क्या आपको एचसी गुप्ता का नाम कुछ सुना हुआ सा नहीं लगता। यदि नहीं, तो तीन पहलुओं पर गौर कीजिए। एक यही कि आप अखबारों को ध्यान से नहीं पढ़ते। दूसरा, यह कि आपको इसकी कोई परवाह नहीं कि ईमानदार लोक सेवकों की क्या नियति हो, जबकि भ्रष्ट लोग बड़े आराम से बच निकल जाएं। और तीसरा, यही कि अगर ऐसा है तो आपको यह शिकायत बंद कर देनी चाहिए कि अफसरशाही अवरोध आर्थिक सुधारों में बाधक बनते हैं। यहां मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि एचसी गुप्ता मेरे कोई रिश्तेदार भी नहीं। वैसे, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वह 1971 बैच के आईएएस अधिकारी हैं, जो कोयला सचिव के पद तक पहुंचे और उन पर तथाकथित कोयला खदान आवंटन घोटाले में दर्ज कुल 12 में से 11 मामलों में आरोप सिद्ध हुए और जेल की सजा सुनाई जा चुकी है। यहां चार बिंदुओं को समझने की आवश्यकता है। पहला, यही कि जिन 11 मामलों में उन्हें दोषी सिद्ध किया गया है, उनमें से किसी में भी उन्होंने स्वयं के लिए कोई वित्तीय या भौतिक लाभ नहीं लिया और न ही अपराध की उनकी कोई मंशा रही। दूसरा, इन सभी 11 मामलों में वही अंतिम निर्धारक नहीं थे। आवंटन का अंतिम निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा लिया गया था। इसलिए अगर वह अनुचित आवंटन को हरी झंडी दिखाने के दोषी हैं तो कमेटी के सभी सदस्य और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी इसके दोषी हैं। तीसरा, उनके पास से कोई अकूत संपदा नहीं मिली। असल में जो भी उन्हें जानता है या उनसे मिला है, वह देख सकता है कि उनके पास कुछ नहीं बचा। यहां तक कि उन्हें एक बार अदालत में यह कहना पड़ा कि उनके पास अपराध स्वीकार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प शेष नहीं, क्योंकि उनके पास वकीलों के भुगतान के लिए पैसे ही नहीं बचे। चौथा, और सबसे महत्त्वपूर्ण कि जब कोई भ्रष्टाचार के मामलों में फंस जाए और उस पर दोष सिद्ध हो जाएं तब अमूमन करीबी एवं सहकर्मी ऐसे व्यक्ति को उसके हाल पर छोड़ देते हैं, लेकिन इसके उलट इस मामले में वे न केवल गुप्ता के पक्ष में मुखरता से आवाज बुलंद करते रहे, बल्कि उन्होंने उनकी कानूनी लड़ाई के लिए वित्तीय संसाधन भी जुटाए। कारण स्पष्ट है कि गुप्ता सेवानिवृत्त हैं और 74 साल की उम्र में कंगाली के शिकार हो गए हैं। गुप्ता के पक्ष में मुहिम चलाने वालों में उनके बैचमेट और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, उनके बाद कोयला सचिव बने अनिल स्वरूप और पूर्व भारी उद्योग सचिव राजन कटोच शामिल हैं। कुरैशी तो यह भी याद दिलाते हैं कि गुप्ता निष्कलंक रिकॉर्ड वाले शानदार अधिकारी थे और अपने चुने हुए विषयों में 600 में से 600 अंक प्राप्त कर टॉपर बने थे। यह 2010 से 2013 के बीच घोटाले से जुड़े उन मामलों के पुनरावलोकन का बिल्कुल माकूल समय है, जिन मामलों की छाया आज भी भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर पड़ती रहती है। आप शायद यही कहें कि राजनीति की भला किसे पड़ी है। नेता अपना ख्याल खुद रख सकते हैं या जैसा बोते हैं, वैसा काटते हैं। यहां महत्त्वपूर्ण यही है कि इसने हमारी अर्थव्यवस्था को लंबे समय तक अभिशप्त किया। यह कितना भारी था, इसकी झलक इसी महीने 5जी स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए नीलामी में स्पष्ट रूप से दिखी। नीलामी में कुल बोलियां 1.5 लाख करोड़ रुपये से कम रहीं। विपक्ष इस पर बिफर पड़ा और उसने भाजपा को याद दिलाया कि उनके प्रिय नायक पूर्व राष्ट्रीय लेखाकार विनोद राय ने अपनी चर्चित सीएजी रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम में ही 1.76 लाख करोड़ रुपये के घोटाले का उल्लेख किया था। विपक्ष का आरोप है कि यदि 2007 में 2जी स्पेक्ट्रम 1.76 लाख करोड़ रुपये का हो सकता है तो 15 वर्ष बाद उससे कहीं ऊंची क्षमता वाला 5जी स्पेक्ट्रम से कम राशि क्यों जुटती है, जबकि इस दौरान समूची अर्थव्यवस्था और दूरसंचार क्षेत्र में खासी वृद्धि हुई है और डॉलर लागत भी करीब दोगुनी है। विपक्ष को इसमें घोटाले की बू आ रही है। यहां मैं दो-टूक कहूंगा कि इस नीलामी में कोई घोटाला नहीं हुआ है। अभी तक के साक्ष्य इसमें किसी गड़बड़ी का संकेत नहीं देते। वैसे तर्क दिया जाए तो