नोएडा के निकट जेवर में तीन भैंसों के साथ डेरी कारोबार चलाने वाले सतपाल सिंह मई में इनपुट लागत में भारी इजाफे को लेकर चिंतित थे। उन्होंने कहा कि सूखे चारे के दाम, जो पिछले साल प्रति ट्रैक्टर ट्रॉली 1,500 रुपये से 2,000 रुपये थे, बढ़कर 4,500 रुपये से लेकर 5,000 रुपये तक हो गए हैं। पशु आहार की अन्य सामग्री (जिसमें सरसों की खली और इसी तरह का मिश्रण शामिल होता है) के दाम भी प्रति क्विंटल 2,000 रुपये से बढ़कर 3,100 से 3,200 रुपये प्रति क्विंटल हो चुके हैं। मई और जून में चारे की लागत प्रति जानवर बढ़कर औसतन 125 रुपये से 150 रुपये प्रति दिन हो गई है, कुछ महीने पहले तक यह 100 रुपये से भी कम थी। समस्या यह थी कि दूध के दामों उछाल अपेक्षाकृत हल्की रही। सिंह ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि इनपुट के दामों में बढ़ोतरी की तुलना में दूध के दाम अब भी कम हैं, जिससे हमारे लिए पशु पालना कठिन हो रहा है। सिंह की इस दुर्दशा से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार की रफ्तार धीमी क्यों रही है, जिससे पूरे क्षेत्र की मांग प्रभावित हुई है। जैसा कि हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के चेयरमैन और प्रबंध निदेशक संजीव मेहता ने हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था कि कमजोर ग्रामीण मांग न केवल दैनिक उपभोग की वस्तुओं (एफएमसीजी) वाले उद्योग के लिए चिंता का विषय बन गई है, बल्कि इसने टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं और परिधान जैसे अन्य उपभोक्ता खंडों की बिक्री पर भी असर डाला है। विभिन्न गैर-आधिकारिक संकेतक व्यापक ग्रामीण क्षेत्र में सुधार का संकेत देते हैं, जैसे अधिक कृषि मूल्य, शहरी क्षेत्रों में बढ़ती आर्थिक गतिविधि, जिससे अनौपचारिक क्षेत्र में काम के अवसर खुलते हैं तथा सामान्य आर्थिक सुधार। लेकिन ऊंची मुद्रास्फीति ये सभी फायदे छीन सकती है। हालांकि मार्च के शीर्ष स्तर के बाद कई वस्तुओं की महंगाई में गिरावट आई है, लेकिन यह गिरावट सभी जिंसों एक समान नहीं रही है। इसके अलावा पिछले साल के मुकाबले दैनिक उपभोग की कई वस्तुओं के दाम अब भी ज्यादा हैं। पिछले कुछ महीनों में फसल के दाम मजबूत रहे हैं, लेकिन कृषि परिवारों की औसत आय में फसल क्षेत्र की हिस्सेदारी में गिरावट रही है। इसलिए फसल की अधिक कीमतों ने आय बढ़ाने में कितना योगदान दिया है, यह एक बड़ा सवाल है। वर्ष 2018-19 के स्थितिपरक आकलन सर्वेक्षण (एसएएस) से पता चलता है कि किसी कृषि परिवार में फसल उत्पादन से होने वाली आय घटकर 37.7 प्रतिशत रह गई, जो वर्ष 2012-13 में 47.9 प्रतिशत थी, जबकि मजदूरी आय 32.2 प्रतिशत से बढ़कर 40.3 प्रतिशत हो गई। इसी दौरान वास्तविक वेतन वृद्धि खराब रही है। सामान्य कृषि मजदूरों (पुरुष) की वास्तविक ग्रामीण मजदूरी, जिसे कभी-कभार बेंचमार्क माना जाता है, जून 2022 तक या तो गिरा है या फिर मामूली अनुपात में बढ़ा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि वर्ष 2017-18 की मंदी के बाद से काफी वक्त से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तनाव बना हुआ है, इसलिए अचानक कोई सुधार नहीं होगा। उन्होंने कहा कि फसल की कीमतों में इजाफा फसल के दामों में गिरावट के संपूर्ण रुख के मुकाबले अल्पकालिक विकास है। उन्होंने कहा कि इसके अलावा इनपुट के दाम बढ़ रहे हैं। मुझे लगता है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में दबाव अब भी जोरदार है, क्योंकि मजदूरी तेजी से नहीं बढ़ रही है। प्रमुख ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम की मांग भी जोरदार बनी हुई है। कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लगातार दबाव का प्रतिबिंब है, क्योंकि अन्य व्यावहारिक विकल्पों के अभाव में सबसे गरीब और सबसे कमजोर वर्गों द्वारा मनरेगा रोजगार को अंतिम सहारे के रूप में देखा जाता है। जून 2022 में 3.167 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत काम की मांग की। यह पिछले साल इसी महीने के 3.397 करोड़ से कुछ ही कम है, जो महामारी वाली वर्ष था, लेकिन यह महामारी से पहले वाले वर्ष 2019-20 के जून महीने में 2.543 करोड़ परिवारों की संख्या से काफी ज्यादा है। इस साल अप्रैल और मई में 2.326 करोड़ तथा 3.074 करोड़ परिवारों ने इस योजना के तहत काम की मांग की। इस सुस्त सुधार का असर ग्रामीण उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री पर पड़ा है। मिसाल के तौर पर वाहन क्षेत्र में, फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष विंकेश गुलाटी ने कहा कि हालांकि ग्रामीण बिक्री ने महीने-दर-महीने सुधार का संकेत दिया है, लेकिन फिर भी गैर-जरूरी वस्तुओं की खरीद के मामले में जेब ढीली करने में अब भी संकोच बाकी है। पारले प्रोडक्ट्स के श्रेणी प्रमुख मयंक शाह ने कहा कि उन्हें पहले ही अप्रैल-जून तिमाही से सुधार देख रहा है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण मांग मजबूत बने रहने के तीन कारण हैं। मॉनसून की अच्छी प्रगति, बेची गई फसलों से की बेहतर आमदनी, जो मुद्रास्फीति का सकारात्मक परिणाम है तथा आगामी त्योहारी सीजन, जो दो साल तक हल्के उत्साह-उत्सव के बाद आ रहे हैं और उम्मीद है कि लोग बाहर आएंगे तथा उत्सव मनाएंगे। इस आशावाद के सामने एक बड़ा सवाल यह बना हुआ है कि ये सकारात्मक संकेतक कितने टिकाऊ हैं? पिछले सालों की तरह मॉनसून ही दिशा निर्धारित करेगा। लेकिन चार महीने वाले इस सीजन के पहले दो महीने में मॉनसून का स्वरूप मिला-जुला रहा है। कमजोर जून के बाद जुलाई में मध्य, दक्षिणी और पश्चिमी भारत में भारी बारिश हुई है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कुछ हिस्सों में सुधार उम्मीद के अनुरूप नहीं रहा है।
