा सकता है। ट्रंप और उनके समर्थकों की कार्रवाई से इन मानदंडों को क्षति पहुंची है। हालांकि यह जानबूझकर की गई आत्मरक्षा की कार्रवाई है। यह स्वार्थवश किया गया अविश्वास है कि अन्य लोगों के नैतिक मानदंड अलग हैं। लेकिन तथ्य यह है कि अगर एक पक्ष के लोगों को अविश्वास हो तो मानकों को लागू करना मुश्किल होगा। स्वतंत्र जांच प्रणाली के खिलाफ अविश्वास की भावना अत्यधिक व्यक्त करने से यह सिस्टम अपनी अखंडता व स्वतंत्रता को खो देता है।दूसरी चिंता की बात यह है कि एक पूर्व राष्ट्रपति व भविष्य के संभावित राष्ट्रपति के खिलाफ सार्वजनिक जांच एक राजनीतिज्ञ के करियर को खत्म करने की शक्ति रखती है। उदाहरण के तौर पर यदि ट्रंप को यूएस नैशनल आर्काइव्स के रिकॉर्ड सुपुर्द करने में विफल करार दिए जाते हैं तो अमेरिका का कानून संभवत: उन्हें भविष्य में किसी भी सार्वजनिक पद पर आसीन होने से रोक दे। इस तरह से प्रतिद्वंद्वी के राजनीतिक करियर को खत्म किए जाने की अत्यधिक आशंका है। इसलिए इस मामले को अमेरिका में ज्यादा तूल नहीं दिया गया है। यह एक संकेतक है कि क्यों पूर्व राष्ट्रपतियों के खिलाफ इस तरह जांच नहीं की गई थी। इसका मतलब यह नहीं है कि पहले पद छोड़ने वाले नेता अपने कार्यकाल के दौरान की गई कार्रवाई के मामले में कानून से ऊपर हैं। यदि ट्रंप के पास राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े कुछ गुप्त रहस्य रहे हैं और कानून को निश्चित रूप से अपना काम करना चाहिए। हालांकि पूर्ववर्तियों के खिलाफ राज्य की शक्ति का उपयोग विघटनकारी है। इस संदर्भ में भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े गांधी परिवार की जांच में देखते हैं। इसका मतलब यह भी है कि नेताओं के दिलो दिमाग में खौफ होगा। नेताओं को डर लग सकता है कि यदि वे सत्ता में नहीं रहेंगे तो उनके खिलाफ मुकदमे दायर किए जाएंगे। ऐसे में नेता अपनी शक्ति नहीं छोड़ेंगे। जैसे प्राचीन रोमन गणराज्य में पोम्पी द ग्रेट और जूलियर सीजर डर जाते हैं, इस डर के कारण उन्होंने सत्ता पर कब्जा कर लिया। इस तरह वे अपनी गणराज्य को तबाही की ओर ले जाते हैं। यह एक कारण है कि क्यों स्वतंत्र एजेंसी और सत्ता से अलग हो गए नेताओं के खिलाफ जांच का उच्च मानदंड क्यों जरूरी है। इन दोनों के बिना एक उदार गणराज्य का बना रहना संभव नहीं है।