अगर निष्पक्ष नीलामी के माध्यम से प्राप्त इस आंकड़े में कोई घोटाला नहीं तो क्या 2007 में ऐसी ही परिसंपत्ति के एक हिस्से का इतना ऊंचा मूल्यांकन किया जाना घोटाला नहीं? भारत के दूरसंचार क्षेत्र और अर्थव्यवस्था ने इस कपोल-कल्पित गणित से जुड़ी बेहूदा हरकत की क्या कीमत चुकाई है? अगर यह फंतासी नहीं है तो फिर पैसा कहां है? तब इस नीलामी से 10 लाख करोड़ रुपये जुटने चाहिए। दस लाख करोड़? आप कह सकते हैं कि क्या यह आपे से बाहर होने वाली बात है, लेकिन मैं कहूंगा कि ऐसा नहीं है। यह 2012 की बात है। तब सीएजी रिपोर्ट प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जारी होती थी। जबकि परंपरा के अनुसार उसे खामोशी से संसद के पटल पर रखा जाना चाहिए। ऐसी ही एक कॉन्फ्रेंस में बड़े जोर-शोर से घोषणा हुई कि सीएजी ने 2जी स्पेक्ट्रम से भी कई गुना बड़ा घोटाला पकड़ा है। इसे कोयला घोटाला या ‘कोल-गेट’ का नाम दिया गया। आरंभिक स्तर पर यह घोटाला 10.7 लाख करोड़ रुपये का बताया गया। इसीलिए अब 5जी बिक्री में 10 लाख करोड़ रुपये के आंकड़े की कल्पना मेरे लिए बेमानी नहीं होगी। इसके लिए बस आपको कुछ दुस्साहसिक लेखा परीक्षण की दरकार होगी। बहरहाल, कोल-गेट की ओर लौटें तो उच्चतम न्यायालय इसमें कूद पड़ा और उसने 1993 के बाद से आवंटित सभी कोयला खदानों का आवंटन रद्द कर नई नीलामी और सीबीआई को जांच का आदेश दिया। उस भंवर में केवल एचसी गुप्ता अकेले नहीं फंसे थे। आईएएस क्रोफा सहित कुछ अन्य अधिकारी भी धरे गए। वहीं शीर्ष नेता और लाभार्थी करोड़पति मुख्य रूप से बच निकले। सीएजी की सक्रियता के चरम काल में इन ‘घोटालों’ में से किसी में भी कोई रिकवरी नहीं हो पाई। 2जी मामले में सभी बरी हो गए थे। इसी प्रकार राष्ट्रमंडल खेलों के ‘75,000’ करोड़ रुपये के घोटाले में भी अभी तक किसी पर दोष सिद्ध नहीं हो पाया। ऐसे ही 9 लाख करोड़ रुपये के ऐंट्रिक्स-देवास घोटाले की बात सामने आई। उसमें कोई रिकवरी तो हुई नहीं, उलटे भारत के विरुद्ध 1.2 अरब डॉलर का अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अवार्ड का फैसला सामने आया। उस सौदे में अनियमितता के आरोपी इसरो के पूर्व मुखिया 2018 में भाजपा में शामिल हो गए। केवल कोल-गेट में ही कुछ दोषी सिद्ध हुए और उनमें भी जो पीड़ित हैं वे निर्णयन प्रक्रिया के निचले स्तर पर रहे। एचसी गुप्ता उनमें प्रमुख हैं। उनकी नियति-दुर्गति को देखते हुए कोई अफसरशाह निजीकरण या किसी प्रमुख सुधार से जुड़े दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का साहस दिखा पाएगा? कारण यही कि अगर किसी निर्णय के कारण आपको जेल जाना पड़ सकता है और सेवानिवृत्ति के बाद आपका जीवन और गरिमा पर आघात हो तो आप ऐसा फैसला क्यों ही करेंगे? इसे एचसी गुप्ता के नजरिये से देखिए। उन्हें 11 मामलों में जेल की सजा सुनाते समय न्यायाधीश भी इस बात को लेकर स्पष्ट रहे कि उनके पास धन-संपदा नहीं है और न ही उन्होंने कोई अनुचित निजी फायदा उठाया। बस उनसे एक गलती हुई और संभव है कि वही सबसे आसान और सुविधाजनक बलि का बकरा बने। समस्या असल में पुराने भ्रष्टाचार निषेध अधिनियम में निहित है, जिसे एक के बाद एक सरकारों विशेषकर संप्रग सरकार ने अण्णा आंदोलन के दबाव में और सख्त बना दिया। इस अधिनियम की धारा 13(1)(डी)(iii) एक प्रकार से किसी अधिकारी को बिना किसी दोष के ही दोषी बना सकती है। गुप्ता के साथ बिल्कुल यही हुआ है। उनकी आरंभिक सजा के बाद चिंचित आईएएस एसोसिएशन ने मोदी सरकार से पैरवी की और उक्त धारा को 2018 में नए सिरे से लिखा गया। अब इस धारा के अनुसार कोई अधिकारी तभी दोषी होगा, यदि उसने अपने कार्यकाल के दौरान स्वयं को अवैध रूप से फायदा पहुंचाया हो या यदि ‘उसने अपने लाभ के लिए बेईमानी और धोखाधड़ी का सहारा लिया हो।’ आदि इत्यादि। यह उचित ही है। इसके बावजूद न्यायाधीश एक के बाद एक मामलों में गुप्ता को पुराने कठोर कानून के तहत दोषी ठहराते रहे। ‘सिस्टम’ कुछ इसी तरह काम करता है। और अगर यही ‘सिस्टम’ है तो आज कोई अधिकारी किसी सरकारी बैंक के निजीकरण प्रस्ताव पर क्यों हस्ताक्षर करेगा? इसीलिए हमें सुधारों पर अफसरशाही अवरोधों को लेकर झल्लाना बंद करना चाहिए। क्या कोई भी सेवानिवृत्त होने के बाद तिहाड़ जेल में जिंदगी गुजारना चाहेगा?
